मप्र उपचुनाव : बिसाहू की बादशाहत को डिप्टी कलेक्टर से शिकस्त की तैयारी!

अनूपपुर उपचुनाव 

डॉ. अजय खेमरिया

छत्‍तीसगढ़ से सटे मप्र के जिला मुख्यालय अनूपपुर में उपचुनाव को लेकर माहौल गरमाने लगा है। पुण्यसलिला माँ नर्मदा की गोद में बसे इस छोटे से जिले की पहचान पवित्र अमरकंटक से है, जो नर्मदा और सोन नदियों का उद्गम स्थल भी है। शहडोल संभाग को विभक्त कर बनाए गए तीन जिलों में शामिल अनूपपुर को बिसाहूलाल सिंह और एक दौर के दिग्गज आदिवासी नेता रहे दलबीर सिंह, उनकी पत्नी राजेश नंदनी के लिए भी जाना जाता रहा है।

बिसाहूलाल सिंह मप्र में आदिवासी मुख्यमंत्री की अवधारणा को सियासी विमर्श में स्थापित करने वाले प्रमुख नेता के रूप में भी जाने जाते है। 5 बार के विधायक और खनिज, ऊर्जा, पशुपालन, ट्राइबल, डेयरी जैसे महकमों के मंत्री रहे बिसाहुलाल सिंह घाघ नेता हैं। उन्हें जिस भी नेता ने आगे बढ़ाया उसकी कुर्सी हिलाने में वे सबसे आगे रहे।

1980 में पहली बार इस सीट से विधायक चुने गए सिंह ने तबके मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह के विरुद्ध मोर्चा खोलकर ट्राइबल सीएम का शिगूफा फेंका था। नाराज दाऊ साहब ने 1985 में उनकी टिकट काट दी। बाद में दलबीर सिंह की सिफारिश पर उन्हें दिग्विजयसिंह ने टिकट दी, लेकिन वे बीजेपी उम्मीदवार लक्ष्मी आर्मो से हार गए। 1993 में जीत कर मंत्री बने पर  जिस दलबीर सिंह ने मंत्री बनवाया उन्हीं के विरुद्ध अविभाजित शहडोल में नया गुट बना लिया।

1998 में दिग्विजयसिंह ने फिर मंत्री बनाया, लेकिन आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग खड़ी कर दिग्विजयसिंह के निशाने पर आ गए। इस बीच बीजेपी और संघ ने यहां गांव गांव नेटवर्क खड़ा कर रामलाल रौतेल, मीणा सिंह, सुदामा सिंह, जयसिंह मरावी, नरेंद्र मरावी जैसे अनेक आदिवासी नेताओं को गढ़ लिया। पार्टी के संगठन मंत्री रहे भगवतशरण माथुर को इस नए बीजेपी नेटवर्क को खड़ा करने का प्रमुख रूप से श्रेय जाता है।

2003 में रामलाल रौतेल ने दिग्गज बिसाहू को पटखनी दी। 2008 और 2018 में बिसाहू फिर जीतने में सफल रहे। कमलनाथ की सरकार में मंत्री पद पर उनका दावा स्वाभाविक था, लेकिन अर्जुन सिंह, दिग्विजयसिंह दौर में उनके विद्रोही तेवर इसमें आड़े आ गए। इस बीच जिले के दो अन्य विधायक सुनील सर्राफ (कोतमा), फुंदेलाल मार्को ने बिसाहू की पार्टी से बादशाहत को सुनियोजित तरीके से चैलेंज करना शुरू कर दिया।

इसी साल नर्मदा जयंती पर अमरकंटक में आयोजित समारोह में तो मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजयसिंह की मौजूदगी में बिसाहू का फुंदेलाल ने मंच से सार्वजनिक अपमान तक किया और दोनों नेता चुप रहे। समझा जाता है यह सब कुछ कमलनाथ दिग्विजय के इशारे पर हुआ। जाहिर है बिसाहू के लिए मंत्री पद तो दूर अब कांग्रेस में भी बुरे दिन आ गए थे।

