अजय बोकिल
भारत से विदेश ले जाए गए गिरमिटिया मजदूरों के संघर्ष, यंत्रणा और बाद में उनकी आर्थिक सम्पन्नता की कई रोमांचक कहानियां हमने सुनी हैं, लेकिन स्वदेश में ही कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की ये यातना कथा भुलाना नामुमकिन होगा। महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास रेल की पटरी को सिरहाना बना कर सो रहे मध्यप्रदेश के 16 मजदूरों की मालगाड़ी से कटकर हुई मौत ने पूरे देश को भीतर तक हिला दिया है। ये वो मजदूर थे, जो बेरोजगारी और कंगाली के चलते मजबूरी में ही पैदल अपने घरों को चल पड़े थे। उन्हें पता नहीं था कि जिस पटरी के सहारे वो जिंदगी का बाकी सफर तय करने जा रहे हैं, उसका ‘डेड एंड’ भी यहीं होगा।
जिन डेढ़ सौ रोटियों और एक टिफिन चटनी के भरोसे ये मजदूर डेढ़ हजार किमी का सफर तय करने निकले थे, वो रोटियां और चटनी उन मजदूरों की क्षत-विक्षत लाशों के पास वैसी ही बेजान पड़ी थीं। इस अमानवीय हादसे के बाद सांत्वना के सुर और मदद के हाथ आगे आए हैं, लेकिन जिस वक्त उन्हें सचमुच मदद की जरूरत थी, वह उन्हें अब कभी भी नहीं मिलेगी। यूं तो यह भी एक हादसा ही है, लेकिन सरकारें इसकी नैतिक जिम्मेदारी से नहीं बच सकतीं कि ऐसे हालात उन्होंने पैदा क्यों होने दिए?
कोरोना संकट कितना भयावह है, कितना नहीं है, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन इसकी वजह से लगातार खिंच रहे लॉक डाउन में देश के लाखों प्रवासी मजदूरों की जान सरकारों की अदूरदर्शिता और असंमजस ने खतरे में डाल दी है, इसे समझाने के लिए अलग से क्लास की आवश्यकता नहीं है। औरंगाबाद हादसा तो कल हुआ, इसके पहले भी तीन हादसे ऐसे हुए, जिनमें प्रवासी मजदूरों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं है। उनमें भी कई मप्र के ही थे।
चार दिन पहले यूपी में मथुरा के पास भीषण सड़क हादसे के शिकार 7 मजदूर मप्र के छतरपुर जिले के थे। ये किसी तरह टेम्पो में भरकर लौट रहे थे कि रास्ते में ट्रक ने टक्कर मार दी। इसके पहले एक ट्रक की छत पर सवार झारखंड के दो प्रवासी मजदूरों की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। इसी तरह ओडिशा में मजदूरों को ला रही एक बस तेलंगाना में दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसमें कुछ मजदूर घायल हो गए। इनमें वो लाखों मजदूर शामिल नहीं हैं, जो लॉक डाउन से उपजी हताशा और आशंका के कारण किसी भी तरह से अपने घरों को लौटना चाहते हैं। इस उम्मीद में कि और कुछ नहीं तो घर की छत के नीचे सुकून तो मिलेगा। डरावनी बात यह है कि लॉक डाउन के साथ ऐसे प्रवासी मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है।
देश में लॉक डाउन को अपने अंदाज में भोग रहे कुछ लोगों की जिज्ञासा है कि ये प्रवासी मजदूर पैदल ही अपने घरों को क्यों जा रहे हैं? साधन मिलने का इंतजार क्यों नहीं कर लेते? एक मासूम सा प्रश्न यह भी कि रेल पटरी कोई सोने की चीज है? सोना ही था तो आसपास की झाडि़यो में सो जाते। इन सवालों का उत्तर देने से पहले हमे समझना होगा कि देश के दूरदराज में काम कर रहे ये मजदूर ज्यादातर रोजनदारी श्रमिक हैं। गांव में रोजगार नहीं था, इसलिए देश के जिस कोने में काम मिला, वहीं जा पहुंचे।
इस हादसे के शिकार मजदूर भी एक सरिया फैक्ट्री में काम करते थे। लेकिन लॉक डाउन के बाद फैक्ट्री मालिकों, ठेकेदारों ने बिना काम के पैसा देने से इंकार कर दिया। बिना पैसे के चालीस दिन तो क्या तो चार दिन काटना भी मुश्किल है। जब हाथ में नकदी और पेट के लिए रोटी भी न बची तो गृहस्थी सर पर लाद कर वो पैदल ही निकल लिए। क्योंकि लॉक डाउन में आवागमन के साधनों पर भी ताला पड़ा है। हालांकि बाद में मजबूरी में केन्द्र और कुछ राज्य सरकारों ने इन मजदूरों को लाने के लिए सीमित रूप में रेल और बसों की व्यवस्था की, लेकिन तब तक अधिकांश जगह गरीबी का धीरज टूट चुका था।
