अजय बोकिल

कोरोना वायरस के साथ भारत ‍सहित दुनिया के ज्यादातर देशों में अब ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर पैर पसार रहा है। अपने देश में निजी कंपनियों ने तो इसे स्वीकार कर ही लिया था, अब सरकारी कर्मचारियों से भी कहा जा रहा है कि जो दफ्तर नहीं आ रहे हैं, वो घर से ही काम करें। हालांकि सरकारी तंत्र में इसका निश्चित रूप से क्या मतलब है, कहना मुश्किल है, क्योंकि वहां ‘वर्क इन ऑफिस’ ही ठीक से नहीं होता। कुछ लोगों का मानना है कि यह कॉरपोरेट संस्कृति का नया ‘शोषणास्त्र’ है, जिसका शिकार इस सदी में अधिकांश लोग होने वाले हैं।

‘वर्क फ्रॉम होम’ कनसेप्ट के साथ ही ‘ऑफिस कल्चर’ के पारंपरिक आग्रह भी ध्वस्त होने शुरू हो गए हैं। क्योंकि लोग घरों से काम तो कर रहे हैं, लेकिन बेतकल्लुफ और बदहवास अंदाज में। अंग्रेजी में इसे ‘कैजुअल वर्किंग’ भी कहते हैं। यानी ऐसा कल्चर‍ जिसमें काम का तनाव तो है, लेकिन काम को करने की कोई निश्चित तहजीब या शैली का आग्रह नहीं है। कोरोना काल में अमेरिका में हुए एक ताजा सर्वे में कुछ दिलचस्प बातें ‘वर्क फ्रॉम होम’ को लेकर सामने आई हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि 21 वीं सदी में दुनिया फिर 17 वीं सदी के उस दौर में लौट रही है, जब आजकल जैसा ऑफिस कनसेप्ट, अनुशासन और नियम कायदे नहीं हुआ करते थे।

भारत में ‘वर्क फ्रॉम होम’ तुलनात्मक रूप से नया भले हो, लेकिन इसके फायदे और नुकसान भी सामने आने लगे हैं। यहां बुनियादी सवाल यह है कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ कार्य स्थल पर काम करने की पारंपरिक संस्कृति से बेहतर, सुविधाजनक और नवाचारी है या नहीं? नवाचारी इसलिए क्योंकि इसमें न तो ‍कोई विशिष्ट कार्यालय की जरूरत है। न ही ज्यादा कर्मचारी, स्थान और ऑफिस तामझाम की जरूरत है।

दरअसल यह ऑफिस की ओर से दिया गया टारगेटेड काम है, जो आप अपने घर से करते हैं। सब ऑन लाइन। कहीं जाने की जरूरत नहीं। आप भले, आप का लैपटॉप और नेट भला। इस ढर्रे में काम करने वालों को न तो चाय पीने के नाम पर बार बार दफ्तर से तड़ी मारने की जरूरत है और न ही कई दफा बॉस के चैम्बर में जाने की गरज है। टीसीएस जैसी नामी आईटी कंपनी ने तो 75 फीसदी स्टाफ को पांच साल तक वर्क फ्रॉम होम के लिए कह दिया है।

लेकिन इसी ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कारण कई सामाजिक- पारिवारिक तनाव और मजबूरियां भी जन्म ले रही हैं। अमेरिकी सर्वे में यह बात सामने आई कि चूं‍कि घर में कोई देखने-टोकने वाला नहीं होता, इसलिए लोग बेहद घरू और बेझिझक अंदाज में काम कर रहे हैं। ऑफिस कल्चर की उनकी पुरानी आदतों को भी कोरोना डकार रहा है। मसलन अच्छे व्यवस्थित कपड़े पहन कर दफ्तर आना, अभिवादन करना, कस्टमर से शालीन और विनम्र व्यवहार जैसी बातें ‘वर्क फ्रॉम होम’ में आउटडेटेड-सी होंगी।

लंदन स्थित इंटरनेशनल रिसर्च डाटा एंड एनालिटिक्स संस्था यूजीवीओ के ऑन लाइन सर्वे किया में 1327 वयस्क (18 की उम्र से अधिक) अमेरिकी शामिल हुए। सर्वे के अनुसार अमेरिका में वर्क फ्रॉम होम के दौरान 47 फीसदी कर्मचारी बिना पैंट यानी शॉर्ट्स (चड्डी) में ही काम करना पसंद करते हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान 48 प्रतिशत पुरुष अपने बाल भी नहीं संवारते। कई तो अपना मुंह भी नहीं धोते। महिला कर्मचारी की तुलना में 3 गुना पुरुष बिना पैंट, मोजे अथवा जूते के ही (कौन देखता है) घर से काम कर रहे हैं।

घर से एंकरिंग करने वाली एक टीवी चैनल की रिपोर्टर बिना पैंट पहने ही अपना काम करती पाई गई। इसी के बाद अमेरिका सहित पूरी दुनिया में बहस छिड़ गई कि ‘वर्क फ्रॉम होम’ करने का मतलब क्या ‘नॉन फॉर्मल’ हो जाना है? क्या वो ऐसा खुशी-खुशी कर रहे हैं या मजबूरी में उन्हें यह करना पड़ रहा है या फिर इसमें भी कोई मौन बगावत है? सर्वे के दौरान कई ने माना कि वो ठीक से ब्रश भी नहीं करते हैं तो कुछ का कहना था कि वो ‘वर्क फ्रॉम होम’ के दौरान पायजामा पहनना ज्यादा पसंद करते हैं।

