जयराम शुक्ल
यह घड़ी बिल्कुल नहीं है शांति और संतोष की,
‘सूर्यनिष्ठा’ सम्पदा होगी गगन के कोष की।
यह धरा का मामला है घोर काली रात है,
कौन जिम्मेदार है यह सभी को ज्ञात है।
रोशनी की खोज में किस सूर्य के घर जाओगे,
‘दीपनिष्ठा’ को जगाओ अन्यथा मर जाओगे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन को गुन-धुन रहा था कि बालकवि बैरागी के उक्त काव्यांश का स्मरण हो आया। उस दिन बैरागी जी की दूसरी पुण्यतिथि भी थी। कवि को यूँ ही त्रिकालदर्शी नहीं कहा जाता, वे वाल्मीकि की भाँति विज्ञान विशारद भी होते हैं। विचार कालजयी होते हैं, आज नहीं तो कल किसी न किसी रूप में फलित होते हैं।
मोदी जी ने अड़तीस मिनट के संबोधन में देश की आत्मनिर्भरता को लेकर जो वक्तव्य दिया है, इस काव्यांश में उसका निचोड़ है। उन्होंने देश की स्वाभिमानी अर्थव्यवस्था को नए सिरे से गढ़ने की बात की है। पखवाड़े भर पहले संघप्रमुख मोहन भागवतजी ने देश के नाम प्रबोधन में यही बात की थी..कि स्वदेशी ही समर्थ भारत का आधार बन सकता है।
चक्रवृद्धि ब्याज की रफ्तार से बढ़ रहे कोरोना के संक्रमण और देशव्यापी तालाबंदी से उपजी हताशा के बीच मोदी का संबोधन आशाओं का संचार करता है। कोरोना का अंत कहाँ है, फिलहाल किसी को नहीं मालूम। वैज्ञानिक भी अब यह कहने लगे हैं कि फिलहाल कोरोना के साथ जीना ही विश्व की नियति है। ऐसे निराशा भरे वातावरण में जनमन में उत्साह और जिजीविषा भरने का प्रयत्न विश्व के प्रायः सभी देश कर रहे हैं।
देश की जीडीपी के बराबर यानी लगभग 20 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज अर्थव्यवस्था में प्राण फूकने की संजीवनी कोशिश है। और इस कोशिश की दिशा स्वदेश-स्वाभाविमान-स्वनिर्भरता है। मोदी ने जन से जग की बात की है। राष्ट्र के नाम मोदी के संबोधन व आत्मनिर्भरता की अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ और बात करें इससे पहले देश के हालात पर चर्चा करते हैं।
यह सही है कि देश के लगभग हर कोने से श्रमिक वर्ग की कारुणिक सत्यकथाएं सामने आ रही हैं। तालाबंदी की वजह से उत्पन्न परिस्थितियों में मोर्चे की पहली लड़ाई यही लोग लड़ रहे हैं और शहीद भी हो रहे हैं। औरंगाबाद में रेल की पटरियों पर खून से सनी, बिखरी रोटियां बेबसी का बयान कर रही हैं।
अबोध बच्चों, गर्भवती महिलाओं के साथ एक-एक हजार किलोमीटर तक पैदल सफर और उससे निकले वृत्तांत को सुनकर कलेजा हाथ में आ जाता है। कहने में कोई संकोच नहीं कि यह विपदाजनक पलायन बँटवारे से भी ज्यादा त्रासद है। कोरोना महामारी का प्रचारित भय इतना प्रचंड है कि जो कहीं दूर प्रदेश के शहर में है वह अपने घर की दहलीज पर ही मरना चाहता है। घर वापसी के पीछे यही पीड़ा यही भावना उद्वेलित कर रही है।
मृत्यु का भी अपना लोकदर्शन होता है। कोई जवान या प्रौढ़ भी जब किसी बीमारी से मरता है तो उसके परिजन, मित्रजन दो आँसू बहाकर संतोष कर लेते हैं कि भगवान की इच्छा से उसके भाग्य में यही बदा था। लेकिन जब किसी की मृत्यु अनायास, अकाल ही होती है तो वह दिल को दहला देती है। परिजनों को यह विश्वास करने और सँभलने में समय लगता है। ऐसी मौतें, बीमारियों-महामारियों से कई गुना ज्यादा लोमहर्षक, ह्रदय विदारक होती हैं।
कोरोना के संक्रमण से अब तक जितने लोग मरे हैं.उसके बरक्स कोरोना के भय या पलायनजनित दुर्घटना से हुई एक मौत उन सब पर भारी है। क्योंकि जो मरे हैं उन्हें हम बचा सकने की स्थिति में थे। इन मौतों का गुनहगार हमारा सिस्टम है, स्टेट है, स्टेट को चलाने वाले नीति नियंता और शासक हैं, जो जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा बनी इस राज्य-व्यवस्था को चलाने के लिए चुने गए हैं। भविष्य में कोरोना महामारी से संक्रमित होकर मरने वालों से ज्यादा उन लोगों की चर्चा होगी जो रेल की पटरियों पर कटकर मरे, जो पैदल चलते-चलते जमीन पर ऐसे गिरे कि फिर नहीं उठे।
