रमाशंकर सिंह
बिहार में नीतीश राज के पंद्रह साल हो रहे हैं, लालू राबड़ी ने भी पंद्रह बरस राज किया। उसके पहले कर्पूरी ठाकुर भी मुख्यमंत्री रहे थे। कांग्रेस से अब्दुल गफ़ूर भी बिहार के मुखिया रहे। यानी मोटे तौर पर पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधियों ने बिहार पर 35-40 बरस शासन किया है। यह अच्छी अवधि है, समाज में चमत्कारिक परिवर्तन करने के लिये, पर वैसा हुआ नहीं जो करना उतना मुश्किल भी नहीं था।
हॉं लालू ने पहले टर्म में पिछड़ों का स्वाभिमान जाग्रत किया और उनमें आत्मविश्वास पैदा किया जो बाद में जातीय संगठन व चुनावी समीकरणों में बदल गया। इस जातीय एकता ने संख्या बल और बाहुबल से अन्य जातियों व वर्गों को तिरस्कृत करना शुरू किया जिसके कारण गैरयादव पिछड़े वर्ग इकट्ठा हो गये और लालू का बनाया ‘माई’ फ़ार्मूला पिट गया। जब तक ‘माई’ में कुछ अन्य शक्तियॉं आकर नहीं मिलती और ढंग से चुनाव नहीं लड़ा जाता ‘माई’ बेअसर रहती है। 2015 के चुनाव में यही हुआ और लालू, नीतीश और कांग्रेस मिल गये तो महागठबंधन आराम से जीत गया।
यदि लालू अपनी परिचित गँवारू दबंगई और खुद के दैनंदिन दरबार में मुख्यमंत्री का रोज़ रोज़ मखौल उड़ाने से बाज आ गये होते तो महागठबंधन पूरे पाँच बरस चल सकता था। ऊँट की पीठ पर आख़िरी तिनका तब साबित हुआ जब सीबीआई की चार्जशीट के बाद बार-बार आग्रह करने पर भी लालू परिवार ने कैसा भी स्पष्टीकरण देने से मना कर दिया और कांग्रेस की सोनिया-राहुल युति ने इस मामले में कुछ भी हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।
अगले दिन ही महागठबंधन की सरकार पिट गई और भाजपा ने यह मौक़ा लपक लिया। नीतीश में सत्तासीन रहने की ऐसी बीमारी लगी हुई है कि वह इस्तीफ़े के बाद कुछ दिन भी विपक्ष में बैठकर स्थितियों के पुनर्विकसित होने का इंतज़ार न कर सके! उन डेढ़ दो बरसों में नीतीश कांग्रेस नेतृत्व की सड़ियल और केंद्रीयकृत कार्यशैली को देख कर निराश हो चुके थे।
सोनिया गांधी ने नीतीश कुमार को पहला राजनीतिक मिशन असम में गठबंधन बना कर चुनाव लड़ने का सौंपा था जो कि हर कदम पर कांग्रेस की सहमति से फायनल सीट बंटवारे को घोषित करने तक पहुँच गया था और इस गठबंधन में अजमल का क्षेत्रीय दल व असम गण परिषद भी शामिल हो गये थे। सब सहमति बन गई थी। लेकिन घोषणा की तयशुदा तारीख़ के कुछ घंटे पहले मुख्यमंत्री गोगोई के कहने पर सोनिया गाँधी की ओर से प्रेस कांफ्रेंस रद्द करने की सूचना भिजवा दी गई जिसके कारण नीतीश कुमार की काफ़ी किरकिरी हुई थी।
और फिर सीबीआई की चार्जशीट पर सोनिया राहुल द्वारा कई बार की माँग पर भी हस्तक्षेप न करना नीतीश को यह समझाने के लिये पर्याप्त था कि महागठबंधन में लालू की हैसियत नीतीश से ऊपर ही रहेगी। इसके पहले उप्र के चुनावों के लिये उन्हें कहा गया जहॉं उन्होंने कुर्मी बहुल इलाक़ों में घूम कर माहौल बनाना शुरु किया। कांग्रेस और अखिलेश की सपा में समझौता हुआ जिसके अनुसार सपा ने कांग्रेस व अन्य छोटे दलों के लिये 100 सींटें छोड़ दी लेकिन सौ सीटें मिलते ही कांग्रेस ने सब हड़प लीं।
