राकेश अचल
लोकतंत्र की स्थापना में जब कुछ दोष रह जाते हैं तो वे रह-रहकर लोकतंत्र की जड़ों को ही कमजोर करते हैं। दलबदल एक ऐसा ही लोकतांत्रिक दोष है। इसे देश में सबसे ज्यादा समय तक सत्तारूढ़ रही कांग्रेस ने पनपाया और संयोग देखिये कि कांग्रेस ने ही इसे रोकने के लिए संसद में क़ानून भी पारित कराया। लेकिन ये बीमारी दूर नहीं होना थी, सो नहीं हुई और आज देश कोविड के साथ-साथ ‘रिसार्ट पॉलिटिक्स’ का भी सामना करने के लिए अभिशप्त है।
देश में ‘रिसार्ट पॉलिटिक्स’ का ताजा केंद्र गुजरात है, वो गुजरात जो महात्मा गांधी का भी था और आज के महात्मा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का भी है। गुजरात में 19 जून को राज्यसभा चुनाव से पहले सियासी हलचल तेज हो गई है। तीन विधायकों के इस्तीफे के बाद कांग्रेस पार्टी पूरी सतर्कता बरत रही है।
रविवार को गुजरात कांग्रेस ने अपने 19 विधायकों को राजस्थान के एक रिसॉर्ट में रहने के लिए भेज दिया है। कांग्रेस सूत्रों ने संकेत दिया है कि पार्टी राजस्थान के माउंट आबू में स्थित रिसॉर्ट में 26 विधायकों को स्थानांतरित करने जा रही है। राजस्थान में कांग्रेस का शासन है और पार्टी को उम्मीद है कि ये विधायक यहां भाजपा की खरीद-फरोख्त से दूर रहेंगे।
गुजरात में कांग्रेस के 65 विधायक हैं, जिनमें से कुछ पहले से ही अलग-अलग रिसॉर्ट में बंद हैं। पार्टी ने अपने दो विधायकों के 4 जून को इस्तीफा देने के बाद यह कदम उठाया है। इसके एक दिन बाद एक और विधायक ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। पार्टी में यह इस्तीफों का दूसरा दौर था। मार्च महीने में राज्यसभा चुनाव की घोषणा के बाद ही चार विधायकों ने उसी समय इस्तीफा दे दिया था।
गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष अमित चावड़ा का आरोप है कि सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर जनप्रतिनिधियों को धमकाने और खरीद फरोख्त का काम किया जा रहा है। हमारे विधायक आगामी रणनीति पर विचार करने लिए यहां ठहरे हुए हैं। आपको बता दें कि राज्य की 183 सदस्यीय विधानसभा में सत्तारूढ़ बीजेपी के 103 सदस्य हैं और उसने राज्यसभा चुनाव में अभय भारद्वाज, रामीलाबेन बारा तथा नरहरि अमीन को उतरा है।
कांग्रेस सदस्यों की संख्या घटकर 65 हो जाने के बाद पार्टी को दो राज्यसभा सीटें जीतने में मुश्किल आ सकती है, जिनके लिए उसने वरिष्ठ नेता भरतसिंह सोलंकी और शक्तिसिंह गोहिल को उतारा है। कांग्रेस के एक विधायक ने कहा कि सोलंकी, गोहिल के बाद दूसरी प्राथमिकता में हैं।
कुर्सी पाने या बचाने के लिए ‘रिसार्ट पॉलिटिक्स’ सभी दलों में लोकप्रिय है। मार्च 2020 में मध्यप्रदेश में यही ‘रिसार्ट पॉलिटिक्स’ खूब चली और इसके चलते डेढ़ साल पहले सत्ता गंवा चुकी भाजपा फिर सत्ता में लौट आई। हिंदी भाषी राज्यों में रिसार्ट पॉलिटिक्स की अनेक घटनाएं हैं, यदि आप अतीत में जायेंगे तो एक-एक कर सारी घटनाएं आपके सामने आ जायेंगीं।
रिसार्ट पॉलिटिक्स को अब देश में कोई पचास साल होने को हैं लेकिन दलदबदल कानून भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। दल बदल विरोधी कानून संसद की आंतरिक राजनीति और सांसदों/विधायकों की खरीद-फरोख्त को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण यंत्र है। लेकिन यह कानून ‘इलाज़ के बजाय अब स्वयं बीमारी बन गया है’।
