अजय बोकिल
‘विश्व साइकिल दिवस’ पर 3 जून को दो परस्पर विरोधी सी लगने वाली खबरें एक साथ नमूदार हुईं। पहला पोस्ट-कोविड (उत्तर कोरोना) काल में संयुक्त राष्ट्र संघ ने साइकिलिंग को बढ़ावा देने के लिए एक टास्क फोर्स बनाया तो दूसरी तरफ देश में साइकिल बनाने वाली पुरानी कंपनी एटलस पर अनलॉक 1:0 में ही लॉकडाउन हो गया। भारी घाटे के बाद कंपनी पर ताला जड़ दिया गया और वहां काम करने वाले 1 हजार लोग सड़क पर आ गए।
बुजुर्गों को याद होगा कि एक जमाने में एटलस की साइकिल मजबूती और गुणवत्ता की गारंटी मानी जाती थी। वैसे आज देश में कई कंपनियां साइकिलें बना रही हैं और विदेशों से भी इनका आयात हो रहा है, लेकिन देश में आजादी के बाद से लेकर 1990 तक चला ‘साइकिल युग’ अब पूरी तरह रंग बदल रहा है।
साइकिल ‘जरूरत’ से ज्यादा ‘शौक’ में तब्दील हो गई है। हालांकि गरीबों का वह अभी भी सहारा है। कुछ लोगों का मानना है कि उत्तर कोरोना काल में साइकिल युग की वापसी होगी, क्योंकि साइकिल सस्ती, पर्यावरण फ्रेंडली तथा सबसे बड़ी बात सोशल डिस्टेंसिंग का भाव भीतर समाए हुए है। चूंकि साइकिल अमूमन एक ही व्यक्ति चलाता है, इसलिए सोशल डिस्टेंसिंग भी कायम रहेगी ही।
कुछ दमदार या मजबूर लोग साइकिल के कैरियर पर भी इंसानों को लाद लेते हैं, लेकिन मोटे तौर पर साइकिल एक जने का और अपने ही पैरों से चलने वाला वाहन है। ऐसे में फोर व्हीलर या टू-व्हीलर के पीछे दौड़ती दुनिया इस मानव चलित दोपहिया वाहन पर फिर लौटेगी, ऐसी उम्मीद जताई जा रही है।
साइकिल (अंग्रेजी में बाइसिकल) वास्तव में ऐसा वाहन है, जो हमें अंग्रेजों ने दिया है। आज दुनिया में साइकिल की उम्र 134 साल हो चुकी है। हालांकि इसके आविष्कार और उसे सुविधाजनक रूप लेने में करीब 80 साल लग गए। आज की आधुनिक साइकिल की पूर्वज साइकिल इस दुनिया में 1886 में आई। उसके बाद इसमें कई सुधार हुए।
आजकल तो साइकिलें कई रूप रंगों में मौजूद हैं। साइकिल एक साधारण-सी मानव चलित मशीन है। जो पिछले चक्के के धक्के से अगले चक्के को आगे ठेलती है। इस तरह साइकिल ने दुनिया को (भाप से चलने वाले इंजन को छोड दें) बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी के युग से बाहर निकाला। इंसान अपने दम पर बिना पैदल चले या दौड़े आगे बढ़ सकता है, यह सोच ही अपने आप में क्रांतिकारी थी।
जब महिलाओं के लिए बिना डंडे वाली साइकिल ईजाद हुई तो इसे ‘फ्रीडम मशीन ऑफ वूमन’ कहा गया। भारत में भी साइकिल युग की शुरुआत 20 वीं सदी के साथ ही मानी जाती है। हालांकि पहले ये विदेशों से आयात की जाती थीं। लेकिन आजादी के बाद देशी एटलस कंपनी ने यूपी के गाजियाबाद में साइकिल कारखाना लगाया। फिर हीरो व अन्य कंपनियां भी साइकिल निर्माण के क्षेत्र में आईं। जल्द ही साइकिलें समाज के हर वर्ग में लोकप्रिय हो गईं।
सत्तर के दशक में हमारे एक बुजुर्ग प्रोफेसर टाई सूट पहन कर साइकिल पर कॉलेज आते थे। उस जमाने में साइकिल खरीदना हर मध्यमवर्गीय व्यक्ति का सपना होता था। अपनी एक साइकिल होने का सुख तब आज एक फोर व्हीलर के मालिक होने से भी ज्यादा बड़ा था। दहेज में भी साइकिल मांगी और दी जाती थी।
साइकिल चलाना तब आम बात थी। लिहाजा हैंडिल, पैडल, रिम, चेन, ताड़ी, पहिया, डग, मडगार्ड, कैरियर जैसे शब्द बोलचाल में आम थे। उस जमाने में साइकिल किराए से भी मिलती थी और रेट भी शायद 10 पैसे फी घंटा होता था। जमानत के तौर पर विद्यार्थियों को अपने कॉलेज का आईकार्ड रखना होता था या फिर मोहल्ले या शहर के किसी नामचीन व्यक्ति का हवाला देना होता था।
साइकिल की दुकान वाला घड़ी के हिसाब से किराया वसूल करता था। मुख्य मार्गों पर साइकिल की दुकानें होती थी, जहां से साइकिल उठाई और मामूली किराए पर शहर का चक्कर लगा मारा। दरअसल साइकिल पर जिस तरह मनुष्य सभ्यता ने सवारी की है और साइकिल के साथ जो आत्मीय रिश्ता बना है, उसकी वजह साइकिल का पूरी तरह ‘समाजवादी’ होना भी है।
