अर्थ-व्यवस्था के शेखचिल्ली

राकेश दीवान

पिछले हफ्ते ‘प्राइम टाइम’ वाले रवीशकुमार को इंटरव्यू देते हुए नोबल-पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी ने एक बार फिर अपनी पुरानी कहानी दोहरा दी है। अर्थ-व्यवस्था में ‘कोविड-19’ की ‘कृपा’ से छाई मुर्दनी को भगाने के लिए उन्होंने ‘इन्फ्लेशन यानि मंहगाई जैसी व्याधियों को ठेंगे पर मारते हुए नोट छापकर बांटने की तजबीज पेश की है। उनके मुताबिक इस कारनामे से लोगों के पास रुपया जाएगा, रुपया लेकर वे खरीदने जाएंगे, नतीजे में बाजार में मांग बढेगी, मांग बढ़ने से कारखानों में काम चालू होगा, कारखानों में काम चालू होने से रोजगार बढ़ेंगे, रोजगार बढ़ने से हाथ में वेतन यानि रुपया आएगा और इस रुपए को लेकर लोग फिर बाजार का रुख कर लेंगे।

यानि बाजार जाने-आने की कसरत हमारी और इसी तरह दुनिया भर की कोरोना-प्रभावित अर्थ-व्यवस्थाओं को वापस पटरी पर पहुंचा देगी। गौर करें, इस शेखचिल्ली जैसे बाजार-पुराण में पेट, पर्यावरण और जरूरत या तो सिरे से गायब हैं या फिर बाजार-तंत्र के किसी कोने-कुचारे में पड़े अपनी बोली लगने का इंतजार कर रहे हैं।

अभिजीत बनर्जी या उन जैसे दर्जनों आधुनिक अर्थशास्त्रियों की अर्थ-व्यवस्था की कुंजी शेखचिल्ली की अपनी देसी कहानी से ही प्रेरित-प्रभावित दिखाई देती है, इसमें नया क्या है? पेट भरने, पर्यावरण बचाए रखने और जरूरत के लिए बाजार जाने की पुरानी, पारंपरिक पद्धतियां इस नए ताने-बाने में पानी भर रही हैं। पिछले अनेक और खासकर नब्बे के दशक की शुरुआत के भूमंडलीकरण के सालों से अर्थ-व्यवस्था को ‘चलायमान’ रखने के लिए यही तजबीज तो बदल-बदलकर पेश की जाती रही है।

‘कोविड-19’ सरीखे सर्दी-जुकाम में हलाकान हुई यही वैश्विक अर्थ-व्यवस्था फिर से उसी राह पर चलकर आखिर क्या हासिल कर लेगी? क्या यह समय कोविड-पूर्व की अर्थ-व्यवस्थाओं की गहराई से पड़ताल करने का नहीं है? आखिर उस आर्थिक ताने-बाने से दुनिया को हासिल क्या हुआ था?

‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ फिल्म में काजोल-शाहरुख के फिल्मी‍ रोमांस के लिए चुने गए स्विट्जरलैंड के शहर दावोस में अभी जनवरी 2020 में दुनिया भर के अमीरों का पांच दिन का 50 वां सालाना जमावड़ा हुआ था। ‘वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम’ नामक इस जमावड़े के ठीक पहले वैश्विक ‘गैर-सरकारी संगठन’ (एनजीओ) ‘ऑक्सफोर्ड कमिटी फॉर फेमिन रिलीफ’ (ऑक्सफैम) ने इसी शहर में दुनियाभर के अध्ययन की अपनी रिपोर्ट ‘टाइम टु केयर’ को जारी करते हुए बताया था कि भारत में महज 63 अरबपतियों के पास सालाना केन्द्रीय बजट (वर्ष 2018-19 में 24 लाख 42 हजार दो सौ करोड़ रुपए) से ज्यादा धन है और ‘ऊपर’ के एक फीसद लोगों के पास ‘नीचे’ की 70 फीसद आबादी (95 करोड़ 30 लाख) की कुल सम्पत्ति का चार गुना धन है।