देश का दुर्भाग्य है कि दल-बदल को लेकर अतीत में जो अपराध कांग्रेस समेत अनेक छोटे-बड़े दलों ने किये वो ही अपराध अब चाल, चरित्र और चेहरा अलग रखने वाली भाजपा भी धड़ल्ले से कर रही है। अपराध ही नहीं कर रही बल्कि इसके पक्ष में तर्क भी दे रही है, क्योंकि अब सत्ता का खून भाजपा की दाढ़ में भी लगे अरसा हो चुका है।
लोकतंत्र की परवाह न भाजपा को है और न कांग्रेस को, कोई भी दल इस दलबदल को रोकने के लिए तैयार नहीं है। जनादेश का अपमान कर गधों-घोड़ों की तरह बिकने वाले जन प्रतिनिधि तिरस्कार के बजाय सम्मान पा रहे हैं। संदर्भ के लिए आपको बता दूँ कि दलबदल की बीमारी हमारे लोकतंत्र में भी विदेश से ही आई है। प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनेता विंस्टन चर्चिल (1874-1965) ने अपने संसदीय जीवन की शुरुआत कंज़र्वेटिव पार्टी से की थी और सन् 1900 में वे इसी पार्टी के टिकट पर सांसद बने।
लेकिन चार साल के भीतर ही उनका अपनी सरकार से मोहभंग हुआ तो वे पार्टी छोड़कर लेबर पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन चर्चिल ने संसद में घोषणा की कि वे अपने इस दल-बदल के बारे में अपने संसदीय-क्षेत्र के निर्वाचकों से परामर्श करना चाहेंगे और यदि निर्वाचक कहेंगे कि उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ना चाहिए, तो वे इस बात के लिए तैयार होंगे।
भारत में दल-बदल की शुरुआत उस घटना से ही मान सकते हैं जब मोतीलाल नेहरू के भतीजे शामलाल नेहरू ने 1920 के दशक में ही केंद्रीय विधानसभा के लिए कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीता, लेकिन बाद में ब्रिटिश पक्ष में शामिल हो गए। कांग्रेस विधायक दल के नेता मोतीलाल नेहरू ने इस कृत्य के लिए उन्हें कांग्रेस से निकाल बाहर किया था।
इसी तरह 1937 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन फिर भी उन्होंने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को दल-बदल कराकर कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया। इनमें से एक हाफ़िज मुहम्मद इब्राहिम को मंत्री भी बनाया। हाफ़िज को छोड़कर किसी भी अन्य सदस्य ने अपनी विधायकी से त्यागपत्र देकर फिर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं समझी।
आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में जब कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस संगठन छोड़ने का फैसला किया तो इसने अपने सभी विधायकों (केवल उत्तर प्रदेश में ही 50 के आस-पास) से कहा कि वे इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ें। इस्तीफा देने वालों में आचार्य नरेंद्र देव जैसे दिग्गज नेता भी थे। इन्होंने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था, लेकिन बाद में खासकर कांग्रेस पार्टी ने ऐसे आदर्शों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
आपको याद दिला दूँ कि भारत के पहले आम चुनावों के बाद 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। कांग्रेस को 152 और बाकी पार्टियों को कुल मिलाकर 223 सीटें मिली थीं। टी. प्रकाशम् के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया।