जबकि तय हुआ था कि अन्य दलों को भी सांकेतिक उपस्थिति व सम्मान के लिये मात्र पॉंच-पाँच सीटें दी जाएं। इनमें जदयू, पीस पार्टी आदि शामिल थीं। शरद यादव का तो फ़ोन तक कांग्रेस के ज़िम्मेदार नेताओं ने तब नहीं उठाया और सोनिया के कहने पर पंच बने नीतीश पुन: बेइज्जत हुये। परिणामत: नीतीश ने पलटीमार कर भाजपा के साथ जाने का फ़ैसला किया जहॉं ऊपरी तौर पर उनका सम्मान तो रखा जाता है और नेतृत्व पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं लगता।
इस तरह कांग्रेस ने तीन प्रमुख राज्यों बिहार, असम, यूपी को अपने हाथ से निकलने दिया। ज़ाहिर है कि गॉंधी परिवार के इर्द-गिर्द बेइंतहा स्वार्थी, घटिया व छोटी सोच के लोग जमा हैं जो परिवार के साथ-साथ कांग्रेस को भी शून्य पर पहुँचाने का फ़ैसला कर चुके हैं।
बिहार पर ही लौटते हैं। बिहार में जातीय सामाजिक समीकरण हर बार हावी रहते हैं, इस बार भी रहेंगें। कोई कोरोना, कोई चीन पाकिस्तान वहॉं कुछ फ़र्क़ नहीं डालेगा। आज बिहार में यादव और मुस्लिम जैसे थे, वैसे ही रहेंगे, लेकिन यादवों में कुछ कमजोरी आयेगी क्योंकि दृश्य पर लालू नहीं है, लालू के पुत्र हैं। इनके जीवन में ज़मीनी राजनीति का रसरंग ठीक से उतर नहीं पाया है, कुछ हद तक इन्हें मालूम भी नहीं है।
मुझे कभी-कभी यह लगता है कि तेजस्वी इस 2020 के चुनाव में सब कुछ नहीं झोंकेंगे और 2025 की तैयारी में लगेंगे। तब तक राजद में बचे खुचे बुजुर्ग और असरदार समाजवादी नेता एकदम अशक्त हो जायेंगे और लालू की पगड़ी भी उनके सिर पर पहनाई जा चुकी होगी। निर्द्वंद्व नेता के रूप में 2025 में अपना खंब ठोकेंगे पर राजनीति में इतनी दूर की योजनाओं के रास्ते में क्या क्या बाधायें आ सकती हैं, यह उन्हें पता होना चाहिये।
कैसा भी निराशाजनक ख़राब चुनाव हो तो भी तेजस्वी का राजद प्रमुख विपक्षी दल तो बनेगा ही, यानी कैबिनेट मंत्री का दर्जा व सुविधायें तेजस्वी यादव को पॉंच बरस और मिलेंगी। मेरा क़यास है कि वे कोशिश करेंगे कि कांग्रेस को भी 2015 के मुक़ाबले कम सीटें देकर और महत्वहीन कर दें। तेजस्वी गॉंव-गॉंव घूम कर वहीं रात्रि विश्राम करने वाले नेता नहीं हैं। वे कुयें पर सबके सामने खुले में नहीं नहा सकते, जैसा करने में उनके पिता सिद्धहस्त हैं।
तो फिलवक्त बिहार में अभूतपूर्व साधनों और सवर्ण जातियों के वोट से लैस भाजपा है, कुछ अति पिछड़ी व दलित जातियों की पीठ पर बैठे नीतीश व पासवान हैं। और इन सबके ऊपर ‘टीना’ फ़ैक्टर है। टीना यानी there is no alternative TINA। जनता यदि नीतीश को हटाना भी चाहेगी तो क़ौन अगला मुख्यमंत्री है विपक्ष के पास? ज़ाहिर है सिर्फ़ एक नाम, तेजस्वी यादव का। और यह नाम 2020 में चल पायेगा, इसमें संदेह है।
अब जिन राज्यों में टीना फ़ैक्टर हो, वहॉं कई बुराइयों के बावजूद लोग यथास्थिति को स्वीकार कर लेते हैं, यथास्थिति को मंज़ूरी लोकतंत्र के लिये घातक होती है; यह मतदाता समझने को क्यों तैयार नहीं होते? क्या बिहार कभी जातिवाद के दंश से मुक्त होकर अपनी ज़िंदगी के मूल प्रश्नों पर कभी जाग्रत समाज बन पायेगा? या कि जनअसंतोष 2020 में ही एनडीए को उखाड़ फेंकेगा?
(शेष अगली किश्त में)
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टीम मध्यमत