के.एन. गोविन्दाचार्य
1965 से 80 के कालखंड में सत्ताबल की परत चढ़ी। 1980 से 95 के बीच बाहुबल की चली। 1995 से 2010 में धन-बल का जलवा रहा। 2010 के बाद जन-बल और आत्म-बल का दौर चला। विचार के स्तर पर जिन तीन धाराओं का पहले उल्लेख हुआ उसका क्या बना इसका विचार करें।
पहली धारा थी जो यह मानते थे कि भारत सनातन राष्ट्र है। एक राष्ट्र है। प्राचीन राष्ट्र है। एक जन है। एक संस्कृति है। एक विश्वदृष्टि है। जीवन दृष्टि है। जीवनमूल्य भी है। इनके अनुकूल चलें तो अतीत गौरवमय था। 200 वर्ष पूर्व भी अध्यात्म की कौन कहे? आर्थिक दृष्टि से सबसे धनी देश भारत था। अपनी राह से हटे तो समस्याओं में घिर गये। पिछले 200 वर्षों में देश के मार्ग में परकीय विचार एवं व्यवस्थाओं (सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि मोर्चों पर) का मलबा पड़ गया है। उन्हें हटाते हुए, अपना मार्ग तलाशते हुए आगे बढना होगा तभी सही मायने में स्वतंत्रता के हकदार होंगे।
दूसरी धारा का मत था कि भारत 15 अगस्त 1947 को जन्मा एक नया देश है। दुनिया के प्रगत देशों से अनुकरण करते हुए हमें सीखकर राष्ट्र निर्माण करना है। इसके लिये अतीत के बोझ से मुक्त होना होगा। हमे पश्चिमाभिमुखी होना चाहिये।
तीसरी धारा का मत था भारत एक बनता हुआ राष्ट्र (Nation in the making) है। भारत में 17 राष्ट्रीयताएँ है। सभी को गूंथकर राष्ट्र बनाया जाना है। व्यावहारिक तौर पर दूसरी और तीसरी धारा में बहुतांश मेल था। उन्हीं के हाथ सत्ता 1950 में आई। पहली धारा के लोग आलोचना के पात्र और तिरस्कृत थे। पर वे ध्येयवादी थे। आदर्शवादी थे। संगठन कुशल थे और उदारमना भी थे।
भारत की राजनीति में समाजवाद का बोलबाला 1950-1980 तक रहा। 1980-2010 तक समाजवाद किनारे लगा। सेकुलरवाद राजनीति के कैनवास पर हावी रहा और तीसरी धारा की दृष्टि में सेकुलरवाद का अर्थ था अल्पसंख्यक तुष्टिकरण। ये आयातित विचार देश के सामान्य जन को आकर्षित नहीं रख सकता है। इनके बताये अर्थों से भिन्न थी सामान्य जन की समाजवाद और सेकुलरवाद की समझ।
2010 के बाद देश के विचार की मुख्य धारा बनने लगा ‘हिन्दुत्व’ । पिछले 10 वर्षों में हिन्दुत्व की अलग-अलग किस्म की छटाएँ पटल पर सक्रिय दिखती हैं। मुख्य धारा का विषय हिन्दुत्व है। जो सभ्यतामूलक भारतीय दृष्टि से एकात्म है। हिन्दुत्व से तात्पर्य है Hinduness (हिन्दूपन)। यह वाद नहीं जीवन दर्शन और जीवनशैली का नाम है।
इसकी 5 मुख्य बातें हैं–
- सभी उपासना पद्धतियों के प्रति आदर। हर रास्ते से भगवान एक ही मिलते है, ऐसी श्रद्धा।
- चराचर सृष्टि में एक ही सत् का धागा है, जिससे सब गुंथे हैं।
- मनुष्य प्रकृति का विजेता नहीं, प्रकृति का हिस्सा है इसलिये परिस्थितिकी से अनुकूल तकनीकी और अर्थ व्यवस्था हिन्दुत्व को अभीष्ट है।
- नारी मातृत्व के विशेष गुण के कारण विशेष सम्मान की पात्र है।
- खाओ, पीओ, मौज करो, मर जाओ पर जीवन का मकसद ख़त्म नहीं हो जाता है।
यही पूरे विश्व के कल्याण का विचार ‘हिन्दुत्व’ कहा जाता है। यही देश की तासीर है। इसका तेवर प्रभावी होना है, यही देश की जरूरत है।
अंग्रेजों को भगाने की तमाम कोशिशों के पहले भी भारत को भारत बनाना था न कि रूस, चीन, अमेरिका की कार्बन कॉपी। भारतीय सभ्यता का यही सन्देश सभ्यता मूलक दृष्टि से तुलसी में वर्णित है। राम राज्य के रूप में ‘राम नाम’ और राम राज्य की टेर के कारण महात्मा गाँधीजी द्वारा लिखित सभ्यतामूलक दस्तावेज ‘हिन्द स्वराज’, वही संदेश व्यक्त कर रहा है। सभी में जल, जंगल, जमीन, जानवर के साथ अनुकूल जीवन साधना ही अभीष्ट माना गया है।
