राकेश अचल
लोकतंत्र में दो ही पथ ऐसे हैं जिनपर चलकर लोग सुख अनुभव करते हैं और इन्हें अपनी सुविधा के अनुसार बदलते रहते हैं। मध्यप्रदेश में पिछले चार महीने से राजनीति इन्हीं दो पथों के बीच भटक रही थी। इनमें एक पथ था लोकपथ और दूसरा था राजपथ। मध्यप्रदेश के राजा दिग्विजय सिंह और महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया में लोकपथ से राजपथ पर पहुंचने की होड़ थी। इसी होड़ में कांग्रेस टूटी और भाजपा के दामन पर दलबदल का दाग लगा, लेकिन अंतत: दोनों का मकसद पूरा हो गया। भाजपा के सुमेर सिंह भी आसानी से चुन लिए गए
आज की राजनीति को समझने के लिए आपको थोड़ा पीछे जाना पडेगा। 2019 के लोक सभा चुनाव में मप्र की एक मात्र छिंदवाड़ा सीट को छोड़कर सभी सीटें भाजपा ने नाटकीय ढंग से जीत ली थीं। इनमें भोपाल और गुना की वे दो सीटें भी शामिल थीं जिनसे राजा और महाराज चुनाव लड़े थे। पहली बार इन दोनों को पराजय का समान करना पड़ा था।
मध्य प्रदेश की 29 लोकसभा सीटों के लिए हुए मुकाबले में भोपाल से भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने कांग्रेस कैंडिडेट दिग्विजय सिंह को 3,64,822 मतों के अंतर से शिकस्त दी। उधर, गुना लोकसभा सीट से बीजेपी उम्मीदवार डॉ. केपी यादव ने कांग्रेस उम्मीदवार ज्योतिरादित्य सिंधिया को हरा दिया। कृष्णपाल सिंह ने 6,14,049 वोट हासिल किए जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया को 4,88,500 वोट ही मिल पाए।
देश के राजपथ पर पहुँचने में नाकाम इन दोनों महारथियों के लिए भले ही राजनीति जनसेवा का माध्यम हो लेकिन इनमें से कोई भी बिना संसद में बैठे जनसेवा करने की स्थिति में नहीं था, सो दोनों में राज्य सभा के लिए होड़ शुरू हो गयी। इसी होड़ में कांग्रेस टूटी और भाजपा की सरकार बनी। राज्य सभा की सदस्यता पाने के लिए दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जो कीमत अदा की वो शायद बहुत ज्यादा है। दिग्विजय सिंह पर कांग्रेस को सत्ता गंवाना पड़ी और ज्योतिरादित्य को अपने माथे पर दलबदल का टीका लगाना पड़ा। ये टीका किस रंग का है ये आप तय करें।
लम्बी जद्दोजहद के बाद अब दोनों महारथी राज्यसभा में आमने-सामने होंगे। इनके राज्य सभा में पहुँचने से किस पार्टी को क्या लाभ होगा और क्या नहीं ये अभी कहना सम्भव नहीं है क्योंकि सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। सिंधिया कांग्रेस में रहकर राज्य सभा में पहुँच पाते या नहीं ये संदेहास्पद था इसीलिए उन्हें कांग्रेस छोड़ भाजपा में आना पड़ा।
दिग्विजय सिंह के लिए राज्य सभा में पहुंचना जीवन-मरण का प्रश्न था, वे यदि इस बार राज्य सभा में जाने से रह जाते तो शायद उनके राजनितिक जीवन का पटाक्षेप हो जाता और वे शायद ऐसा चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी की सरकार को दांव पर लगाकर राज्यसभा की सदस्यता हासिल कर ली।
आने वाले दिनों में यदि भाजपा ने वादाखिलाफी न की तो राज्य सभा में पहुंचे ज्योतिरादित्य सिंधिया का एक बार फिर राजनीतिक राजतिलक हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें मंत्री बना सकते हैं। सिंधिया का मंत्री बनना भाजपा को मिशन 2024 के लिए उपयोगी हो सकता है, लेकिन कांग्रेस को दिग्विजय के राज्य सभा में पहुँचने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।
राज्य सभा में पहुँच कर दिग्विजय सिंह न प्रदेश में कांग्रेस की सरकार वापस ला सकते हैं और न मिशन 2024 में कोई निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं। पिछले 35 साल में ये पहला मौक़ा है जब सिंधिया परिवार का कोई सदस्य केन्दीय मंत्रिमण्डल में नहीं है, अन्यथा जब कांग्रेस की सरकार थी तब माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया मंत्री रहे और जब भाजपा की सरकार थी तो वसुंधरा राजे केंद्र में मंत्री रहीं। अब एक साल के अंतराल के बाद शायद परिदृश्य फिर बदले।
राज्यसभा में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए भाजपा का जो राष्ट्रव्यापी अभियान चल रहा है उसके बारे में मै फिलहाल कुछ नहीं कहना चाहता, मैं फिलहाल अपने सूबे तक सीमित हूँ और यहां जो कुछ हुआ वो किसी से छिपा नहीं है। राज्य सभा चुनाव में अपनी बढ़त बनाये रखने के लिए भाजपा ने साम, दाम, दंड और भेद का खुलकर इस्तेमाल किया। ऐसा उसे करना भी चाहिए था, कांग्रेस ने यहां भी मुंह की खाई और खाना भी चाहिए क्योंकि कांग्रेस लगातार जन आकांक्षाओं को समझने में असफल साबित हो रही है। जनता ने कांग्रेस को प्रदेश की सत्ता सौंपी लेकिन वो इसे सम्हाल नहीं पाई और जनता को फिर उसी सल्तनत में लौटना पड़ा जो पंद्रह साल से उसके लिए सिरदर्द बनी हुई थी।
विडंबना देखिये कि निर्वाचित विधायकों को उन लोगों को चुनकर राज्य सभा भेजना पड़ता है जो या तो जनता द्वारा सीधे चुनाव में ठुकराए जा चुके होते हैं या फिर जो संबंधित राजनीतिक दल के ‘माउथपीस’ होते हैं, जबकि इस सदन का गठन एक दूसरी ही परिकल्पना को लेकर किया गया था। राजनीतिक दलों ने राज्यसभा चुनावों को मजाक बना दिया है, कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा वाली कहावत इन चुनावों पर लागू होती है। आप भले पंजाब के हों लेकिन असम से चुने जा सकते हैं, दक्षिण के हों तो उत्तर भारत के किसी भी राज्य से चुने जा सकते हैं। इस विसंगति को कोई दल दूर नहीं करना चाहता क्योंकि इससे सभी को सुविधा होती है।
बहरहाल मैं राज्यसभा के लिए मध्यप्रदेश से विजयी राजा, महाराजा और सुमेर सिंह को बधाई और शुभकामनाएं देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि ये तीनों राज्यसभा में केवल अपने दल के हितों को ही नहीं बल्कि सूबे के हितों को भी संरक्षित करने में अपनी सक्रिय और सार्थक भूमिका निभाएंगे। इन चुनावों में किसने क्या किया ये सब अतीत हो चुका है, इसलिए अब इस पर कुछ भी कहना व्यर्थ है।
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टीम मध्यमत