जयराम शुक्ल
दुनिया भले थम जाए, फिर भी सियासत और सहाफत जारी रहेगी। सियासत यानी कि नेतागिरी और सहाफत का मतलब पत्रकारिता। कोरोनाकाल चल रहा है, सियासत वाले, सहाफत वाले दोनों फुरसत में। सो कोरोना के इफ-बट को लेकर दोनों पिले पड़े हैं। मीडिया में सोनू सूद छाए हैं। यदि ये फिल्मी अदाकार के अलावा कोई और होते तो न इन पर सहाफत की कृपा बरसती, न सियासत की। पर ये ठहरे ‘दंबग’ के छेदी सिंह जिनपर सलमान इतने छेद करते हैं.. कि आगे की न पूछो..।
वास्तव में सोनू मीडिया के आयटम से ज्यादा जमीन से जुड़े आदमी हैं। वे फिल्मों से कमाई हुई पूँजी कोरोना के संकट में फँसे हुए गरीब मजलूमों पर खर्च कर रहे हैं। वे विलेन नहीं यथार्थ के महानायक हैं। सदी का महानायक तो गत्ते की तलवार भाँजने वाला है। जिसे इस संकट काल में भी ‘घड़ी में..फर्क.. साफ नजर आता है।‘
सो चर्चा तो सोनू सूद की होनी ही चाहिए।
यदि राजेन्द्र शुक्ल सोनू सूद के प्रति धन्यवाद के ट्वीट न किए होते तो कोई जान भी नहीं पाता कि कोरोना काल में मानवता की मदद के लिए उन्होंने खुद कितने पापड़ बेले, किस-किस से हाथ फैलाया! सोनू सेलेबल हैं इसलिए मीडिया का उन पर फोकस है राजेन्द्र शुक्ल को टीआरपी का चारा बनाते हुए।
कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव ने यदि सोनू की जगह किसी मोनू को लेकर ट्वीट किया होता तो खबर कैसे बनती..। सो राजेन्द्र शुक्ल ने रिमहा श्रमिकों के घर पहुँचाने के लिए सोनू की मदद क्यों ली.. सवाल खड़ा कर दिया..। इतना गंभीर सवाल तो शायद उन्होंने अपने संसदीय और कांग्रेस के अध्यक्षीय कार्यकाल में नहीं उठाया होगा..बहरहाल।
इसे सहाफत (पत्रकारिता) ले उड़ी। इसके पास भी इनदिनों कोई ज्यादा काम नहीं सो सुबह से शाम तक..यही दिखाते रहे कि.. मध्यप्रदेश के इस पूर्व मंत्री को अपनी सरकार पर भरोसा नहीं, एक फिल्मी कलाकार से मदद माँगी। कुछ ने तो एक कदम आगे जाकर मीमांसा कर दी- ‘’राजेन्द्र जी को मंत्री बनने पर संदेह है इसलिए वे अपनी सरकार पर ही गुस्सा उतार रहे हैं।‘’
यहां न श्रमिकों की कुशलक्षेम से कुछ लेना-देना है न ही राजेन्द्र शुक्ल से। लेना देना है तो दबंग के छेदी सिंह उर्फ सोनू सूद से क्योंकि इसी से टीआरपी भी बढ़ेगी और व्यूअरशिप भी। सियासत को भी उन मुसीबतजदों से क्या वास्ता..। बस खबर में आ जाएं.. कैसे भी.. सो ट्वीट मार दिया। अरुण यादव जी भी यदि अपने खंडवा के मुंबई में फँसे हुए लोगों के रेस्कयू के लिए सोनू सूद को कहे होते तो शायद उनके क्षेत्र के लोगों को भी वही मदद मिलती जो राजेन्द्र जी के कहने विंध्य प्रवासियों को मुंबई में मिली।
सियासत में जब कोई आगे निकल जाता है.. तो उसका प्रतिद्वंद्वी छाती कूटते हुए सिर्फ़ इतना ही कह सकता है कि “हाय…हम न हुए”। राजेन्द्र शुक्ल को अपने निशाने पर रखने वाले यही अफसोस कर रहे हैं.. सियासत में भी और सहाफत में भी।
ये लोग यह क्यों नहीं जानना चाहते कि विंध्य के दो लाख के करीब लोग रेल या बसों से अपने घर कैसे पहुँचे, सरकार की चलाई हुई रेलगाड़ी से, बसों से। सोनू भाई ने तो महज 164 लोगों को रीवा पहुँचाया। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि सोनू सूद का एकल पराक्रम सरकार की पूरी कसरत पर वैसे ही महत्वपूर्ण है.. जैसे कि रामसेतु बनाने में नल-नील से ज्यादा उस गिलहरी का परिश्रम जो अपने शरीर में बालू को लिपटा कर उसे निर्माणाधीन पुल तक पहुँचाती थी।
