चीन विवाद: जनभावनाओं को समझने में चूकती कांग्रेस?

डॉ. अजय खेमरिया

राहुल गांधी कांग्रेस के लिए तब तक अपरिहार्य राजनीतिक समस्या बने रहेंगे जब तक वे संसदीय राजनीति में सक्रिय रहेंगे। उनके बिना देश की स्वाभाविक शासक पार्टी का कोई भी विमर्श पूरा नहीं हो सकता है क्योंकि उनकी अमोघ शक्ति है उनका उपनाम। कांग्रेस के इतिहास में राहुल गांधी सबसे नाकाम गांधी हैं, लेकिन इसके बावजूद यह ऐतिहासिक पार्टी इस अनमने नेता के परकोटे से बाहर नहीं आना चाहती है।

चीन के साथ ताजा गतिरोध को लेकर राहुल और उनकी माँ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की भूमिका ने एक बार फिर यह प्रमाणित कर दिया है कि पार्टी के शिखर पर, राष्ट्रीय हितों और भारत के जनमन को समझने की बुनियादी समझ खत्म हो गई है। इस मामले पर बुलाई सर्वदलीय बैठक में जिस तरह शरद पंवार, उद्धव ठाकरे, स्टालिन, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, मायावती, रामगोपाल यादव  सरीखे नेताओं ने टीम इंडिया की तरह एकजुटता दिखाते हुए देश दुनिया को सुस्पष्ट सन्देश दिया वह सामयिक तो था ही आम देशवासियों की भावनाओं को भी अभिव्यक्त करता है।

सवाल यह उठेगा ही की राहुल गांधी और सोनिया गांधी जनभावनाओं और जमीनी सच्चाई से अभी भी पूरी तरह कटे हुए हैं? या गांधी परिवार मोदी के विरुद्ध अपनी निजी दुश्मनी को भुनाने के लोभ में राष्ट्रीय हितों को भी अनदेखा करने से नहीं चूकता है। जिस सर्वदलीय बैठक में देश की सभी पार्टियों ने एक स्वर में सरकार के माध्यम से भारतीयता को मुखर किया, उसके बाद समझा जा रहा था कि कांग्रेस अपने रुख में बदलाव लाएगी। लेकिन राहुल गांधी ने कल फिर एक ट्वीट कर प्रधानमंत्री मोदी को निशाने पर लिया। उन्होंने इस बार सवाल पूछने की जगह मोदी को आत्मसमर्पित नेता के रूप में बताकर तंज कसा।

सवाल पूछना लोकतंत्र का आभूषण है लेकिन यह राष्ट्रीय हितों से ऊपर नहीं हो सकता है। देश के रक्षा मंत्री रहे शरद पंवार 1962 के बाद शांति बहाली दल के जिम्मेदार सदस्य रहे हैं। उन्होंने जो कुछ कहा उसे समझने की जगह राहुल गांधी चीनी प्रोपेगेंडा टीम के सदस्य की तरह व्यवहार करके कांग्रेस की विश्वनीयता को ही कमजोर कर रहे हैं।

यह ध्यान देने वाली बात है कि राहुल और सोनिया के रुख से विपक्ष में भी यह पार्टी अलग थलग पड़ती जा रही है। तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र, यूपी, ओडीसा जैसे राज्यों में जिन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ उसका एलायंस है, वे भी चीन के मुद्दे पर कांग्रेस की भूमिका को खारिज कर प्रधानमंत्री मोदी के साथ मजबूती से खड़ी हैं। इसका मतलब यही है कि कांग्रेस जनभावनाओं के उलट केवल मोदी के विरुद्ध अपने नफरती एजेंडे पर आकर टिक गई है।

यह संसदीय राजनीति के भारतीय हितों के लिए दुःखद इसलिये भी है क्योंकि कांग्रेस ने इस देश की राजनीति और शासन को 60 वर्षों तक चलाया है। तथ्य यह भी है कि कांग्रेस परिवार और उसकी सल्तनत से आगे की समझ गंवा बैठी है। उसके लिए लोकतंत्र का मतलब केवल पार्टी और परिवार का प्रभुत्व ही है। इसलिए गैर कांग्रेसी दल और सरकार उसे स्वीकार नहीं है।