12 मई को राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसे लोगों का भावपूर्ण स्मरण किया और पीड़ा व्यक्त की। लेकिन जो वो नहीं कह पाए वो यह कि इस संघीय व्यवस्था में उन्होंने प्रांतों से जो अपेक्षाएं की वो गलत साबित हुईं। प्रधानमंत्री की आशाओं को कदम-कदम पर विश्वासघात मिला। 22 मार्च को जब देश में लॉकडाउन की घोषणा हुई तब मोदी ने जोर देकर यह बात भी कही थी कि अन्य प्रांतों के जो प्रवासी हैं, खासतौर पर श्रमिक और छात्र, उनके जीवन की चिंता संबंधित राज्य सरकारें करेंगी। इस गाढ़े वक्त में सरकारी/गैर सरकारी प्रतिष्ठान अपने कर्मचारियों की संपूर्ण सुरक्षा करेंगे।
राज्य सरकारों ने प्रधानमंत्री की यह चिंता अपनी नौकरशाही पर लाद दी। नौकरशाही के लिए मौतें ह्रदयहीन आँकड़ों से ज्यादा कभी कुछ नहीं रहीं। श्रमिकों के खूनपसीने से अकूत मिल्कियत खड़ी करने वाले गैर सरकारी प्रतिष्ठानों ने बेशर्मी के साथ हाथ खड़े कर लिए और श्रमिकों को बेदखल कर दिया। नौकरी और आश्रय गँवाने के बाद पेट की रोटी की चिंता लिए जब ये सब सड़क पर आए तो ज्यादातर को पीठपर पुलिस की लाठियां मिलीं।
राज्यों की व्यवस्थाओं पर भरोसा नहीं रहा, इसलिए सब अपने-अपने घरों की ओर पैदल ही निकल पड़े। मुख्य मार्ग पर पुलिस के प्रतिबंध का सामना न हो इसलिए प्रायः सभी ने अपने शहर जाने वाली रेल की पटरियां पकड़ी। जो गाँवों या जंगलों के दुर्गम रास्तों से निकले उनके साथ कहीं लूट हुई तो कहीं आश्रय मिला। इसी फेर में महाराष्ट्र से गुजरात के सूरत शहर जा रहे तीन साधुओं को पालघर में चोर समझकर पीट पीटकर मार डाला गया।
कई घटनाएं और हादसे अभी अनसुने हैं। लेकिन इसके विपरीत कई मामले ऐसे भी आए जब रास्ते पर लोगों ने मदद दी। घाव सहलाए, मलहम लगाए, सांत्वना और संबल दिया। ऐसे सैकड़ों वाकये हैं जहां जाति-पाँति, धर्म, पंथ से ऊपर उठकर मुसीबतजदा लोगों की मदद की गई। इन सबके बीच टीवी चैनल्स सनसनीखेज़ वाले सत्यमित्थ्या समाचारों को नमकमिर्च लगाकर दर्शकों/श्रोताओं के समक्ष परोसते रहे, उन्हें डराते रहे। कोरोना के सोशल डिस्टेंसिंग को पीडितों के प्रति वितृष्णा के अर्थ में फैलाते रहे। समाचार माध्यमों ने संकट से भी जोशभरी टीआरपी हासिल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इस संकट में मीडिया/सोशल मीडिया का निहायत गैरजिम्मेदाराना चेहरा भी सामने आया।
थ्योरी कभी भी जस की तस प्रैक्टिकल में नहीं उतरती। प्रधानमंत्री की थ्योरी का राज्यों में यही हश्र हुआ। इस बीच समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो प्रधानमंत्री के लॉक डाउन की तुलना मोहम्मद-बिन-तुगलक और हिटलर से करता रहा, इसने जनता कर्फ्यू का का नाम ‘नमो कर्फ्यू‘ रखा। इस गाढ़े संकट में जिनने किसी गरीब को एक छदाम भी नहीं दिया, एक घूँट पानी तक के लिए नहीं पूछा वही सबके सब पीएम केयर के फंड का हिसाब माँगते रहे। कोरोना के पहले तक शाहीनबाग, सीएए जैसे मुद्दों पर विषवमन करने वालों को इस कोरोना संकट के पीछे भी मोदी ही नजर आते रहे।
वे यह आकलन करते रहे कि मोदी की जगह यदि उस महानवंश का राजकुँवर होता तो इस संकट को किस कुशलता के साथ साधता। वह महान राजवंश और उसका राजकुँवर इस संकट में अबतक सिर्फ़ अर्थनीति की ही बात करता रहा। उसे और उसके बगलगीरों को बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज पर खुश होना चाहिए। लेकिन मैं यकीन के साथ यह कह सकता हूँ कि ऐसा नहीं होगा। इस पर मीनमेख निकालने की शुरुआत हो चुकी है।