सोनू सूद-अरुण यादव-राजेन्द्र शुक्ल के ट्वीटस पर सियासत और सहाफत करने वालों को शायद वह अन्नक्षेत्र भी नहीं दिखा होगा जो रीवा के बायपास में हरिहरपुर में चल रहा है। पाँच हाइवेज रीवा से गुजरते हैं। महाराष्ट्र, गुजरात और दख्खिन कमाने जाने वालों का ये रास्ता है..। पूरे एक महीने से इस रास्ते से गुजरने वालों का स्वागत बरात के मेहमानों जैसा हो रहा हैं। जूते-चप्पल-धोती-बनियान-टूथपेस्ट-ब्रश सभी का मुकम्मिल इंतजाम। यह सब राजेन्द्र शुक्ल नहीं, राजेन्द्र शुक्ल को प्रदेश का राजेन्द्र शुक्ल बनाने की लालसा रखने वाले युवा कर रहे हैं.. चंदे से नहीं अपने उद्यम से कमाए गए.. धन से।
फिल्मी कलाकार सोनू सूद द्वारा विंध्यवासियों की मदद पर राजनीति और मीडियागिरी करने वाला कोई मुझसे भी तो पूछे..? ये मैं नहीं लोकसंस्कृति के प्रख्यात प्रवक्ता डा. चंद्रिका प्रसाद चंद्र का कहते हैं। सतहत्तर वर्षीय डा.चंद्र लॉकडाउन में सोमनाथ तीर्थयात्रा पर थे। अपने समकालीन आठ साथियों के साथ। डायबिटीज व उच्च रक्तचाप के साथ जी रहे.. डॉ. चंद्र कहते हैं.. मैंने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी.. यह मानकर कि अब साथियों सहित हमारे शव ही पहुँचेंगे घर।
वे बताते हैं- ‘’पर एक दिन कोई देवदूत सा पहुंचा हमारे धरमशाले पर। हमारे जिंदा होने व पहचान के कागजात लेकर गया..। दूसरे दिन इन्नोवा हमारे धरमशाले के दरवाजे पर थी और हम लोगों के पास उसके हाथों में। उसने बताया कि आपको आपके घर रीवा पहुँचाना है..। मैंने पूछा भाई आप कौन..? उसका जवाब था- मैं यहां का तहसीलदार। मध्यप्रदेश सरकार से मुझे आप लोगों के यहाँ फँसे होने का प्वाइंट मिला है, आप लोगों को सकुशल घर पहुँचाने के लिए। हमें गर्वानुभूति हुई कि हमारे विधायक राजेंद्र शुक्ल हम जैसे लोगों के लिए भी चिंतित व सतर्क हैं। संकट में फँसे लोगों की हिफाजत में सरकार भी है, सोनू सूद जैसे सेवा को धर्म समझने वाले लोग भी।.. और इसका मीन-मेख निकालने में सियासत भी है और सहाफत भी।
अपने विंध्य की तासीर ही कुछ जुदा है। एक बार देवीलाल से किसी अग्रेजी पत्रकार ने पूछा- आपके प्रदेश की कल्चर क्या है..? दाऊ बोले, लिख्खो- ‘एग्रीकल्चर!’ वैसे ही किसी ने कभी कप्तान अवधेश प्रताप सिंह से पूछ लिया.. आपके रीमा में क्या ज्यादा होता है.. कप्तान साहब बोले- ‘नेतागीरी!’ एक बार तो अपने रीवा के एक एमएले साहब ने विधानसभा की परिचय पुस्तिका में अपने आधिकारिक परिचय में व्यवसाय की जगह राजनीति लिख दिया था..। समर्थकों के ध्यान दिलाने पर भी नहीं सुधारा यह कहते हुए कि…हमारा खानाखर्च तो इसीसे चलता है न भाई।
सो कोई भी मसला राजनीति के चंग चढ़ सकता है। अभी हाल ही..रीवा में तालाब की मेंड़ से झुग्गी-झोपड़ वालों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बने अपार्टमेंट के फ्लैटों में शिफ्ट किया.. तो हाय तौबा मच गया। गरीबों को जमीन से उसाल दिया। वे सबके सब इस कोरोना काल में दो दिन पहले ही आए थे.. राजेन्द्र शुक्ल जिंदाबाद कहते हुए- कि यदि आज हमको पक्का घर न मिलता तो यह तूफान हमारे बच्चों को कहाँ से कहाँ उड़ा ले जाता..।
बहरहाल ये दुनिया थम भी जाए तो सियासत और सहाफत चलती ही रहेगी.. चलनी भी चाहिए.. वो कहावत है ना- शो मस्ट गो आन..!
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टीम मध्यमत