अरुण पटेल
राज्यसभा चुनाव को लेकर फूलसिंह बरैया के नाम पर जहां कांग्रेसजनों का एक वर्ग पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह की घेराबंदी करने की कोशिश कर रहा है वहीं दूसरी ओर भाजपा ने भी दलित वोटों को लामबंद करने के लिए इसे हवा देने की रणनीति बनाई है। इससे पहले कि ऐसे लोगों के मंसूबों का गुब्बारा पूरी तरह फूल पाता प्रदेश कांग्रेस के संगठन प्रभारी उपाध्यक्ष चन्द्रप्रभाष शेखर ने उसमें पिन चुभोकर हवा निकाल दी और कहा कि दिग्विजय सिंह ही प्रथम वरीयता के उम्मीदवार हैं।
2018 के विधानसभा चुनाव में बसपा के मैदान में होते हुए भी दलित मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की ओर कुछ अधिक था और भाजपा उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिशों के तहत, कांग्रेस के दलित प्रेम को अपने ढंग से आइना दिखाने की कोशिश कर रही है। होने वाले उपचुनावों में 16 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें सीधे-सीधे ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा कमलनाथ की प्रतिष्ठा और साख दांव पर लगी है अब चुनाव नतीजों के बाद ही यह पता चलेगा कि मतदाता किसे प्राणवायु देते हैं और किसके अरमानों पर पानी फेर देते हैं।
कांग्रेस के द्वारा ज्योतिरादित्य सिंधिया पर सोशल मीडिया सहित अन्य माध्यमों से जहां तीखा हमला किया जा रहा है वहीं पार्टी छोड़कर गये विधायकों के निशाने पर कमलनाथ कम दिग्विजय सिंह अधिक हैं। हालांकि इस रणनीति से चुनावों में कोई फायदा दलबदल करने वाले विधायकों को नहीं मिलेगा क्योंकि चुनाव तो कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरों के इर्द-गिर्द ही होना हैं।
दिग्विजय सिंह की घेराबंदी करने की राजनीति कांग्रेस के जिन लोगों को रास आती है वे ही अंदरखाने इसको हवा दे रहे हैं। कांग्रेस अभी तक सामान्तय: ट्वीटर और सोशल मीडिया पर ही सक्रिय है जबकि भाजपा ने मैदानी स्तर पर अपनी तगड़ी जमावट करते हुए असंतुष्टों को सहेजने का पूरा-पूरा प्रयास किया है। उसने उपदेशों की घुट्टी और अनुशासन का डर तक दिखाया है, लेकिन इसे मन से कितनों ने स्वीकार किया है यह बाद में ही पता चल सकेगा।
असंतुष्टों को मनाना कितना कठिन हो रहा है इसका अंदाजा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कथित आडियो और वीडियो के वायरल होने के बाद सामने आया है जिसमें उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नाम का सहारा लेना पड़ा था। बताते चलें कि यह ऑडियो-वीडियो इंदौर में सांवेर विधानसभा क्षेत्र के भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए शिवराज का बताया गया है।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, अक्सर यह बात देखने में आई है कि चुनावी समर में पहुंचने से पूर्व उसके नेता पहले आपस में ही हिसाब-किताब पूरा कर लेते हैं और फार्मूले कई बार किसे काटना है और किसे फायदा पहुंचाना है, इसे ध्यान में रखकर ही बनाते हैं। जहां तक विधानसभा उपचुनावों का सवाल है, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ इस बात के लिए आश्वस्त हैं कि उनकी सरकार को खरीद-फरोख्त कर गिराया गया है और जनादेश का अपमान किया गया, इस कारण स्वाभिमानी मतदाता कांग्रेस को ही जितायेंगे ताकि जनादेश का फिर से सम्मान हो सके।
लेकिन यह इतना आसान नहीं है क्योंकि एक तो सिंधिया कांग्रेस में नहीं हैं और दूसरे इस अंचल के बड़े नेता नरेंद्र सिंह तोमर व राज्य के गृह एवं स्वास्थ्य मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा भी काफी सक्रिय रहने वाले हैं। कांग्रेस के पास अब यदि इस अंचल में कोई बड़ा नाम बचा है तो वह दिग्विजय ही हैं। उम्मीदवारों के चयन के नाम पर कांग्रेस जो कुछ कर रही है और जो खबरें बाहर आ रही हैं उसमें यह देखने को मिला है कि आपस में कुछ मुद्दों पर टकराहट हुई है, खासकर पुरातत्व संग्रहालय से झाड़-पोंछ कर उम्मीदवार बनाने की कोशिशों को लेकर।
कांग्रेस को इन चुनावों में यदि फिर से सरकार बनाने के प्रति गंभीर होना है तो मैदान में भी अपनी गतिविधियां बढ़ाना होंगी। हालांकि जानकार लोगों का यह दावा है कि कांग्रेस ने अपनी पक्की संगठनात्मक जमावट कर ली है। भाजपा के सामने एक बड़ी समस्या यह है कि दलितों के भारत बंद के आह्वान के दौरान जो हिंसक घटनाएं हुईं और उसके बाद सरकार ने जिस ढंग से गिरफ्तारियां कीं, उससे दलित रुष्ट थे और उन्होंने थोकबंद होकर कांग्रेस को वोट दिए।
