चीन नीति: न थको, न रुको, आगे बढ़ो

राकेश अचल

लेह-लद्दाख में गलवान घाटी में भारत के 20 जवानों की शहादत से पूरे देश के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी बुरी तरह आहत हैं। उन्हें भी इस घटना से ठीक वैसा ही सदमा पहुंचा है जैसा किसी समय तत्कालीन प्र्धानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को चीन के दूसरे हमले के समय पहुंचा था। प्रधानमंत्री की देह की भाषा पर गौर करें तो वो बहुत कुछ कह जाती है।

प्रधानमंत्री जी देश को आश्वस्त करते समय थके और बुझे से दिखे, उनकी आवाज में वो जोश नहीं था जो कोरोना के खिलाफ पहले लॉकडाउन का ऐलान करते समय था। उनकी आवाज का ओज अचानक नदारद दिखाई दे रहा है, और ये स्वाभाविक भी है। इसे चाहकर भी छिपाया नहीं जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को अपना मित्र बनाने के लिए पिछले छह साल में क्या कुछ नहीं किया, लेकिन अंतत:मिला क्या? वो ही धोखा जो पहले के प्रधानमंत्री को मिल चुका है।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों और सरकारों के अनुभवों को यदि मोदी जी ने लेशमात्र भी ध्यान में रखा होता तो शायद उन्हें ये धोखा नहीं खाना पड़ता। नेहरू अपने लम्बे कार्यकाल में केवल एक बार चीन गए और समझ गए थे कि चीन को दुलारने का कोई लाभ नहीं है। लालबहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो चीन देखा ही नहीं। राजीव गांधी भी एक बार में ही चीन को समझ गए और दोबारा कभी चीन नहीं गए।

पी.व्ही. नरसिम्हाराव और अटल बिहारी बाजपेयी ने भी चीन का एक-एक दौरा किया और अनुभव किया की चीन सुधरने वाला नहीं सो दोबारा उन्होंने चीन का रुख नहीं किया। भारत में उदारवादी अर्थव्यवस्था के जनक डॉ. मनमोहन सिंह ने दो बार चीन की यात्रा के बाद जब कुछ हाथ नहीं लगा, तो चीन की तरफ से ध्यान हटा लिया लेकिन मोदी जी ने हिम्मत नहीं हारी।

अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के अनुभवों की अनदेखी कर उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में छह साल में एक बार नहीं बल्कि पांच बार चीन का दौरा किया। वे गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी चार बार चीन हो आए थे, लेकिन उन्हें भी कुछ हासिल नहीं हुआ। मोदी जी की चीन से रिश्ते सुधरने की कोशिशें सराहनीय थीं, लेकिन वे मात खा गए, क्योंकि उन्होंने अतीत से कोई सबक लिया ही नहीं। वे नेहरू को आँख की किरकिरी समझते रहे। उनकी विदेश नीति उन्हें नाकारा लगी, लेकिन जो हकीकत है सो आज सबके सामने है। आज मोदी जी को भी उन्हीं हालात से दो-चार होना पड़ रहा है जिनसे नेहरू हुए थे।

गालवन के बाद मोदी को टूटना नहीं चाहिए। नेहरू के समय का भारत आज के भारत की तरह समृद्ध नहीं था। आज के भारत के पास विकास और आर्थिक मजबूती की एक लम्बी पूंजी है। अधोसंरचना है, तकनीक है। मानव शक्ति है। 1967 में हम 52 करोड़ थे, आज हम 137 करोड़ हैं। प्रधानमंत्री जी को ये याद रखना चाहिए कि “1962 की लड़ाई में चीन के 740 सैनिक मारे गए थे। ये लड़ाई करीब एक महीने चली थी और इसका क्षेत्र लद्दाख़ से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैला हुआ था।

किन्तु 1967 में मात्र तीन दिनों में चीनियों को 300 सैनिकों से हाथ धोना पड़ा, ये बहुत बड़ी संख्या थी। इस लड़ाई के बाद काफ़ी हद तक 1962 का ख़ौफ़ निकल गया। भारतीय सैनिकों को पहली बार लगा कि चीनी भी हमारी तरह हैं और वो भी पिट सकते हैं और हार सकते हैं।” और आज तो स्थिति एकदम अलग है। हमारी सेना के पास सब कुछ है।

हम युद्ध के हामी कभी नहीं रहे, लेकिन यदि कोई सर पर चढ़ ही आये तो उसे कड़ा जवाब दिया जाना चाहिए। उम्मीद की जा सकती है कि भारत आज की तारीख में कूटनीतिक तरीके से इस मौजूदा स्थिति को सम्हाल लेगा। यदि हम बिना लड़े ही चीन को हराने में कामयाब हो जाएँ तो न सिर्फ नेहरू जी की आत्मा को शांति मिलेगी, बल्कि मोदी जी का क्लांत चेहरा भी एक बार फिर खिल उठेगा।

देश का जनमानस उनसे सहमत न होते हुए भी इस समय उनके साथ है, इसलिए फ़िक्र की कोई बात नहीं है। छःसाल में चीन को समझने में हुई गलतियों को सुधारने का ये सबसे सही मौक़ा है। भारत जब दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन झेल सकता है तो चीन के विरुद्ध क्या नहीं कर सकता? हमें नहीं भूलना चाहिए कि नेहरू के समय रक्षामंत्री रहे कृष्ण मेनन के इस्तीफे के बाद से ही भारत में स्वदेशी स्रोतों और आत्मनिर्भरता के माध्यम से हथियारों की आपूर्ति की नीति को पुख्ता किया गया।

आज भारत इस दिशा में बहुत आगे बढ़ चुका है और नेहरू के बाद की हर सरकार ने इस नीति का अनुसरण किया है। इसलिए हे मोदी जी न थको, न रुको, आगे बढ़ो। पूरा देश आपके साथ है।

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टीम मध्‍यमत

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