के.एन. गोविन्दाचार्य
1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ। भारी जनहानि हुई थी। मारक अस्त्रों में एटम बम का इस्तेमाल हुआ। यूरोप को ज्यादा नुकसान हुआ। अमेरिका अपेक्षाकृत रूप से बचा रहा। उसने यूरोपीय और कुछ अन्य देशों को फिर से खड़ा करने में सहयोग करने का निर्णय किया। अमेरिका और रूस के नेतृत्व में कई देशों की नई खेमे बंदी शुरू हो गई।
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। अमेरिकी और यूरोपीय उसकी कार्य प्रक्रिया तय होने में हावी रहे। केन्द्रीय कार्यालय अमेरिका में रखा गया। कुछ अन्य कार्यालय यूरोपीय देशों में। यूरोप में स्विट्जरलैंड को दोनों गठबंधन सेनाओं ने बख्श दिया था। नये शक्ति समीकरण बनने थे। नाटो आदि उसी क्रम में अस्तित्व में आये।
अब रूस भी उभर चला था। इंग्लैंड की पहल पर उन्होंने पहले भारत छोड़ने का तय किया। पहले पाकिस्तान के रूप में भारत विभाजन कराया। इस बीच 46-50 की अवधि में भारतीय राज्य का संविधान बना। गांधीजी की ह्त्या हो गई। सुभाष बाबू का कुछ पता नहीं चला। हवाई दुर्घटना में मौत की अफवाहें फैलाई गईं। अब नेहरु जी के निर्णायक रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सवा साल से अधिक अवधि का प्रतिबंध, साजिशवश झेलना पड़ा। निष्कलंक रूप से संघ इस ग्रहण से 12 जुलाई 1949 को मुक्त हुआ।
सन् 1952 के चुनाव में नेहरूजी भारी बहुमत से लोकसभा चुनाव जीते। सभ्यवादी विपक्ष के नाते शक्तिशाली रूप में उभरे। समाजवादियों ने भी आधी जीत हासिल की। हिन्दुत्व निष्ठ शक्तियों ने कुल मिलाकर 12 सीटें लोकसभा चुनाव में जीत लीं पर वैसे वह हाशिये पर ही रहे। कांग्रेस से कई हिन्दुत्व निष्ठ लोग चुनाव जीते थे।
संविधान निर्माण में दूसरी और तीसरी धारा के लोग नेहरूजी के नेतृत्व में हावी रहे। इसलिये भारतीय अस्मिता, पहचान के मुद्दे उसमें या तो शामिल नहीं किये जा सके या उन्हें टोकन रूप में शामिल किया गया। सभ्यतामूलक सातत्य और सुगंध से संविधान की विषय वस्तु लगभग वंचित ही रही। जैसे परिवार-व्यवस्था का संवैधानिक महत्व, गोरक्षा, ग्राम-विकास, भारतीय भाषाओं की सहभागिता, प्रकृति का दिव्यत्व, संस्कार प्रदायिनी शिक्षा व्यवस्था आदि।
नेहरूजी पर रूस की भव्य योजनाओं का भारी प्रभाव था। देश की अर्थव्यवस्था आदि को गठित करने का मन बना। बड़े कारखाने, बड़े बाँध, बड़े आईआईटी आदि के लिये उन्हें श्रेय भी दिया जा सकता है, जिम्मेवार भी ठहराया जा सकता है। उन्हें नया तीर्थ कहकर महिमा मंडित किया गया।
कुल मिलाकर गाँव, खेती, कारीगरी, श्रम की प्रतिष्ठा, जमीन, जल स्रोत, जंगल, जैव-संपदा आदि से ध्यान हटा और कुल मिलाकर गाड़ी गलत पटरी पर बढ़ गई। आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास की दुःस्थिति बनी। सामाजिक ताने-बाने पर वोट राजनीति हावी हुई। जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, संप्रदायवाद को तरजीह मिली, एकात्मता समता की उपेक्षा हुई। समाज सुधार की रफ़्तार धीमी पड़ी। सरकारों की जकड़न बढ़ी। समाज को मजबूत करने के प्रयास नहीं हुए।
1950 से 1980 के दौरान सरकारवाद का दौर चला। इसमें भारतीय आत्मविश्वास को चोट पहुंची। परावलंबन का मनोविज्ञान बढ़ा। पूंजी के लिये भिक्षाटन को आवश्यक बताया गया। अपवाद है परम पू. प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का कालखण्ड।
सन् 80 से 2005 के बीच विदेशी धनबल का दौर चला। छोटे उद्योग, गृह उद्योग मार खा गये। असंगठित क्षेत्र की ओर भगदड़ शुरू हुई। स्लमीकरण जोर पकड़ने लगा। कृषि, कारीगरी, ग्राम-विकास सभी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने लगे। शिक्षा व्यवस्था निरर्थक लगने लगी।
