हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव की हलचल शुरू हो गई। ये उपचुनाव इसलिए महत्वपूर्ण हैं, कि इसी से सत्ता पर पकड़ का निर्धारण होगा। भाजपा ने 10-11 सीटें जीत लीं, तो सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत हो जाएगी। पर, यदि वो ये लक्ष्य हासिल नहीं कर सकी, तो कांग्रेस का पलड़ा भारी हो जाएगा। भाजपा की कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जाएं। कांग्रेस में अभी इस तरह की सक्रियता दिखाई नहीं दे रही।
जहाँ भाजपा उपचुनाव के लिए जी-जान लगाती दिखाई दे रही है, वहीं कांग्रेस को भाजपा में असंतोष भड़कने का इंतजार है। वो भाजपा की हार में अपनी जीत खोज रही है। ऐसे माहौल में बसपा की मायावती ने भी इन उपचुनाव में उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर सनसनी फैला दी है। ग्वालियर-चंबल इलाके में बसपा का अपना अलग जनाधार है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
मायावती में अचानक आई इस सक्रियता से कांग्रेस और भाजपा दोनों ने अपने तरकश में नए तीर रखने की तैयारी शुरू कर दी है। इस सारे चुनावी माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि उपचुनाव की चिड़िया की आँख भेदने के लिए सभी अर्जुन जैसी तैयारी में हैं। सबके तरकश में नए-नए तीरों की भी कमी नहीं, पर देखना है कि किसका निशाना सटीक बैठता है।
राजनीति का ऊंट बड़ा बेभरोसे का होता है। कब और कहाँ, किस ट पलटी खा जाए कहा नहीं जा सकता। किसने सोचा था कि 15 महीने पहले चुनाव जीतकर सत्ता में आने वाली कमलनाथ सरकार बगावत के एक झटके से धराशायी हो जाएगी। कांग्रेस के एक गुट ने अपना पाया हटाया और सरकार जमीन पर आ गई। लेकिन, अभी राजनीति का वो अध्याय पूरा नहीं हुआ है। अभी अंतिम अध्याय लिखा जाना बाकी है, जो शिवराज-सरकार के सत्ता में पैर जमे होने की घोषणा करेगा और उसके साथ राजनीति की इस सियासी कथा की पूर्णाहुति होगी।
ये अध्याय ही बताएगा कि दूसरे को गिराकर बनी सरकार क्या बरकरार रह पाएगी। सवाल बहुत पेचीदा है, पर इसके जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। सत्ता के सिंहासन का जो पाया 22 ईंटों से बना था, क्या वो फिर से बन पाएगा। यही कारण है कि अब फिर उसी ऊंट की करवट का इंतजार किया जा रहा है। दोनों ही तरफ से अपनी ताकत के दावे और प्रति-दावे किए जा रहे हैं। पर, अभी इनको परखा जाना बाकी है।
प्रदेश की 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव होने वाले हैं। दो सीटें विधायकों के निधन और 22 सीटें विधायकों की बगावत से खाली हुई हैं। 24 में से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल संभाग से आती हैं। ये पूरा इलाका कांग्रेस से बगावत के सूत्रधार ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक प्रभाव वाला माना जाता है। एक तरह से इस इलाके में उनके राजघराने की तूती बोलती है। यही कारण है, कि इस उपचुनाव पर मध्यप्रदेश की राजनीति का पूरा दारोमदार है।
इस उपचुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार और कांग्रेस का भविष्य क्या होगा? लेकिन, इस बार कांग्रेस के सामने सिर्फ चुनाव जीतना ही अकेली चुनौती नहीं होगी। उसे एक तरफ सिंधिया परिवार से मुकाबला करना होगा, दूसरी तरफ भाजपा को कमजोर करते हुए अलग तरह के जातीय समीकरण बैठाने हैं। उसे ज़मीनी तौर पर मजबूत होना होगा, तभी उपचुनाव की राह आसान होगी।
कांग्रेस ने उपचुनाव वाले इलाकों में अपने संगठन को मजबूत करने की कवायद भी शुरू कर दी है। पार्टी ने 11 नए जिला अध्यक्षों की नियुक्ति भी की है। इनमें ज्यादातर जिले कांग्रेस से बगावत करके भाजपा का दामन थामने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी असर वाले हैं। कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ उपचुनाव वाली सीटों पर गोपनीय सर्वेक्षण करवा रहे हैं। समझा जा रहा है कि इन सर्वेक्षणों से ही उम्मीदवार तय होंगे।
