बिहार चुनाव-2020 : अनिश्चित से बेहतर है जाना पहचाना शैतान!

रमाशंकर सिंह

बिहार के आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिये कौन कौन नाम तुरंत ज़ेहन में आते हैं? सिर्फ़ दो, एक नीतीश कुमार और दूसरा तेजस्वी यादव का। कहने को दो तीन नाम गिन लो पर सबको पता है कि वे दौड़ में नहीं है जैसे सुशील मोदी, नंदकिशोर यादव और आरसीपी सिंह। यदि प्रशांत किशोर जदयू में बने रहते तो अख़बारों में उनका नाम सबसे ऊपर चलता रहता।

यदि राजद 90-100 या ज़्यादा सीटें जीतती है तो तेजस्वी यादव को गंभीरता से बाक़ी दलों को लेना होगा और वे एक वज़नदार राजनीतिज्ञ के रूप में उभरेंगें। अभी राजद के गठबंधन में कांग्रेस ही ज़िक्र लायक़ दल बचा है, बाक़ी का कोई भरोसा नहीं कब कहां खिसक जायें। पिछली बार नीतीश कुमार से सोनिया गांधी ने बिहार विधानसभा की पच्चीस सीटें माँगी थीं और नीतीश-लालू ने मिलकर उन्हें चालीस दीं जिसमें से पच्चीस पर कांग्रेस जीत सकी थी। तब से कांग्रेस बिहार में मज़बूत नहीं हुई है और अब पच्चीस सीट भी लड़ने लायक़ मुश्किल से ही बची है।

तेजस्वी यादव कांग्रेस को चालीस सीट इस बार नहीं देना चाहेंगें, उनकी नज़र 2020 के अलावा अभी से 2025 पर है जब लालू और नीतीश दोनों ही शायद इतनी सक्रिय भूमिका में न रह पायेंगें। लालू नीतीश शिवानंद युग के अन्य समाजवादी नेताओं का भी यही हाल 2025 में हो चुका होगा और राजद नाम के राजनीतिक संगठन में राजनीतिक रूप से अनुभवी व पके हुये लोग किसी भी प्रकार के नैतिक दवाब के लिये तब अनुपस्थित होंगे और तेजस्वी अपनी फ़ुल मनमानी चला पायेंगें।

2019 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह का व्यवहार तेजस्वी ने कांग्रेस से किया, वह सबकी नज़र में आज तक खटक रहा होगा और इसीलिये राहुल गांधी की ज़्यादा दिलचस्पी इस चुनाव में शायद न हो। राहुल की सक्रियता से नतीजों पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।

अभी भी बिहार राजद के पक्ष में लालू युग का ‘माई’ फ़ैक्टर ज़िंदा है। मुसलमानों को मोदी अमित शाह ने गोलबंद करने पर मजबूर कर दिया है और वे 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ कुछ रूखे अन्यमनस्क भाव से चुनाव में वोट कर रहे थे। वैसा ढीला ढाला रुख इस बार नहीं होगा। यादव सामान्यतया राजद के पक्ष में जाना चाहेंगे यदि स्थानीय विपक्षी उम्मीदवार मज़बूत यादव नहीं हुआ तो।

लेकिन अब सिर्फ ‘माई’ ही जीतने के लिये पर्याप्त नहीं है, अन्य ‘भाई-बहन’ भी संगठित हो चुके हैं। सारे ग़ैर यादव पिछड़े व दलित-महादलित विभिन्न ख़ेमों में बंध चुके हैं। लालू का करिश्मा उनकी अनुपस्थिति में कम ही चलता है फिर भी चलता तो है ही।

नीतीश कुमार ने महादलित व अति पिछड़ों को इकट्ठा कर ‘माई’ की काट पेश की थी, वह जस की तस बनी हुई है इसलिये नहीं कि नीतीश ने उनकी ज़िंदगी में कोई बड़ा भारी परिवर्तन किया है, बल्कि मुंख्यत: इसलिये कि गांव स्तर के दबंग या तो यादव हैं या फिर राजपूत व भूमिहार। हर गांव में इन तीनों जातियों के द्वारा गरीब गुरबा का उत्पीड़न शोषण चलता रहता है।

ये सब वंचित लोग मिलकर रणनीतिक मतदान इस तरह करते हैं कि राजद हारे और नीतीश कुमार के दल को मदद होती रहे। यही कारण है कि बहुत कम आबादी की 4 फीसदी जाति कुर्मी के नीतीश कुमार, छुटपुट सामाजिक समूहों का वोट पाकर विजयी होते रहते है। नीतीश कुमार समर्थित और विजयी उम्मीदवारों की कुल संख्या ऐसा संतुलन खड़ा कर देती है कि अन्य सभी दलों की राजनीतिक मजबूरी हो जाये जदयू का समर्थन लेना।

अकेले उनका वोट प्रतिशत 16-17 फीसदी रहता है, पर इतना रहता है कि जिताना हराना इनके हाथ में बना रहे। इसी कारण से 2015 में लालू-मुलायम ने एकतरफ़ा घोषणा कर दी थी कि नीतीश ही हमारा चेहरा रहेंगे। जैसी घोषणा इस बार बीजेपी कर रही है।

तमाम कुशासन व कुराजनीति के बावजूद यह सामाजिक वास्तविकता जदयू यानी नीतीश कुमार को राजनीतिक मंच के केंद्र में रखती है। यदि भारत के विभिन्न राज्यों से लौटे चालीस लाख प्रवासी बिहारी मज़दूर चुनाव के पहले काम के लिये अन्य राज्यों में नहीं लौटे तो इस समूह का अंसतोष मौजूदा केंद्र व राज्य की सरकारों को भुगतना पड़ेगा जो निर्णायक भी हो सकता है।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता रहता है कि अगला मुख्यमंत्री कौन? यह प्रश्न भी सदैव मौजूदा सत्ताप्रतिष्ठान के पक्ष में ही जाता है। ऐसा चमत्कार राजद नेताओं ने कभी नहीं दिखाया कि वे सबसे पहली पंक्ति में दिखायी देते रहें। वैसी सूरत भी नीतीश के पक्ष में जायेगी।

अब नीतीश कुमार का छविभंजन भी पिछले पांच बरसों में खूब हुआ है। उनके सुशासन की पोल खुली पड़ी है। शिक्षा स्वास्थ्य में कुछ भी ऐसा काम नहीं हुआ है कि जिससे सुशासन की छवि कुछ तो बेहतर होती। नीतीश के पक्ष में सिर्फ एक बात है कि निजी रूप से वे भ्रष्ट, बेईमान नहीं हैं। जबकि उनके इर्द-गिर्द दो तीन ख़ास नेताओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक के नाम का तो टैक्स बिहार में बहुत ही चर्चित है।

घूम फिरकर बात यहाँ पर आ कर टिक जाती है कि मजबूरी में विकल्पहीनता की हालत में अनिश्चित से बेहतर है जाना पहचाना शैतान! (जारी)

(रमाशंकर सिंह पुराने समाजवादी नेता हैं। वे ग्‍वालियर के निकट आईटीएम विश्‍वविद्यालय के संस्‍थापक कुलाधिपति भी हैं)

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टीम मध्‍यमत

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