इस रुख के कारण ही बसपा को भी इस अंचल में अपेक्षाकृत मतदाताओं ने काफी कम वोट दिए और उनका झुकाव कांग्रेस की ओर रहा। इसीलिये इस अंचल में कांग्रेस को अच्छी-खासी सफलता भी मिली। चूंकि स्टार प्रचारक ज्योतिरादित्य सिंधिया थे, इसलिए इस सफलता का श्रेय उन्हें मिला और उनके साथ विधायक भी कांग्रेस छोड़कर दलबदल कर चले गये। भाजपा अच्छी तरह समझती है कि दलित मतदाताओं को अपने पाले में फिर से लाना है तो कुछ अधिक प्रयास करना होंगे।
दिग्विजय की घेराबंदी नहीं बात नहीं
कांग्रेस के कुछ नेता हमेशा दबे-छिपे स्वरों में दिग्विजय सिंह को निशाने पर लेते रहे हैं क्योंकि राज्यसभा चुनाव में प्रथम वरीयता का उम्मीदवार उन्हें बनाया गया है तथा दूसरी वरीयता का उम्मीदवार फूलसिंह बरैया हैं। पहले यह बात दबे स्वरों में कांग्रेसजनों ने की कि उपचुनाव को देखते हुए दलित मतदाताओं में यदि दिग्विजय के स्थान पर बरैया को प्राथमिकता दी जाती तो यह चुनावी गणित कांग्रेस के माफिक रहेगा।
अब चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी बार-बार यह कह रहे हैं कि दलितों को साधने के लिए दिग्विजय खुद त्याग करें क्योंकि उन्हें राजनीति में काफी कुछ मिल चुका है और बरैया को प्रथम वरीयता का उम्मीदवार बनाया जाए। राकेश जिस ढंग से बोल रहे हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं उन्हें कांग्रेस के भीतर से ही शह मिल रही है और वे अपने आपको मेहगांव से कांग्रेस का उम्मीदवार मान बैठे हैं। जबकि अभी तक उन्हें विधिवत रुप से कांग्रेस की सदस्यता नहीं मिली है और उनका खुद का मामला अधर में लटका हुआ है।
उम्मीदवारी से पहले चौधरी राकेश के प्रवेश का मामला हल होगा उसके बाद आगे की बात होगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया की एक चुनावी सभा में उन्होंने कांग्रेस प्रवेश की घोषणा की थी। कांग्रेस हाईकमान ने अभी तक उन्हें सदस्य बनाने की पुष्टि नहीं की है। जहां तक भाजपा का सवाल है उसके बड़े नेता यह महसूस करते हैं कि उन्हें असली खतरा दिग्विजय सिंह के सक्रिय होने से ही है, क्योंकि पूरे प्रदेश में कांग्रेसजनों के बहुत बड़े वर्ग को एकजुट करने व सक्रिय करने में उनकी अहम् भूमिका रही है और आज भी वे कांग्रेस के अंदर कार्यकर्ताओं के बीच एक बड़े स्थापित नेता हैं जिनकी बात और प्रयासों को लोग वजन देते हैं। इसीलिये भाजपा भी दिग्विजय पर निशाना साधने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती।
सांकेतिक प्रतिनिधित्व का कोई असर नहीं
जहां तक भाजपा का सवाल है वह कहीं से घाटे में नहीं रही। एक तो विद्रोही विधायकों को पार्टी में लाकर वह सत्ता में आ गयी और दूसरा राज्यसभा की एक और सीट उसे बोनस में मिलने की संभावना पैदा हो गयी है। चूंकि पिछले विधानसभा चुनाव में ग्वालियर-चम्बल संभाग में एक प्रकार से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था इसलिए उसे अब फिर नये सिरे से वहां जमावट करने का अवसर मिल गया है और उसने बरैया का नाम उछाल कर दलितों में अपना आधार बढ़ाने की तैयारी शुरु कर दी है। कांग्रेस की घेराबंदी की जा रही है और दिग्विजय सिंह को भाजपा के कुछ नेताओं द्वारा यह नसीहत दी जा रही है कि वे दलित के लिए अपनी सीट छोड़ दें।
हालांकि जहां तक बरैया का सवाल है वे ही कुछ माह पूर्व, जब यह मामला उठा था, यह कह चुके थे कि राष्ट्रीय राजनीति में दिग्विजय सिंह की उपयोगिता अधिक है और वे राज्य की राजनीति में रहना पसंद करेंगे। लेकिन दलित वोटों में पकड़ बनाने की रणनीति के तहत इसे हवा दी जा रही है। कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों से भी यह खबरें यदाकदा छनकर बाहर आ रही हैं कि कांग्रेस नेतृत्व में इस मुद्दे पर मंथन चल रहा है।
इसका कारण यह है कि कांग्रेस में कुछ नेता यह मानते हैं कि इससे उपचुनावों में पार्टी को फायदा मिलेगा। वस्तुस्थिति यह है कि इस प्रकार की सांकेतिक या टोने टोटके की राजनीति का अब किसी भी जाति के मतदाताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता। दूसरे दलित वर्ग में मैसेज पहले से ही है कि दिग्विजय सिंह ने अपनी सत्ता दलित एजेंडे के कारण ही खोई थी।
(लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक हैं।)
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