मैं सर्वत्र, सर्वव्यापी हूं, मैं अनामिका हूं…

रमेश रंजन त्रिपाठी

‘दरोगा जी, आप मुझे ढूंढ रहे हैं न?’ एक मधुर स्वर उभरा।

‘कौन हो तुम?’ थानेदार ने अपने आस-पास देखा लेकिन कुछ दिखाई नहीं दिया-‘कहां छिपी हो?’

‘मैं सबकी आंखों के सामने रहती हूं।’ वही आवाज सुनाई पड़ रही थी- ‘सबकी चहेती हूं। सबको अच्छी लगती हूं। कोई मुझे कानून के हवाले नहीं करना चाहता। सबको मेरा साथ चाहिए।’

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ दरोगा को गुस्सा आने लगा था।

‘मेरा कोई नाम नहीं।’ हंसने की आवाज आई- ‘इसीलिए मैं अनामिका हुई। लेकिन सरकारी रेकॉर्ड में मेरे अनेक नाम दर्ज हैं। आप करेंसी उछालिए जो उसे गप करना चाहेगा वही मैं हूं। मैं भ्रष्ट हूं इसलिए अच्छे-बुरे, नीति-अनीति, पाप-पुण्य से ऊपर उठ चुकी हूं। मेरी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती। मेरी खुराक पैसा है। मेरा ईमान पैसा है।’

‘तो यूं कहो न कि तुम भ्रष्टाचार हो।’ थानेदार साहब का गुस्सा और बढ़ गया- ‘बातें बनाने से कुछ नहीं होगा। तुम पकड़ी जाओगी।’

‘मेरे नाम पर कई को पकड़ने के बाद भी ऐसे दावे?’ हंसी उभरी- ‘आपको यकीन है कि मैं सचमुच पकड़ी जाऊंगी और मुझे हमेशा के लिए जेल में बंद कर दिया जाएगा?’

‘जरूर!’ थानेदार साहब ने इसे चुनौती की तरह लिया- ‘कोई अपराधी हमसे बच नहीं सकता।’

‘मेरा गुनाह क्या है?’ इस बार स्वर में गंभीरता थी।

‘तुमने अनैतिक तरीके अपनाकर योग्यता को आगे बढ़ने से रोका है।’ दरोगा जी ने अपना डंडा हाथ में ले लिया- ‘तुमने घोटाला किया है। तुम चार सौ बीस हो। झूठी, मक्कार और धोखेबाज हो।’

‘मैंने जो कुछ किया अपने पापी पेट की खातिर किया।’ आवाज में संजीदगी कायम थी- ‘जिंदा रहने के लिए जो भी किया जाए सब उचित है।’

‘सभी अपराधी ऐसे कुतर्क करते हैं।’ थानेदार साहब ने कड़की दिखाई- ‘भ्रष्ट होने के अलावा तुम्हारी काबिलियत ही क्या है?’

‘इस एक गुण के बाद किसी और विशेषता की जरूरत होती है क्या?’ आवाज में फिर से हंसी उभरी- ‘ऐसा कौन सा काम है जो मैं नहीं कर सकती? मेरे लिए असंभव क्या है?’

‘मुझसे बचकर दिखाओ तो जानूं!’ दरोगा जी ने मूंछों पर ताव दिया।

‘पहले मुझ तक पहुंचें तो सही!’ आवाज में ललकार थी- ‘आप तो परछाइयों को पकड़कर खुश हो जाते हैं। मेरी माया से पार पाना आसान काम नहीं।’ फिर आवाज की फ्रीक्वेंसी बदल गई- ‘आप मेरे नाम पर जिसे पकड़ेंगे वह मैं नहीं होऊंगी। मैं बिना नाम की यानी अनामिका हूं इसलिए किसी का भी नाम आप मुझे दे सकते हैं।’

थानेदार साहब को शक हुआ कि उनके लॉकअप में बंद कोई अपराधी महिला तो उनके साथ मजाक नहीं कर रही है, सो वे उठे और दबे पांव लॉकअप की ओर चल दिए। वहां सभी गुमसुम बैठे थे। वे लौट आए कि फिर से आवाज गूंजी- ‘दरोगा जी, मैं लॉकअप में नहीं आपके खयालों में हूं। आपके साथ हूं, आसपास हूं। आपसे ऊंचे स्तर पर भी हूं और नीचे भी। आपके दांए, बांए, आगे, पीछे कहां नहीं हूं? मैं सर्वत्र हूं। सर्वव्यापी हूं। दुनिया भर में हूं। मैं आपकी पहुंच में भी हूं और पहुंच से परे भी। मुझे कोई मार नहीं सकता। मैंने जब भगवान से अमरता का वरदान मांगा था तो उन्होंने एक शर्त के साथ मुझे तथास्तु बोला था।’

‘वह क्या?’ दरोगा जी चकित लग रहे थे।

‘भगवान ने कहा था कि जब तक जनता की समझदारी जाग नहीं जाती तब तक मैं अपराजेय रहूंगी।’ आवाज बोली- ‘मैं अपनी कमाई से काफी रकम खर्च करके अफीम खरीदती हूं और अपनी दुश्मन समझदारी को खिलाकर सुला देती हूं। मैं अपनी अमरता को लेकर निश्चिंत हूं।’

‘तुमने अपना रहस्य बताकर गलती कर दी है।’ थानेदार बोले- ‘अब आएगा ऊंट पहाड़ के नीचे।’ वह जाने के लिए उठे कि चाय आ गई। दरोगा जी अनजाने ही चाय में घोली गई अफीम की चुस्कियां लेने लगे। आवाज दूर कहीं खिलखिला रही थी।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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टीम मध्‍यमत

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