रहा सवाल पटरी को सिरहाना बनाने का तो जिंदा रहने की कशमकश और बदहवासी में मजदूर ये भी भुला बैठे कि गंतव्य तक पहुंचाने वाली पटरी मौत का तकिया भी हो सकती है। जो मारे गए, वो बहुत कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ आदिवासी मजदूर थे। उन्हें केवल इतना पता था कि लॉक डाउन में रेलें भी बंद हैं। दूसरे, रेल की पटरियां सड़कों की तुलना में सीधी चलती हैं। वहां चेकिंग का खतरा भी नहीं होता। इसे उन मजदूरों की मूर्खता या मासूमियत ही कहें कि वो ये नहीं सोच सके कि लॉक डाउन में पैसेंजर ट्रेनें भले बंद हों, लेकिन कोई मालगाड़ी भी उन्हें रौंदकर निकल सकती है।
हुआ भी वही। प्रवासी मजदूर जालना से भुसावल स्टेशन के लिए यह सोच कर निकले थे कि वहां से ट्रेन मिल जाएगी और वे मप्र में शहडोल-उमरिया जिलों में अपने घरों को पहुंच जाएंगे। लेकिन रेल पटरी पर उनका यह पड़ाव जिंदगी का आखिरी पड़ाव साबित हुआ। इस बारे में रेलवे का कहना है कि तड़के निकली मालगाड़ी के ड्राइवर ने पटरी पर लेटे मजदूरों को देखकर ब्रेक भी लगाया, लेकिन ट्रेन का ब्रेक कोई स्कूटर का ब्रेक नहीं होता। जब तक गाड़ी रुकती, तब तक 16 जिंदगियों का सफर खत्म हो चुका था।
एक और सवाल यह कि आखिर इस दर्दनाक हादसे के लिए जिम्मेदार कौन है? वो मजदूर, जो जीने की आस में पैदल ही पटरी-पटरी घरों को चल पड़े थे? वो व्यवस्था, जिसमें मजदूरों का दर्द प्राथमिकता में शायद सबसे नीचे है? वो सरकारें, जिनकी संवदेनशीलता अव्वल तो जागी ही नहीं या फिर बहुत देर से जागी? और जब जागी तब कई जीवन अर्थी में तब्दील हो चुके थे।
इस देश में प्रवासी मजदूर और खासकर असंगठित क्षेत्र के प्रवासी मजदूरों की तादाद करीब 50 करोड़ है, जो हर साल रोजगार की तलाश में देश के एक कोने से दूसरे कोने में जाते हैं। चूंकि ये दूसरे प्रदेशों में ‘बाहरी’ होते हैं, इसलिए ज्यादातर के नाम स्थानीय मतदाता सूची में नहीं होते। इस कारण से राजनीतिक दल भी इनकी चिंता नहीं करते। जहां के ये वोटर होते हैं, वहां वोट देने के लिए जाना इनके लिए आसान नहीं होता। कुलमिलाकर न सरकार, न स्थानीय प्रशासन, न राजनीतिक दल और न स्थानीय सामाजिक संगठनों के लिए इन प्रवासी मजदूरों का कोई महत्व होता है।
कीड़े मकोड़ों की माफिक जीने वाले ये प्रवासी मजदूर किसी आर्थिक प्लानिंग का अनिवार्य हिस्सा भी नहीं होते। विकास के यज्ञ में ये प्रवासी मजदूर उस अनाम आहुति की तरह होते हैं, जिसमें केवल ‘स्वाहा’ शब्द ही साफ सुनाई देता है। इसीलिए जब लॉक डाउन में भी शायद ही किसी ने गंभीरता से सोचा कि आखिर इन करोड़ों प्रवासी मजदूरों का क्या होगा? केवल उम्मीद के भरोसे वो दो महिने कैसे काटेगें?
मुमकिन है कि लॉक डाउन के पहले एक हफ्ता इन्हें लौटने की मोहलत मिल जाती तो शायद वैसी अफरातफरी न मचती, जो अब देखने को मिल रही है। क्योंकि तब आवागमन के साधन तो होते, अब वो भी बंद हैं। मप्र के एक जिम्मेदार वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार आलम यह है कि गुजरात व अन्य पड़ोसी राज्यों के प्रवासी मजदूर अवैध तरीके से गाडि़यों में भरकर आ रहे हैं। बदले में उनसे तीन-तीन हजार रुपए तक वसूले जा रहे हैं। यह मजबूरी का खुला ब्लैकमेल है। हम चाह कर भी उसे पूरी तरह नहीं रोक पा रहे हैं।
दरअसल प्रवासी मजदूरों की हकीकत दो पाटों के बीच पिसते गेहूं की तरह है। वो न घर के हैं न घाट के। उनके प्रति सरकारों के भेदभाव की इबारत इसी स्लेट पर पढ़ी जा सकती है कि जहां विदेशों में फंसे भारतीय मजदूरों को विमानों और जहाजों से वापस लाने के लिए ‘वंदे मातरम्’ योजना है, वहीं स्वदेश में फंसे देशी प्रवासी मजदूरों के लिए ट्रेनें और बसें भी रो-रोकर चलाई जा रही हैं। कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों में सरकारों पर कारोबारियों का इतना दबाव है कि वो प्रवासी मजदूरो को हिलने भी नहीं देना चाहतीं।
कोरोना और लॉक डाउन के दंश ने इस कड़वी और विदारक सच्चाई को बेनकाब कर दिया है। ये बदनसीब प्रवासी मजदूर वंदन करें भी तो किस माता का?
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टीम मध्यमत