1950 से 1990 तक दूसरी और तीसरी धारा देश में प्रभावी रही। तदनुसार सरकारवादी और बाजारवादी व्यवस्थाएँ समाज में प्रभावी रहीं। देश की अपनी अभीप्सा, आवाज मद्धिम पड़ी रही। पहली धारा के समूह परिश्रम, कुशलता से विपरीत वातावरण में टिके रहे। पहले उपहास, फिर विरोध और उसके बाद अब स्वीकृति की मुद्रा में आते दिख रहे हैं। दूसरी, तीसरी धारा के लोग अब हिन्दुत्व की नरम-गरम, कट्टर-उदार, सर्वस्पर्शी, सर्वग्राह्य आदि छटाओं के रूप में प्रस्तुत हो रहे हैं।
इन नई चुनौतियों के बीच हिन्दुत्व के अधिष्ठान पर राम राज्य अर्थात् हिन्द स्वराज अर्थात् मानव केन्द्रित विकास के स्थान पर प्रकृति केन्द्रित विकास की व्यवस्थाओं, नीतियों, क्रियाकलापों का निरूपण वक्त की जरुरत है।
इन सब के बीच तकनीकी में ग्राह्य, अग्राह्य का विवेक दृढ़ होना होगा। क्योंकि पिछले 75 वर्षों में तकनीकी की भूमिका समाज संचालन के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि सभी मंचों पर प्रभावी हुई है। इन्होंने नए क्षितिज का सृजन किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ, कामनवेल्थ आदि काल बाह्य हो रहे हैं। WTO उभरकर अब अस्ताचल की ओर है। युद्ध की शैली सामरिक एवं राजनैतिक न रहकर आर्थिक और विज्ञान एवं तकनीकी पर ज्यादा आश्रित होने लगी है।
पूरी दुनिया मे इस विज्ञान-प्रोद्योगिकी का सर्वकश स्वरुप दिखने लगा है। यह एक नई गंभीर चुनौती है। एक विख्यात इजराइली लेखक हरारे की पुस्तक Homosapians में इन पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और सवाल उपस्थित किया गया है कि रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बायोटेक, जेनेटिक इंजीनियरिंग का बढ़ाव इतना तेज और व्यापक है कि मनुष्य मात्र के खारिज, निरर्थक या गैर जरूरी होने की आशंकाएँ या यों कहें संभावनाएँ उभर रही हैं।
उसी प्रकार भारत के संदर्भ में भारत की तासीर और जरूरत से बेमेल व्यवस्थाएँ समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में हमने पाल ली हैं। यू-टर्न तो संभव नहीं है। लंबा arch लेना होगा। जो होगा उसके क्रियान्वयन के उपकरण कौन, कैसे होंगे?व्यवस्थाओं में क्या त्याज्य है? क्या सुधारनीय है? क्या नया सृजन होना है? आदि पहलुओं पर व्यापक गंभीर विचार-विमर्श की जरूरत है।
ध्यान रहे कि 1947 के बाद से आज तक भी एकाधिकारवादी वैश्विक ताकतों के लिये विश्व एक परिवार नहीं केवल एक बाजार है, भोज्य है। उसको ध्यान में रखकर ही ऐसी ताकतें अलग-अलग समय पर अलग-अलग पैंतरे गढ़ती हैं, सभी के लक्ष्य वर्चस्व स्थापन ही हैं।
1990 के बाद से आर्थिक तकनीकी स्तर पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। अमेरिका, रूस, यूरोप, जापान के साथ-साथ भारत, ब्राजील, चीन भी उभरे हैं। इनमें ध्यान रहे कि भारत ही विश्व को एक परिवार मानकर जीता है। यह भारत का अपना सभ्यतामूलक स्वभाव है। इस स्वभाव को कायम रखते हुए हमें रास्ता अपनाना है और रास्ता दिखाना भी है। वह स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, स्वत्वबोध, स्वाभिमान के रास्ते ही गुजरेगा।
नान्यः पन्थाः विद्यतेsयनाय।
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