रमेश रंजन त्रिपाठी
बिग बी और आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ को डिजिटल प्लेटफॉर्म ओटीटी (ओवर द टॉप) पर रिलीज होने के लिए मजबूर करने का श्रेय कोविड-19 को जाता है। ‘विकी डोनर’, ‘मद्रास कैफ़े’, ‘पीकू’ जैसी लीक से हटकर फिल्मों का निर्देशन करनेवाले शूजित सरकार को शायद एक प्रसिद्ध कविता की यह लाइन बहुत पसंद है कि ‘लीक छोड़ तीनों चले शायर सिंह सपूत’, इसीलिए शूजित सरकार ने आज के बड़े सितारे अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की फिल्म को लीक से हटकर अमेजन प्राइम वीडियो यानी ओटीटी पर रिलीज कर दिया है।
लखनऊ की लोककथाओं में ‘गुलाबो’ और ‘सिताबो’ ननद भौजाई हैं जो झगड़ती रहती हैं। फिल्म में इन नामों वाली कठपुतलियों को प्रमुख पात्रों के आपस में लड़ते रहने वाले के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है। चूंकि ‘गुलाबो’ और ‘सिताबो’ महिला पात्र हैं इसलिए फिल्म में स्त्री चरित्र बोल्ड और लाउड रखे गए हैं। फिल्म की लेखिका जुही चतुर्वेदी पहले भी ‘विकी डोनर’, ‘पीकू’ और ‘अक्टूबर’ जैसी लीक से हटकर कहानियां लिख चुकी हैं।
लॉकडाउन में ढाई महीने से घर में बंद लोगों के लिए अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की ओटीटी पर रिलीज हुई ‘गुलाबो सिताबो’ किसी खुशखबरी से कम नहीं। मेरा मानना है कि काफी लोगों ने इस फिल्म को बड़ी उम्मीदों के साथ देखा होगा। जब आप अपनी उम्मीदों का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं तभी तकलीफें शुरू होती हैं। एक अच्छी शुरुआत के बाद फिल्म धीमी पड़ जाती है।
दरअसल स्वस्थ मनोरंजन के साथ कहानी में कसावट और उत्सुकता की बाट जोहते दर्शकों को बीच बीच में निराशा हाथ लगती रहती है। यह भी सही है कि ‘क्लास’ में सादगी और संदेश की जुगलबंदी को आत्मसात करने के लिए धैर्य तत्व की बहुत आवश्यकता होती है। थैंक गॉड, रोचकता ने धैर्य बनाए रखने में काफी मदद की।
एक हैं मिर्जा चुन्नन नवाब। जैसा कि मिर्जा शब्द का अर्थ है राजकुमार और नवाब का मतलब सबको पता है, सो चुन्नन (सलवट जैसे दबे कुचले) ने फत्तो के माध्यम से ‘फातिमा महल’ पर कब्जा करके मिर्जा और नवाब दोनों बनने के सपने देखे। फत्तो यानी फातिमा बेगम, जो अपने पति मिर्जा से उम्र में सत्रह साल बड़ी हैं। फत्तो ने हवेली न छोड़ने की खातिर अपने लंदन जा रहे प्रेमी अब्दुल रहमान को छोड़कर मिर्जा से शादी की। मिर्जा भी फत्तो के मरने की राह देख रहे हैं।
आगे चलकर कुछ और लोग भी हवेली को हड़पने की योजना बनाते हैं। सौ साल पुरानी हवेली ‘फातिमा महल’ में बहुत कम किराया देनेवाले चार किराएदार रहते हैं। सबसे कम तीस रुपया किराया बांके रस्तोगी देता है। मिर्जा बांके की चीजें चुराकर बेचते रहते हैं, शायद अपने किराए की क्षतिपूर्ति करने के लिए। दोनों एक-दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते। गरीब, कम पढ़े लिखे मिर्जा और बांके की जुगलबंदी देखते बनती है।
फिल्म की कमी है धीमापन। किसी बड़े मैसेज की स्पष्ट डिलीवरी की कमी। लेकिन फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है। लखनऊ को इस अंदाज में देखना सुखद है। ड्रेस डिजाइनर का काम काबिले तारीफ है। और, सभी कलाकारों की अदाकारी का कहना ही क्या? अमिताभ बच्चन लाजवाब हैं तो आयुष्मान खुराना कहीं भी उन्नीस नहीं हैं। फत्तो बनीं फारुख जफर ने बढ़िया काम किया है। विजय राज, ब्रजेंद्र काला को बिग बी से मुकाबला करने के लिए खूब समय मिला है और उन्होंने उस सुनहरे मौके को गंवाया नहीं है।
एक बात और। यदि फिल्म में अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना न होते तो? कुछ लोग मान सकते हैं कि फिल्म में कोई चार्म न होता। लेकिन मैं अपने भतीजे अविनाश से सहमत हूं कि ऐसा होने पर मिर्जा का कांइयापन और निखरकर उभरता क्योंकि तब मिर्जा के अवगुणों को बिग बी के कारण मिलनेवाली दर्शकों की सहानुभूति और प्यार नहीं मिलता।
मेरा मानना है कि फिल्म में ‘गुलाबो सिताबो’ की सभी संभावनाओं का भरपूर दोहन नहीं हुआ है, फिर भी आप सधे हुए निर्देशन, लखनऊ की लोकेशन और कमाल की एक्टिंग के लिए इसे देख सकते हैं। ‘गुलाबो सिताबो’ के बारे में फिल्म में इस्तेमाल हुआ संवाद पर्याप्त लगता है- जित्ता दे रहे हैं उत्ता ही ले लो!
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)
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टीम मध्यमत