इसी रिपोर्ट में गैर-बराबरी का खुलासा करने की गरज से बताया गया था कि किसी घरेलू कामगार महिला को 106 रुपए/प्रति सेकेन्डस् कमाने वाले उसके मालिक की बराबरी करने में 22 हजार 277 साल लगेंगे। गैर-बराबरी की यह भयानक अश्लीलता दुनियाभर में मौजूद है। जहां विश्व के 2153 अरबपतियों के पास कुल आबादी के 60 प्रतिशत, यानि 4.6 अरब लोगों की सामूहिक सम्पत्ति से अधिक सम्पत्ति है।

इसी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 62 अमीरों, जिनमें नौ महिलाएं हैं, के पास 50 प्रतिशत गरीबों की सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति है। वर्ष 2010 में इतनी ही सम्पत्ति 388 अमीरों के पास थी, 2011 में 177 के पास, 2012 में 159 के पास, 2013 में 92 के पास और 2014 में 80 अमीरों के पास हो गई थी। अमेरिका के ‘हॉउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स’ की ‘वेज एण्ड मीन्स कमिटी’ के सामने गवाही देते हुए 14 अप्रैल को ‘ईकॉनॉमिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट’ के अर्थशास्त्री एलिस गॉल्डमन ने बताया था कि अमेरिका की ‘ऊपरी’ 0.1 प्रतिशत आबादी की कमाई (343.2 फीसदी), ‘नीचे’ के 90 प्रतिशत की कमाई (22.2 फीसदी) से 15 गुना तेजी से बढ़ी है।

यानि समूचे संसार में फैली गैर-बराबरी की यह गहरी और खासी चौड़ी खाई बाजार-केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था अर्थात शेखचिल्ली की कहानी की ‘मेहरबानी’ से ही खोदी जाती रही है। डॉनाल्ड ट्रम्प, ऐंजेला मर्केल, इमरान खान जैसे अनेक राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में जारी अपनी रिपोर्ट में ‘ऑक्सफैम’ ने भी दावोस में कहा था कि गैर-बराबरी की यह खाई भारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संकट की कगार पर पहुंच गई है।

कोरोना-बाद की अर्थ-व्यवस्था की बात करते हुए क्या हमें इन तत्थ्यों पर गौर नहीं करना चाहिए? खासकर तब, जब नामधारी अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्टों के आधार पर कुछ लोग ‘कोविड-19’ को इस अश्ली‍ल गैर-बराबरी को बरकाने की जुगत बता रहे हैं।

कोरोना-बाद की अर्थ-व्यवस्था का ताना-बाना खड़ा करते हुए हमें सिर्फ बाजार, मांग और उत्पादन के अलावा कई अन्य बातों का ध्यान भी रखना चाहिए। मसलन-पर्यावरण, जिसने कोरोना-लॉकडाउन के कुल ढाई-तीन महीनों में कमाल के पुनर्जीवन का प्रदर्शन किया है। दुनियाभर से रिपोर्टें आ रही हैं कि जगह-जगह नदियां आपरूप साफ, निर्मल और पीने योग्य हो गई हैं और तरह-तरह के पशु-पक्षी अब बे-धडक बस्तियों में चहल-पहल कर रहे हैं।

क्या जीने लायक जीवन के लिए खड़े किए जाने वाले आर्थिक ढांचे में ये प्राकृतिक उपादान जरूरी नहीं माने जाने चाहिए? और यदि माने जाने चाहिए तो क्या ऐसा कोई आर्थिक ताना-बाना नहीं बनाया जा सकता जिसमें जिन्दा रहने के लिए जरूरी विकास के साथ-साथ पर्यावरण का भी कोई संतुलन हो?