और तो और दफ्तरों में हर घंटे अपना मेकअप ठीक करने वाली महिलाएं ‘वर्क फ्रॉम होम’ भी नॉन फार्मल अंदाज में ही करती हैं। अर्थात ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर ऑफिस संस्कृति के पुराने आग्रह और दबावों को खारिज करता है। भारत के संदर्भ में कहें तो यह लुंगी पहन कर लैपटॉप में उतराते रहने वाला कल्चर है। हो सकता है कई लोग इस सर्वे को सही नहीं मानें। लेकिन बहुत सी निजी कंपनियों का मानना है कि लॉक डाउन खत्म होते ही भारत में ऑन लाइन काम में तेजी आएगी। लोग ‘वर्क फ्रॉम होम’ करना ज्यादा पसंद करेंगे, बनिस्बत दफ्तरों में जाकर काम करने के।

क्या सचमुच ऐसा ही होगा, यह अभी दावे से कहना मुश्किल है। लेकिन उसकी आहट साफ दिखाई पड़ने लगी है। सोशल डिस्टेंसिंग के चलते दफ्तरों में संलग बैठने, एक-दूसरे के करीब आकर बतियाने, कानाफूसी, और चुहलबाजी करने आदि पर अंकुश लगेगा। कार्य के तनाव के बीच अविश्वास की अदृश्य काली छाया सदा मंडराती रहेगी। घरेलू माहौल में इससे बचा जा सकेगा।

अब बात 17 वीं सदी में लौटने की तो यह जानना वाकई दिलचस्प है कि कार्यस्थलों ने आधुनिक दफ्तरों का रूप कब लिया, कैसे लिया? दरअसल मॉडर्न ऑफिस या ब्यूरो की परिकल्पना सत्रहवीं सदी में सामने आई। इसके पहले भी राजा-महाराजाओं, जमींदारों तथा सेठों के पास कुछ कारकून हुआ करते थे, जो हिसाब किताब का काम देखते थे। लेकिन तयशुदा घंटों तक काम, नियमित छुट्टियां, हर माह पगार, कर्मचारियों के अधिकार व सु‍विधाएं, बाकायदा टेबल कुर्सी लगाकर काम करना, ये तमाम बातें बीते दो सौ साल की हैं।

आज की मल्टीनेशनल कॉरपोरेट कंपनियों की पूर्वज भारत में उस ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को माना जा सकता है, जिसने करीब ढाई सौ साल तक भारत में व्यापार करते-करते, छल-बल से भारत पर ही कब्जा कर लिया था। उस कंपनी के बाबू ‘राइटर’ कहलाते थे। कंपनी की अपनी बड़ी नियमित फौज भी थी। तब संचार के सीमित साधनों के बावजूद कंपनी लंदन से संचालित होती थी और पूरी दुनिया में उसका दबदबा था।

उसी कंपनी के राज में नए जमाने के टेबल-कुर्सी वाले ऑफिस कल्चर, स्कूल कल्चर, कोर्ट कल्चर और ब्यूरोक्रेट कल्चर की भी शुरुआत हुई। हर काम को एक संगठनात्मक तरीके से करने का चरित्र विकसित हुआ। जिसने बीसवीं सदी तक आते-आते बिल्कुल नया रूप से ले लिया। लेकिन लगता है आज ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर में ‘बांस उल्टे बरेली’ जाने के मूड में हैं। यह नया कनसेप्ट ऑफिस कल्चर की आौपचारिकताएं, सब कुछ चाक-चौबंद दिखने, स्मार्ट वर्किंग और तहजीब के तकाजों को अलविदा कह सकता है। यानी पैंट की जगह हाफ पैंट और धोती की जगह लंगोट से ही काम चलाने और उसे ही कम्फर्टेबल मानने की सोच हावी हो सकती है।

और क्यों न हो, दिया काम कर दिया। बाकी से कंपनी को क्या लेना-देना? क्यों हर वक्त फौजी चुस्ती की मुद्रा में रहा और दिखा जाए? दरअसल अब ‘ऑफिस’ शब्द की ही वो परिभाषा बदलनी पड़ेगी कि जहां एक निश्चित एरिया हो, जहां कुछ लोग एक तय अनुशासन में नि‍श्चित प्रतिबद्धता के साथ काम करते हैं, लोगों से डील करते हैं। ‘वर्क फ्रॉम होम’ में निजता का स्पेस ज्यादा है, लेकिन शोषण की गुंजाइश भी बहुत ज्यादा है। इस कल्चर में ‘घर और दफ्तर’ की लक्ष्मण रेखा पूरी तरह धुल गई है। न काम के घंटे तय हैं और न ही काम का आकार तय है।

कई जगह तो काम पर काम टिकाए जाते हैं और कर्मचारी कुछ कर नहीं सकता। ऊपर से ताना यह कि ‘आप घर पर ही तो हैं।‘ यानी ‘वर्क फ्रॉम होम’ ने आपके निजी स्पेस पर तो डाका डाला ही है तो दूसरे के निजी स्पेस को भी हड़पने की पुरजोर कोशिश है। इससे परिवारों में नए टेंशन और भय पैदा हो रहे हैं। दाढ़ी न बनाना, लुंगी लपेटकर वर्क टास्क पूरा करने की बदहवासी और परिजनों तक सिमटी सामाजिकता उन नई चुनौतियों को जन्म दे रही है, जिन पर अलग से गहन विचार की जरूरत पड़ेगी।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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