सिंधिया के साथ कुछ तो ऐसा हो रहा, जो बाहर नहीं आ रहा

हेमंत पाल

भाजपा में इन दिनों अंसतोष की आंच पर कोई ऐसी खिचड़ी जरूर पक रही है, जिसका बाहर अनुमान नहीं हो रहा। शायद इस खिचड़ी में ज्योतिरादित्य सिंधिया से भाजपा ने जो वादे किए, वही उबल रहे हैं। क्योंकि, कांग्रेस की सरकार गिराकर खुद की सरकार बनाने के उत्साह में भाजपा ये भूल गई, इसका भविष्य में पार्टी में क्या असर होगा। सिंधिया अपना 22 लोगों का गुट साथ लाए हैं और उन्होंने शर्तों के साथ भाजपा में आना स्वीकार किया। अब वे 22 विधानसभा क्षेत्र भाजपा के गले की फांस बन गए। इसके अलावा करीब 32 सदस्यों के मंत्रिमंडल में 10 सीट सिंधिया के लिए आरक्षित हैं।

ये दोनों मामले प्रदेश भाजपा को बुरी तरह मथ रहे हैं। दिखाने को भले सबकुछ सामान्य बताया जा रहा हो, पर ऐसा नहीं है। मंत्रिमंडल विस्तार भी टाला जा रहा है कि राज्यसभा चुनाव में कोई अपशगुन न हो जाए। लेकिन, भाजपा में जो खिचड़ी पाक रही है, उसके जलने की खुशबू से माहौल सही नहीं है।

मध्यप्रदेश में भाजपा भले सब कुछ सामान्य होने की बात कह रही हो, पर ऐसा है नहीं। पार्टी ज्योतिरादित्य सिंधिया को ठीक से पचा नहीं पा रही। उसे अभी भी सिंधिया बाहरी नेता नजर आ रहे हैं, ये भ्रम स्वाभाविक भी है। सिंधिया समर्थकों की गतिविधियाँ भी भाजपा को रास नहीं आ रही। इन समर्थकों का दावा है कि होने वाले उपचुनाव में सिंधिया ही भाजपा की तरफ से प्रमुख चेहरा होंगे। जबकि, भाजपा खेमे से अभी भी शिवराज आगे हैं और सिंधिया बस उनके साथ खड़े होंगे। मतभेद की एक वजह ये भी बताई जाती है।

उपुचनाव के दौरान सबसे ज्यादा 16 सीटों पर वोट ग्वालियर-चंबल संभाल में ही डलने वाले हैं। यहां की अधिकांश सीटें कांग्रेस ने सिंधिया के बूते पर ही जीती और सरकार बनाई थी। समर्थकों को लग रहा है कि सिंधिया का जादू फिर चलेगा, जो उनके समर्थक असल ताकत समझ रहे हैं। लेकिन, अभी बहुत कुछ होना बाकी है। औपचारिक रूप से भाजपा और कांग्रेस के टिकटों की घोषणा होना है। मंत्रिमंडल का विस्तार होना है।

भाजपा की चिंता ये भी है कि कोई नया राजहठ आड़े न आए। क्योंकि, जिस एक पाये पर शिवराज-सरकार टिकी है, वो सिंधिया का ही है। भाजपा को उस पाये को तो साधकर रखना ही है, अपने लोगों को भी नाराजी से बचाना है। काम मुश्किल जरूर है, पर भाजपा को ये सब करना ही है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने हमेशा ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ की है। कांग्रेस में भी उन्होंने कई बार इस तरह की पॉलिटिक्स करके अपना मतलब साधा है। लेकिन, भाजपा में वे ऐसा कुछ कर सकेंगे, ये कहा नहीं जा सकता। फिर भी उन्होंने अपनी इस पॉलिटिक्स को आज़माना तो शुरू कर ही दिया है। अंदर की ख़बरें बताती हैं कि भाजपा में उनके साथ सबकुछ सही नहीं हो रहा। उनके साथ किए वादों में भी कतरब्‍योंत की कोशिश है।

