हेमंत पाल
भाजपा की प्रदेश चुनाव अभियान समिति की बैठक में पार्टी के दिग्गज नेता विक्रम वर्मा ने एक ऐसी कड़वी बात कही, जिसने भाजपा में उभरते वैचारिक असंतुलन को उजागर कर दिया। पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि जिस तरह कांग्रेस कार्यकर्ता भाजपा में आ रहे हैं, ऐसे में हम पुराने कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय कैसे बैठा सकेंगे। विक्रम वर्मा की इस चिंता को दूरदृष्टि की तरह देखा जाना चाहिए, जिसके नतीजे पार्टी हित में नहीं हैं। ये बात भले ही विक्रम वर्मा ने संक्षेप में कही हो, पर इसकी गंभीरता को समझना बहुत जरूरी है।
इन दिनों ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक कार्यकर्ताओं का रैला भाजपा की तरफ बढ़ रहा है। उन 22 विधानसभा क्षेत्रों के सैकड़ों कार्यकर्ता रोज ही भाजपा की सदस्यता ले रहे हैं, जहाँ उपचुनाव होना है। ये नहीं कहा जा सकता कि ये सभी कांग्रेसी थे और उस पार्टी को छोड़कर भाजपा में आ रहे हैं या भाजपा के प्रति उनकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता है। वे ये बताने की स्थिति में भी नहीं हैं कि उन्हें कांग्रेस से क्या शिकायत है?
यदि पूछा भी जाए, तो वे समर्थन में उस क्षेत्र के दलबदल करने वाले नेता का ही नाम लेंगे, इससे ज्यादा उनके पास कोई तर्क नहीं है। इसका सीधा सा आशय है, कि उन्होंने मन से या किन्हीं राजनीतिक कारणों से भाजपा की सदस्यता नहीं ली। ये उस भीड़ का हिस्सा हैं, जो सिंधिया समर्थक पूर्व विधायक उपचुनाव से पहले भाजपा में अपने समर्थन में बढ़ाना चाहते हैं। भाजपा इसलिए खुश है कि उसने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को तोड़कर उसे खोखला कर दिया। जबकि, ये सच नहीं है। भाजपा की इस तरह की खुशफहमी भविष्य के लिए गंभीर राजनीतिक खतरा हो सकती है। इसका विक्रम वर्मा जैसे नेता ने सिर्फ इशारा किया है।
भाजपा में विक्रम वर्मा उस खांटी पीढ़ी के नेता हैं, जिन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे जैसे तपे हुए नेता से दीक्षा ली है। वे पार्टी की धारा को समझते हैं और उन्होंने प्रदेश में भाजपा के संगठन को बुनने और आकार देने में पसीना बहाया है। वे संगठन की बारीकियों, उसके कड़े अनुशासन और पार्टी में कार्यकर्ताओं के संगठनात्मक ढांचे को भी जानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने जो कहा वो आज के किसी नेता के दिमाग में भी नहीं आया होगा। सिर्फ सत्ता पाने या उसे मजबूती देने के लिए भाजपा में जिस तरह की प्रक्रिया अपनाई जा रही है, वो बहुत घातक है।
वर्मा जानते हैं कि भाजपा का असल कार्यकर्ता अनुशासन से बंधा होता है। उसे ये अनुशासन संघ की पाठशाला से मिलता है और इसे तोड़ने की वो कभी हिम्मत नहीं कर सकता। उसकी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो, लेकिन वो कभी व्यक्तिपरक राजनीति करने की कोशिश नहीं करता और न पार्टी में इस सोच को कहीं स्थान दिया जाता है।
जबकि, कथित कांग्रेस से जो कार्यकर्ता (या नेता) भाजपा में आ रहे हैं, वे सिर्फ सिंधिया के पीछे आ रहे हैं न कि भाजपा से जुड़ने की उनकी कोई मंशा है। उनके लिए ऊपर भी सिंधिया है, नीचे भी सिंधिया और बीच में भी सिंधिया हैं। वे व्यक्तिपरक नेतागिरी के लिए भाजपा का दामन थाम रहे हैं, न कि भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर।
विक्रम वर्मा ने भाजपा और कांग्रेस कार्यकर्ताओं में समन्वय को लेकर जो चिंता जताई, उसे पार्टी ने गंभीरता से नहीं लिया, तो भाजपा में एक ऐसी धारा का प्रवाह होने लगेगा, जो अनुशासन के विपरीत होगी। क्योंकि, जो सिंधिया समर्थक भाजपा का झंडा थाम रहे हैं, उनके लिए भाजपा नहीं सिंधिया सर्वोपरि हैं। कांग्रेस में भी सिंधिया एक गुट था, पार्टी नहीं।
वही गुट अब कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गया, पर उसका मूल स्वभाव आज भी कायम है। यहाँ तक कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से उनके निजी प्रवक्ता भी भाजपा में आ गए। सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब सिंधिया भाजपा के नेता बन गए, तो उनकी बातों को मीडिया तक लाने की जिम्मेदारी भी भाजपा प्रवक्ताओं की है न कि सिंधिया के किसी प्रवक्ता की। फिर उन्हें निजी प्रवक्ता की जरूरत क्यों महसूस हुई।
भाजपा में संगठन के अनुशासन का अपना अलग तरीका है। यहाँ पार्टी सर्वोपरि है न कि नेता। जबकि, सिंधिया और उनके समर्थक जहाँ से आए हैं, वहाँ पार्टी अनुशासन जैसी कोई बात नहीं है। नेता जहाँ जाता है उसके साथ पूरा धड़ा उस दिशा में चला जाता है। सिंधिया समर्थकों की भाजपा में बढ़ती भीड़ उसी भेड़चाल का उदाहरण है।
जबकि, संघ के अनुशासन में बंधे होने के कारण ही भाजपा में कभी ‘वर्टिकल डिवाइडेशन’ नहीं हुआ, जैसा कांग्रेस में कई बार हो चुका है। भाजपा में वीरेंद्र कुमार सकलेचा और कृष्णगोपाल माहेश्वरी ने एक बार ‘मध्यदेशीय भारतीय जनता पार्टी’ बनाई, पर कोई उनके साथ नहीं गया। उमा भारती ने मुख्यमंत्री रहने के बाद अपनी पार्टी बनाई, पर उनके साथ जाने वाले लोग भी उँगलियों पर गिने जा सकते थे।
जबकि, 2003 के चुनाव में प्रदेश के सभी 230 टिकट उमा भारती की पसंद से बंटे थे और आसमान फाड़ बहुमत भी भाजपा को मिला था। लेकिन, जब उन्होंने भाजपा छोड़ी तो पीछे आने वाला कोई नहीं था। ये वो चंद उदाहरण हैं जो भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी के प्रति आसक्ति दिखाते हैं। आज जो लोग कांग्रेस से भाजपा में आ रहे हैं क्या वो ऐसा कोई अनुशासन स्वीकार करेंगे। क्योंकि, उनकी राजनीति की धारा व्यक्तिपरक है।
एक मुद्दा ये भी कि जब किसी इलाके में कांग्रेस से आए कार्यकर्ताओं और नेताओं की पूछपरख ज्यादा होने लगेगी तो भाजपा कार्यकर्ताओं की बात कौन सुनेगा। ऐसे में समन्वय बिगड़ेगा, अनुशासन बिगड़ेगा और पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का मन भी।
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टीम मध्यमत