कोरोना के दौरान भारत सरीखे देशों में सरकारी क्षेत्र की अहमियत फिर से स्थापित हुई है। यानि भूमंडलीकरण के बाद के सालों में सरकारों के सगे रहे निजी क्षेत्र ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया है। ऐसे अनेक सरकारी, गैर-सरकारी उदाहरण और रिपोर्टें सामने आ रही हैं जब ठेठ देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली और औद्योगिक राजधानी मुम्बई समेत कई शहरों में निजी अस्पतालों ने सामने खड़े बीमार को हकाल दिया था।

क्या अर्थ-व्यवस्था की पुनर्रचना करते हुए एक बार फिर हमें ‘कल्याणकारी राज्य’ और उसके मुसीबत में हाथ बंटाने-बढ़ाने वाले सरकारी क्षेत्र की अहमियत मंजूर नहीं करनी चाहिए? उन सरकारी डॉक्टरों, मेडिकल-स्टाफ, पुलिस और व्यवस्था संभालने वाले अनेकानेक कर्मचारियों का महत्व तो हर कोई ने देखा और उसका लाभ उठाया है, जो समय और शरीर की सीमाओं को अनदेखा करते हुए अपने-अपने मोर्चे पर डटे रहे।

एक और बेहद महत्वपूर्ण सवाल उन करोड़ों प्रवासी माने जाने वाले मजदूरों का भी है, जो अपने-अपने गांव-देहात लौटकर अब वापस उद्योगों की तरफ लौटने में संकोच कर रहे हैं। इनके लिए जिस उद्यम का सहारा है, वह कृषि-क्षेत्र है, लेकिन हमारे नोबल, गैर-नोबल अर्थशास्त्रियों के लिए यह क्षेत्र ‘बोझ’ से अधिक की हैसियत नहीं रखता। लॉकडाउन में घर लौटते प्रवासियों ने अर्थशास्त्रियों की बनाई यह पोल-पट्टी भी उजागर कर दी है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था ‘बोझ’ है और उसके इस ‘बोझ’ को घटाने के लिए इससे जुडे ‘अतिरिक्त’ श्रम और संसाधन उद्योगों की ओर खदेड़ दिए जाने चाहिए।

वित्तमंत्री चाहे डॉ. मनमोहन सिंह, पी.चिदम्बरम या प्रणव मुखर्जी रहे हों या फिर अरुण जेटली, पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण, सभी ने कृषि-क्षेत्र को सौतेला मानकर उसमें जरूरी निवेश से हमेशा कन्नी काटी है। अब खुद मजदूरों ने थोक में गांव लौटना चुनकर वित्तमंत्रियों और अर्थशास्त्रियों के इस सौतेले व्य्वहार की भद्द पीट दी है। जाहिर है, सर्वांगीण विकास को केवल आर्थिक विकास में तब्दील करने की चालाकी में लगे अर्थ-शास्त्रियों और सत्ताधारियों को इन बातों का महत्व समझ में नहीं आएगा।

अलबत्ता, कोरोना वायरस से उपजी ‘कोविड-19’ बीमारी के लॉकडाउन के बाद हमारे अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ हमें भी इस अर्थशास्त्र को जानना-समझना तो होगा, वरना जैसा कहा जाता है, ‘गाड़ी छूट जाएगी।’

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टीम मध्‍यमत

2 COMMENTS

  1. अमेरिका ने उसके बैंकिंग संकट के समय तीन बिलियन डालर के नोट छाप बैंकों और रियल स्टेट को बचा लिया था. यह घाटे की व्यवस्था इसलिए सफल रही थी क्योँकि पूरी दुनिया में डालर की भूख थी जो आज भी है. भारतीय रूपये के साथ ऐसा नहीं है. लैटिन अमेरिका के देश अपनी अर्थव्यवस्था को नोट छाप बर्बाद कर चुके हैं. वहां सामाजिक आराजकता चरम पर है……..

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