करगिल युद्ध के दौरान भी जब अटल जी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तब भी कांग्रेस ने उसका बहिष्कार किया था। क्योंकि उसके थिंक टैंक को लगता है कि देश की सत्ता पर स्वाभाविक दावा केवल एक ही परिवार का है। और फिर मोदी ने जिस अखिल भारतीय स्वीकार्यता के साथ परिवार के प्रभुत्व को जमींदोज किया है उसने एक अंतहीन और विवेकहीन प्रतिशोध से पार्टी नेतृत्व को भर दिया है। वामपंथी मानसिकता वाले सलाहकारों ने इस पार्टी के मन मस्तिष्क में यह सुस्थापित कर दिया है कि जब तक मोदी का मानमर्दन नहीं होगा तब तक उसके पुराने दिन नहीं लौट सकते है।

यही कारण है कि हर मसले की महत्ता को समझे बगैर माँ-बेटे की तोप मोदी की तरफ गरजने लगती है। सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक और पुलवामा पर जिस अंदाज में राहुल ने सवाल उठाए उन्हें देश की जनता ने सिरे से खारिज कर दिया और अब चीन के मुद्दे पर भी देश की जनभावनाओं को समझने के स्थान पर राहुल-सोनिया प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।

सवाल यही है कि देश के मिजाज को जब ममता, मायावती, शरद, स्टालिन समझ सकते हैं तो सबसे पुरानी पार्टी के सलाहकारों को यह समझ में क्यों नहीं आ रहा है। इसका एक सुस्थापित पक्ष अब यह भी है कि राहुल गांधी को न भारत की समझ है, न कांग्रेस इतिहास और न ही शासन की। वह अपनी ही समझ के भाड़े के उन सलाहकारों से घिरे हैं जिन्हें मोदी और संघ से निजी नफरत है और वे केवल वातानुकूलित माहौल में इंकलाबी प्रलाप के सिद्धहस्त हैं।

शेष नेता पर्सनेलिटी कल्ट से पैदा हुए हैं इसलिए वे न चाहकर भी माँ बेटे के नेतृत्व को झेलने के लिए विवश हैं। राहुल गांधी के सवाल पूछने पर किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए, लेकिन क्या जो सवाल राहुल और उनकी पार्टी से चीन को लेकर पूछे जा रहे हैं उनका जवाब भी इस स्वाभाविक शासक दल को नहीं देना चाहिए? क्या राहुल उस समझौते का ड्राफ्ट देश को बताने के लिए तैयार हैं जिसे 2008 में उन्होंने अपनी मां की मौजूदगी में जिनपिंग के साथ साइन किया था।

मोदी और जिनपिंग की शिष्टाचार भेंटों और झूला झुलाने पर सवाल खड़ा करने से पहले कांग्रेस को यह भी बताना चाहिए कि जब डोकलाम में भारत और चीन के बीच गलवन जैसी स्थिति थी, तब राहुल गांधी चीनी राजदूत के साथ क्या गुप्तगू कर रहे थे? क्यों लोकसभा में उसके नेता अधीर रंजन की चीनी निंदा को पार्टी ने उनकी निजी राय बताया था। राहुल अगर मोदी को चीन के आगे आत्मसमर्पित पीएम निरूपित कर रहे हैं तो उन्हें अपने नाना का इतिहास भी अपने सलाहकारों से मंगवाना चाहिये।

तथ्य यह है कि एक परिवार को देश के प्रधानमंत्री पर भरोसा नहीं है। वह तभी पीएम को अधिमान्यता देता है जब या तो परिवार का कोई सदस्य पीएमओ में हो या फिर डॉ. मनमोहन सिंह जैसा। यही कांग्रेस का बुनियादी संकट है।

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टीम मध्‍यमत

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