यार दोस्तों से साइकिल ‘मुफ्त’ में ही मांग ली जाती थी। साइकिल पर घर का सामान, साग सब्जी आती थी। कई प्रेमी जोड़े सिर्फ साइकिल की वजह से डेट कर पाते थे और कई प्रेमिकाएं प्रेमी की साइकिल के डंडे पर बैठ कर शादी की पायदान तक पहुंची थी। अनेक हिंदी फिल्मों में साइकिल चलाती लड़कियों की टोली के दिलकश सीन होते थे। तब ‘संस्कारी’ लड़कियों के लिए उम्मीदों के आसमान में उड़ने का एकमात्र जरिया साइकिल ही हुआ करती थी।
गरीबों के लिए साइकिल तो बहुउद्देशीय तब भी थी। लड़कियों-बच्चों को बिठाने से लेकर लड़कियां और दूसरा साजो सामान लादने तक। साइकिलों ने ही ‘पंचर’ बनाने के व्यवसाय और ‘मामला पंचर’ होने जैसे मुहावरे को जन्म दिया। चाक-चौबंद लोग तब साइकिल के साथ पंक्चर जोड़ने का ‘सुलेसन’ और ट्यूब में हवा भरने का पंप भी लेकर चलते थे। आशय ये कि साइकिल अपने आप में ‘आत्मनिर्भरता’ का मूर्तिमंत उदाहरण थी।
नब्बे का दशक शुरू होते-होते साइकिल का सपना ऑटोमोबाइल स्कूटर या बाइक में बदलने लगा। जिंदगी की तेज होती रफ्तार में साइकिल वाला ‘भारत’ ऑटो वाले ‘इंडिया’ के मुकाबले पीछे छूटने लगा। आर्थिक उदारीकरण ने स्वचलित यंत्रों की तरफ लोगों को खींचना शुरू किया। रफ्तार और अमीरी के दिखावे की एक नई होड़ शुरू हुई। शहरी बसाहटों और कार्य स्थलों की बढ़ती दूरियों ने भी साइकिलों को गुजरे जमाने का वाहन सिद्ध करने में मदद की। जबकि साइकिल पहले सी चलती रही। बिना थके, बिना रुके, बिना ग्लैमर के।
लेकिन अब इस देश में साइकिल उद्योग भी संकट में है। दरअसल साइकिल उद्योग को झटका सस्ती चीनी तथा अन्य देशों से आयातित साइकिलों ने दिया है। यूं भारत दुनिया में दूसरे नंबर का साइकिल उत्पादक देश है। हमारे यहां सालाना डेढ़ करोड़ साइकिलें बनती हैं। भारतीय साइकिलों की मांग पूरी दुनिया में रही है। लेकिन इस क्षेत्र में हमें चीन के अलावा श्रीलंका और बंगला देश से भी कड़ी चुनौती मिल रही है।
अब तो तरह तरह के आकार प्रकार व सुविधाओं वाली साइकिलें बाजार में आ गईं हैं। शारीरिक व्यायाम से लेकर तफरीह और प्रतिस्पर्द्धा करने वाली साइकिलों तक। बावजूद इसके देश अब साइकिल पर सवारी करता सा नहीं लगता।
अब कोरोना दौर में फिर साइकिल लोगों को याद आने लगी है। क्योंकि ये पर्यावरण मित्र तथा शरीर से व्यायाम करा लेने वाली है। कोरोना के आगे घुटने टेक चुके ज्यादातर देश किसी ऐसे फार्मूले की तलाश में है जो उनके नागरिकों को कोरोना से बचाने में मददगार हो। कोरोना ने इस तस्वीर में कुछ बदलाव किए हैं। बंद कैंपस में लोग सेहतमंदी के लिए साइकिलें चलाने लगे।
कई लोगों को महसूस हुआ कि दूरियां इतनी भी नहीं है कि उन्हें साइकिलों पर नापा न जा सके। वैसे भी साइकिलें रंग रूप में समाजवादी ही रही हैं। कोई भी बैठे, चलाए। बगैर लादे या लादकर। कई देशों में साइकिल गरीबी मिटाने का भी अहम जरिया बनी है तो मप्र में छात्राओं को साइकिल देने की मुहिम बेटियों के अरमान पूरे करने वाली रही है।
कोरोना काल में लोगों की सेहतमंदी, प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से दुनिया का ध्यान फिर साइकिलों की ओर गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के यूरोपीय सदस्य देशों ने इसी संदर्भ में एक टास्क फोर्स गठित किया है। इसका काम उत्तर कोरोना काल की ‘न्यू नॉर्मल’ स्थिति में ज्यादा स्वस्थ और पर्यावरण को सहेज रखने वाले परिवहन के तरीकों पर विचार और चर्चा करना है। साथ ही साइकिलिंग को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना है।
साइकिल चलाना कोरोना से कितना बचाएगा, कहना मुश्किल है, लेकिन समूची मानव सभ्यता की वाहक के रूप में साइकिल फिर चलने लगेगी, ऐसी उम्मीद गैर वाजिब नहीं है। कहते हैं कि वक्त कई बार लौटता है। इस बार शायद साइकिल की शक्ल में ही न हो।
————————————-
आग्रह
कृपया नीचे दी गई लिंक पर क्लिक कर मध्यमत यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करें।
https://www.youtube.com/c/madhyamat
टीम मध्यमत