पता चला है कि कुछ सीटों की रिपोर्ट उन तक पहुंची भी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने यही फार्मूला अपनाया था। इसका नतीजा यह रहा कि उसने सीटों की गिनती में भाजपा को पीछे छोड़ दिया था। अब फिर इसी तरह की सर्वे रिपोर्ट को आधार बनाकर कमलनाथ सभी 24 सीटों के उम्मीदवारों का चयन करेंगे।
प्रदेश में पिछले तीन महीने से राजनीतिक हलचल पूरी तरह शांत थी और शिवराज-सरकार अपने नैनो मंत्रिमंडल के साथ कोरोना संकट से जूझने में लगी थी। लेकिन, अब धीरे-धीरे राजनीति का चूल्हा भी गरमा रहा है, जिस पर उपचुनाव की चपातियाँ सिकेंगी। लेकिन, अभी इस चूल्हे की आँच तेज करने की कोशिशें ही ज्यादा चल रही हैं।
कांग्रेस ने 11 जिला अध्यक्षों की नियुक्ति करके अपनी सक्रियता का संकेत दिया, तो भाजपा ने हर सीट के चुनाव प्रभारी नियुक्त कर दिए। कांग्रेस ने उन अध्यक्षों को किनारे कर दिया, जिनकी नियुक्ति सिंधिया की सिफारिश से हुई थी। कांग्रेस की कोशिश और रणनीति ग्वालियर-चंबल संभाग की 16 में से ज्यादातर सीटों के उपचुनाव में जीत हासिल करना है, ताकि सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर, श्योपुर, अशोक नगर और गुना जिले में सेंध लगाई जाए।
कांग्रेस ने नए जिला अध्यक्षों को नियुक्त कर उन्हें उपचुनाव की ज़िम्मेदारी सौंपी है। जबकि, भाजपा इन इलाकों से ज्यादातर बागियों को मंत्रिमंडल में शामिल कर उनकी ताकत बढाकर उपचुनाव जीतना चाहती है। लेकिन, इन 16 सीटों के पुराने भाजपा नेता कहीं न कहीं पार्टी की इस रणनीति में अड़ंगेबाजी कर सकते हैं। ये कहानी सिर्फ 16 क्षेत्रों की नहीं, सभी 24 खाली सीटों पर है। भाजपा को ये खतरा इतना ज्यादा सता रहा है कि उसकी रातों की नींद हराम हो गई। यही कारण है कि मंत्रिमंडल विस्तार को टाला जा रहा है।
इस सारी हलचल के बीच बहुजन समाज पार्टी ने जो सिक्का उछाला है, उससे दोनों पार्टियाँ भौचक हैं। बसपा सुप्रीमो ने सभी 24 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। मायावती के मैदान में कूदने से दोनों पार्टियों को चुनावी नुकसान का अंदेशा सताने लगा। क्योंकि, ग्वालियर-चंबल की वे सीमावर्ती विधानसभा सीटें जो उत्तरप्रदेश से लगी हैं, वहाँ बसपा का असर है।
मायावती ने उपचुनाव लड़ने का मन इसलिए बनाया कि वो कुछ सीटें जीतकर त्रिशंकु सरकार बनने की स्थिति में अपना उल्लू सीधा करने की चाल चलना चाहती हैं। ये मायावती की पुरानी रणनीति रही है। डेढ़ साल पहले हुए चुनाव में ग्वालियर-चंबल संभाग की 13 सीटों पर बसपा को अच्छे वोट मिले थे। दो सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे। जबकि, 13 सीटों पर बसपा के उम्मीदवारों को 40 हजार तक वोट मिले थे। अभी भी विधानसभा में बसपा के दो विधायक हैं।
मायावती को भरोसा है कि उपचुनाव में उन्हें कुछ और सीट मिल सकती हैं। क्योंकि, इस क्षेत्र की मेहगांव, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह, भांडेर, करैरा और अशोकनगर में बसपा कभी न कभी जीत चुकी है। गोहद, डबरा और पोहरी में बसपा दूसरे नंबर पर रही है। जबकि, ग्वालियर, ग्वालियर (पूर्व) और मुंगावली में वो नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में रहती है।
ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस, बसपा दोनों ही पार्टियों के जनाधार वाले जातीय समीकरणों में ज्यादा अंतर नहीं है। यही कारण है कि बसपा उलटफेर करके सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की कोशिश में है। सामान्य तौर पर बसपा उपचुनाव में रुचि नहीं लेती। लेकिन, 22 कांग्रेस विधायकों की बगावत और इस्तीफे के बाद जिस तरह सत्ता परिवर्तन हुआ है, उससे बसपा की उम्मीदें जागी हैं। यही वजह है कि उसने सभी उपचुनाव लड़ने का एलान किया। मालवा और विंध्य में वो शायद उम्मीदवार न उतारे, पर ग्वालियर-चंबल में वो शतरंज की बिसात बिछा सकती है।
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