कल यह बात भी सामने आएगी की प्रधानमंत्री मोदी रिजर्व बैंक के कोष से संघ के स्वदेशी आत्मनिर्भरता के एजेंडे को लागू कर रहे हैं। स्वदेशी आत्मनिर्भरता का यह मूल एजेंडा तो महात्मा गांधी, बिनोवा भावे, लोहिया, जयप्रकाश का था। इसी को आगे बढ़ाते हुए पंडित दीनदयाल उपाध्याय देशी अर्थव्यवस्था को युगानुकूल और वैश्विक को देशानुकूल बनाने की बात करते थे। नानाजी देशमुख ने तो दीनदयाल जी के इन विचारों का एक प्रकल्प ही खड़ा कर दिया। इस तरह कायदे से इस बुद्धिविलासी वर्ग को संतोष होना चाहिए कि महात्मा गांधी ने जिस स्वदेशी की अपेक्षा पं.जवाहरलाल नेहरू से की थी उसे अब नरेन्द्र मोदी पूरा करने जा रहे हैं।
बहरहाल 18 मई से लॉकडाउन का चौथा चरण शुरू होगा और उसके साथ ही जारी रहेगी इसके औचित्य की चर्चा। हम ह्रदयहीन आँकड़ों में उलझने के बजाय सीधे सीधे उसकी बात करते हैं जो दिखता और समझ में आता है। कोरोना का वायरस चीन के वुहान से पूरी दुनिया में फैला यह सभी जानते हैं। लेकिन चीन खुद इससे कैसे सँभला और दुनिया को लॉकडाउन में फँसाकर बाहर आ गया इस मिस्ट्री को सुलझाने में अमेरिका समेत सभी देशों की जासूस एजेंसियाँ लगी हैं।
इन सबके बावजूद देखें तो चीन में संक्रमितों और मृतकों की संख्या भारत से ज्यादा ही है। संक्रमण के मामले में भारत से ऊपर जो देश हैं उनमें अमेरिका, रूस, स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, जर्मनी, टर्की, ईरान व चीन हैं। चीन के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। टर्की, ईरान और चीन को छोड़ दें तो शेष देश नाटो की सामरिक शक्ति के भागीदार तो हैं ही, विश्व की अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े स्टेक होल्डर हैं। यहां की चिकित्सा व्यवस्थाएं विश्व की सर्वश्रेष्ठ हैं।
भारत इनके सामने कहीं नहीं ठहरता। दुनिया को अपनी जेब में रखने का दावा करने वाले अमेरिका में 14 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हैं और 85 हजार के आसपास मर चुके हैं। भारत में अभी कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या अमेरिका के कोरोना मृत लोगों से भी कम है, मृत्युदर विश्वभर में सबसे कम 3 प्रतिशत और संक्रमितों के स्वस्थ होने की दर लगभग 33 प्रतिशत है जो सबसे अधिक है।
इसकी वजह ये कि खुलेपन, लोकतंत्र की उदात्तता और हर मर्ज की दवा का दंभ रखने वाले अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशों ने इस महामारी को हल्के में लिया। जिन देशों ने इस संक्रमण को लेकर अपनी हेठी बघारी, वे मरे। नरेन्द्र मोदी ने समय पर निर्णय लिया, परिणाम वैश्विक स्तर पर देखें तो सवा अरब की आबादी वाले देश में कोरोना अभी नियंत्रण से बाहर नहीं है। यदि पचहत्तर हजार संक्रमित हैं तो इनमें पच्चीस हजार ठीक होकर घर भी जा चुके हैं।
भारत में संक्रमित लोगों के ठीक होने की दर विश्व में सर्वाधिक है। इसका श्रेय देश के कोरोना वारियर्स को जाता है जो अपनी जान पर खेलकर जिंदगी बचाने के प्रयत्न में लगे हैं। लॉकडाउन के बाद यदि राज्यों ने अप्रवासी श्रमिकों के कुशलक्षेम को लेकर जिम्मेदारी बरती होती तो रेल की पटरियों से ऐसी कारुणिक सत्यकथाएं नहीं उठतीं।
शोक से सब ठप नहीं हो जाता। जिंदगी की जीजिविषा प्रबल होती है। सूरज चाँद अपनी ही दिशा से उगते हैं। प्रकृति का चक्र यूँ ही चलता रहता है, निर्बाध। कोरोना महामारी जैसी न जाने कितनी बाधाएं झेल चुकी है यह मानव सभ्यता। सभ्यताएं अपनी राख से फिर फीनिक्स पक्षी की भाँति उठ खड़ी होती हैं। कोरोना ने अर्थव्यवस्था के ढांचे को ध्वस्त किया है, जमींदोज नहीं। नई अर्थव्यवस्था स्वदेशी स्वाभिमान के साथ उठ खड़ी होगी जहां सबकुछ अपना होगा, हर एक नागरिक उसका स्टेक होल्डर-भागीदार होगा… इस विश्वास को लेकर चलना होगा।
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टीम मध्यमत