चतुर राजनीतिक बिसाहू, कमलनाथ और दिग्विजयसिंह दोनों से इतने खफा थे कि बीजेपी के पहले ऑपरेशन लोटस में भी शामिल थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के एपिसोड के साथ ही बिसाहू के मंसूबे पूरे हो गए और वे अनूपपुर में बीजेपी से 40 साल पुरानी अदावत को छोड़कर कांग्रेस का नर्मदा में पिण्डदान का संकल्प लिए घूम रहे हैं। बीजेपी की दिक्कत यहाँ भी कैडर के 40 साल पुराने मनोविज्ञान को बदलने की है जो पार्टी के समानन्तर बिसाहू लाल के विरुद्ध भी रहा है।

हालांकि रामलाल रौतेल इस दलबदल का स्वागत कर रहे हैं लेकिन यह स्वागत इतना सरल और सहज नहीं है जैसा अनूपपुर बीजेपी में अभी दिखाई दे रहा है। हालांकि यह भी तथ्य है कि बिसाहू लाल ने इस सीट पर कांग्रेस के लिए कोई वैकल्पिक नेतृत्व खड़ा ही नहीं होने दिया है।

पार्टी के जिलाध्यक्ष को छोड़ लगभग सभी बड़े नेताओं को पार्टी से निकाल दिया गया है, एनएसयूआई, युवक कांग्रेस के अध्यक्ष भी इनमें शामिल हैं। इससे पहले प्रमिला सिंह, उमरिया जिला पंचायत अध्यक्ष, ज्ञानवती ब्लाक अध्यक्ष, पसान नपं अध्यक्ष भी पार्टी छोड़ चुके हैं। असल में अनूपपुर में कांग्रेस मतलब बिसाहू लाल ही था। मौजूदा जिलाध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल बिसाहू की अनुमति बगैर किसी राजनीतिक कार्यक्रम में नहीं जाते थे। लेकिन कमलनाथ ने उन्हें निकालने की जगह पार्टी में बनाये रखने की कूटनीति पर काम किया है ताकि बिसाहू की रणनीति को समझा जा सके।

कांग्रेस के पास वाकई यहां बिसाहू के बाद सक्षम प्रत्याशी का टोटा हो गया है। युवा कांग्रेस महामंत्री राजीव सिंह, जिला पंचायत सदस्य विश्वनाथ सिंह, सरपंच उमाकांत उइके अपनी दावेदारी कर रहे हैं। लेकिन कांग्रेस की नजर डिंडोरी जिले में पदस्थ एक डिप्टी कलेक्टर रमेश सिंह पर टिकी हुई है, जिन्हें हाल ही में मुख्यमंत्री ने एक डॉक्टर से अभद्रता के मामले में संस्पेंड कर रखा है।

रमेश सिंह मूलतः अनूपपुर के ही हैं। उनकी ससुराल भी यहीं है और वे कमलनाथ के सम्पर्क में भी हैं। संभव है त्यागपत्र दिलाकर रमेश सिंह को बिसाहू लाल की टक्कर में उतारा जाए। उनके सस्पेंशन को आदिवासी अपमान का मुद्दा बनाया जाए।

2018 में बीजेपी की हार का सबसे बड़ा मुद्दा सवर्ण आंदोलन भी था, जिसका फायदा कांग्रेस को मिला। अब यह मुद्दा बहुत कमजोर पड़ गया है, क्योंकि 15 महीने में कांग्रेस सवर्णों का भरोसा जीतने में नाकाम रही और बीजेपी का कोर वोटर संभव है फिर पार्टी की तरफ लौट आये। इस पूरे इलाके में गोंड, राठौर, (ओबीसी) के अलावा ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य और ओबीसी की लगभग सभी छोटी छोटी संख्या वाली बिरादरी मौजूद है।

बिसाहू लाल की यह संभवत: अंतिम पारी है और यही फैक्टर अगर रामलाल रौतेल और उनकी कम्पनी को भविष्य के लिहाज से समझ आ गया तो अनूपपुर में कमलनाथ और दिग्गीराजा का बिसाहू को खत्म करने का प्लान फेल होना तय है।

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टीम मध्यमत

 

 

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