‘महाराज’ को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि वे कभी दबाव में राजनीति नहीं कर सकते। ये आदत उनके पिता स्व. माधवराव सिंधिया में भी थी। 1993 में माधवराव सिंधिया ने उपेक्षा के कारण कांग्रेस छोड़ दी थी। फिर उन्होंने ‘मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस’ पार्टी बनाई थी। बाद में वे कांग्रेस में लौट आए थे। कहा तो ये भी जा रहा है कि भाजपा से मोहभंग होने के बाद ज्योतिरादित्य कहीं अपने पिता की पार्टी को फिर जीवित न करें। ऐसे कई सवाल प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में उछल रहे हैं। क्योंकि, अब वे कांग्रेस में वापस आने से तो रहे।

भाजपा ने उन्हें अपनी पार्टी में आने का लालच देकर जो समझौते किए थे, अब वही भाजपा पर भारी पड़ रहे हैं। राज्यसभा का टिकट, केंद्र में मंत्री पद, 22 में से 10 समर्थकों को प्रदेश में मंत्री बनाना और सभी को अपनी-अपनी विधानसभा से उपचुनाव में भाजपा का टिकट देना। इसमें भाजपा के सामने 10 मंत्री बनाना और सभी 22 सीटों से सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव लड़वाना मुश्किल हो रहा है।

क्योंकि, भाजपा के नेताओं को दस मंत्री पद देना सही नहीं लग रहा है। क्योंकि, 10 सीटों के आरक्षण से कई ऐसे नेताओं का मंत्रिमंडल विस्तार से पत्ता कट रहा है, जिनकी तूती बोलती रही है। यही कारण है कि 17 मई के तत्काल बाद होने वाला विस्तार लगातार टल रहा है। शिवराजसिंह चौहान भले अभी दिल्ली से समय नहीं मिलने और कोरोना का बहाना बना रहे हों, पर असल कारण सबको पता है।

भाजपा में जो कुछ चल रहा है, उससे ज्योतिरादित्य सिंधिया खुश नहीं हैं। कारण कि उसके केंद्र में कहीं न कहीं वे खुद के होने को महसूस भी कर रहे हैं। उनके समर्थक तो उनसे सवाल-जवाब करने से रहे, पर सवाल तो खड़े होंगे। भाजपा में आने से पहले के वादों और आज के हालात में अंतर साफ़ नजर आ रहा है। उनके किए वादे पूरे न होना ही उनकी नाखुशी की वजह है। भाजपा सरकार बने दो महीने से ज्यादा समय हो गया, पर उनके साथियों को मंत्री बनाने का वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ। सिंधिया के ज़्यादातर समर्थक अभी भी इंतजार कर रहे हैं। मंत्री पद त्यागकर आए पुराने कांग्रेसी बेचैन हैं। उन्हें ये डर भी सता रहा है कि यदि सभी 22 को टिकट नहीं दिया गया तो क्या होगा।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद ग्वालियर क्षेत्र की 16 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने बालेंदु शुक्ला को पार्टी में शामिल किया है। विधानसभा के 24 सीटों के उपचुनाव में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की 16 सीटें हैं और भाजपा को टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने बालेंदु शुक्ला को अपनी टीम में शामिल किया है। वे कांग्रेस छोड़कर बसपा में गए थे, फिर भाजपा से कांग्रेस में उनकी वापसी हुई है। उनकी राजनीति कांग्रेस से ही शुरू हुई थी। वे कभी माधवराव सिंधिया के सबसे नज़दीकी आदमी थे। उनके बाल साख थे। लेकिन, उनके जाने के बाद ग्वालियर के पूर्व राजघरानों के दरवाज़े उनके लिए बंद हो गए थे।

विचार करने वाली एक बात ये भी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए न तो भाजपा अजनबी है, और न वे भाजपा के लिए अजनबी हैं। वैसे भी सिंधिया परिवार का इतिहास बताता है कि उनका किसी ख़ास राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा से कोई सरोकार नहीं है। ज्योतिरादित्य भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनके लिए भाजपा के राष्ट्रवादी और हिंदूवादी विचारधारा में ख़ुद को फ़िट करना ज़रा भी मुश्किल नहीं होगा।

लेकिन, भाजपा ने यदि उनसे वादे करने के बाद उन्हें हाशिए पर डाला तो बात बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि, नेता से पहले वे ‘महाराज’ हैं और उनके राजहठ को भाजपा समझ चुकी है। 18 साल कांग्रेस में रहकर भी वे उसके प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहे, तो भाजपा तो बहुत दूर की बात है।

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टीम मध्यमत

 

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