लेकिन राज्यपाल ने सेवानिवृत्ति का जीवन बिता रहे भारत के पूर्व गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया, जो उस समय विधान सभा के सदस्य तक नहीं थे। इसके बाद हुई जोड़-तोड़ में 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस में आ मिले और राजाजी की सरकार बन गई। एक साल बाद इन्हीं टी. प्रकाशम् को आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन देकर कांग्रेस ने पार्टी में शामिल होने का प्रस्ताव दिया। प्रकाशम् अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बन भी गए।
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने अपनी रिसर्च के आधार पर दल-बदल के जो आंकड़े जुटाए वे हैरान करने वाले हैं। 1967 और फरवरी 1969 के चुनावों (राज्य विधानसभा) के बीच भारत के राज्यों और संघ-शासित प्रदेशों के करीब 3500 सदस्यों में से 550 सदस्यों ने अपना दल बदला था। केवल एक साल के भीतर ही 438 विधायकों ने दल-बदल किया।
विधायकों की संख्या न लेकर यदि केवल प्रमुख दल-बदल की घटनाओं की संख्या ली जाए तो इस डेढ़ साल की अवधि में एक हजार से अधिक दल-बदल हुए। औसतन हर रोज एक से अधिक विधायकों ने दल-बदल किया। खुद कांग्रेस के 175 विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए।
विधायकों का सबसे संपर्क काटकर सुरक्षित स्थान पर ले जाने की ‘रिसार्ट पॉलिटिक्स’ की परंपरा आंध्र प्रदेश में एनटीआर और उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू द्वारा शुरू की गई कही जा सकती है। लेकिन यह इंदिरा गांधी के सहयोगी अरुण नेहरू द्वारा वहां तेलुगुदेशम पार्टी में कराई गई तोड़-फोड़ के परिणामस्वरूप ही हुआ था।
हुआ यूं था कि 1983 के चुनाव में आंध्र में कांग्रेस हार गई और एनटी रामाराव मुख्यमंत्री बने। अगस्त 1984 में एनटीआर अपना इलाज कराने अमेरिका गए। मौका पाकर केंद्र में बैठी कांग्रेस सरकार ने एनटीआर के निकट सहयोगी और उनके वित्त मंत्री भास्कर राव को दल-बदल के लिए तैयार कर लिया।
आंध्र में बैठे कांग्रेसी राज्यपाल ने तुरंत ही भास्कर राव को मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी। यह सब कुछ बहुत ही बेशर्मी के साथ किया गया। और जब इंदिरा जी की किरकिरी होने लगी तो उन्होंने संसद में कहा कि एनटीआर सरकार को गिराकर भास्कर राव को मुख्यमंत्री बनाने वाली बात उन्हें भी न्यूज़ एजेंसियों के माध्यम से पता चली!
लेकिन एनटीआर हार नहीं मानने वाले थे। एक समय में यूथ कांग्रेस के नेता और संजय गांधी के करीबी रहे चंद्रबाबू नायडू एनटीआर के दामाद थे और उनके राजनीतिक प्रबंधक भी। उन्होंने टीडीपी के 163 विधायकों को एनटीआर के बेटे के फ़िल्म स्टूडियो ‘रामकृष्ण स्टूडियो’ में बंद कर दिया और उनका संपर्क बाहरी दुनिया से काट दिया।
भास्कर राव अपने ही विधायकों से संपर्क नहीं कर पाए। इसके बाद इन सभी विधायकों को दिल्ली ले जाया गया और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल के सामने उनकी परेड कराई गई। हैरानी की बात ये है कि पचास साल पहले जो जनप्रतिनिधि बीस से चालीस हजार रुपये में बिकते थे आज उनकी कीमत करोड़ों में पहुँच गयी है।
अब जो पार्टी ये कारोबार करने में सक्षम है वो ही कुर्सी पर काबिज रह पाती है, अन्यथा उसे चाहे जब अस्थिर कर चलता किया जा सकता है। आइये हम सब प्रभु से कामना करें कि वो देश को इस ‘रिसार्ट पॉलिटिक्स’ से मुक्ति दिलाये।
————————————-
आग्रह
कृपया नीचे दी गई लिंक पर क्लिक कर मध्यमत यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें।
https://www.youtube.com/c/madhyamat
टीम मध्यमत