1980 में तो धनबल का प्रवेश शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था में हुआ। उत्तरोत्तर हावी होते गये। आज शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आम आदमी की पहुँच से दूर है। न्याय व्यवस्था तो आज तक सुधार की प्रक्रिया में है।
प्रौद्योगिकी की अति की ओर देश 1980 के बाद से बढ़ने लगा। उत्तरोतर यांत्रिकीकरण बढा Economy, Ecology और Ethics के साथ संतुलन साधने की बात तो रह ही गई। प्रौद्योगिकी पर अंकुश लगाने हेतु लोकपाल सरीखी व्यवस्था की जरुरत नहीं समझी गई। फलतः प्रदूषण नई बीमारियाँ, झुग्गी-झोपड़ियाँ, बेतरतीब शहरीकरण आदि समस्याएँ सामने आईं।
कृषि, गोपालन पीछे छूटा। सरकारी हस्तक्षेप, टेक्नोलॉजी हावी होती गई। खेतिया माल, करखनिया माल के दाम की विसंगति बढ़ती गई। विषमता बढ़ी। लाइसेंस परमिट कोटा राज का बुरा प्रभाव देश के लोकतंत्र और अर्थतंत्र पर भी पड़ा।
उधर अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, जापान को बढ़त मिली। भारत को युद्धों में उलझना पड़ा। उससे देश की चेतना तो बलवती होती गई। राजनीति अपातकाल की आंच में झुलस गई। समाज बढ़ा, सरकारों की स्तरण घटी।
1880 – 2005, भारत में गाड़ी सरकारवाद की पटरी से बदल कर बाजारवाद की तरफ लुढ़कने लगी। रूस और चीन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। धन बल और बाजार अब सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक सभी पहलुओं पर हावी होने लगा।
वैश्विक स्तर पर रूस का राजनैतिक प्रभाव घटा। अमेरिका का प्रभाव उतना ही बढ़ा। चीन की अधिनायकवादी सत्ता बाजारवाद के खेल में ढलने लगी। जापान का प्रभाव घटा। भारत पर भी देशी-विदेशी आर्थिक ताकतों की भूमिका बढ़ी। बड़े कॉर्पोरेट और प्रभावी हुए। विदेशी ताकतों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की उपयोगिता बहुत कम है, ऐसा समझ लिया। समरथ को नहिं दोष गुसाईं, समझ लिया।
आर्थिक क्षेत्र में नव उपनिवेशवाद की लहर इसी कालखंड में चली। शोषण की बाजारवादी विधा अमीर देशों यूरोप, अमेरिका के काम आई। एशियन टाइगर्स की बड़ी तारीफ़ हुई। अपने स्वार्थों को बढ़ाने के लिये वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ. GATT का उपयोग हो रहा था। आगे शेष दुनिया को और जकड़ लेने के इरादे से शोषण के परिणामस्वरूप आर्थिक दृष्टि से अमीर देशों ने 1986 से उरुग्वे चक्र की वार्ता शुरू कराई।
जकड़न को मूर्त रूप देने के लिये विश्व व्यापार संगठन बना। यह बना अमेरिका यूरोप की पहल पर। संचालन की नियमावली भी उसी तर्ज पर बनी। 1995 से शुरुआत होकर औपचारिक रूप से पेटेंट कानून सीड बैंक, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स, सोशल क्लासेज, जियाग्राफिकल इंडीकेटर्स, सब्सिडी विवरण, टैरिफ विवाद आदि उपकरण गरीब देशों के खिलाफ काम में लाये गये। भारत सरकार को जिस मात्र में असहकार और विरोध करना चाहिये था नहीं किया गया। अपनी आर्थिक संप्रभुता को विदेशी पूंजी के हवाले करने की कार्रवाई का नाम था आर्थिक सुधार। जिसमें भारत गाय की अगाड़ी रहे, यूरोप अमेरिका गाय की पिछाड़ी। इस प्रकार की व्यवस्थाएँ बनीं।
इस सारे कालखंड में नियति से निर्देशित भारतीय चेतना भी सक्रिय हो रही थी। उसकी ही अभिव्यक्ति थी रामजन्मभूमि आंदोलन और स्वदेशी आंदोलन। इसमें सर्वाधिक योगदान बन सका हिन्दुत्व निष्ठ ताकतों का। ये दोनों आंदोलन राष्ट्रीय अस्मिता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति थे।
1995-2005 के कालखंड में इन दोनों आंदोलनों को अतिवादी या पुरातन पंथी या झोला छाप कहकर अपमानित किया गया पर ये आंदोलन उभरती राष्ट्र चेतना की नैसर्गिक या नियति निर्देशित थे।