कोरोना-काल में गांधीजी पर आई एक गलत खबर

अरुण कुमार त्रिपाठी

सन 1918 में महात्मा गांधी बहुत बीमार थे। मरते मरते बचे थे। ऐसा उनके जीवन में कई बार हुआ था। लेकिन आम धारणा के विपरीत उन्हें पूरी दुनिया में विश्व युद्ध से ज्यादा तबाही मचाने वाली फ्लू की महामारी ने नहीं पकड़ा था। कुछ पत्रकारों और शोधकर्ताओं ने इस घटना को प्रथम विश्व युद्ध से जुड़े `स्पानी फ्लू’ से जोड़ कर देखा है। उस पर लंबे लंबे लेख लिख डाले हैं। गूगल करेंगे तो इस तरह के कम से कम आधा दर्जन लेख मिल जाएंगे। भारत के तमाम अंग्रेजी और हिंदी अखबार इस तरह के लेखों से भरे पड़े हैं। ऐसे अखबारों में मिंट, इकानॉमिक टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया और अमर उजाला जैसे अखबार शामिल हैं।

अच्छा हुआ इस मामले को महात्मा गांधी के पोते और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे गोपाल कृष्ण गांधी ने रविवार को ‘द टेलीग्राफ’ में लिखे लेख में स्पष्ट कर दिया है। गोपाल कृष्ण गांधी ने लिखा है कि इस बीमारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लिया था और इस बीमारी से महात्मा गांधी के बड़े बेटे हरिलाल की पत्नी गुलाब या चंचल और उनका बड़ा बेटा शांति गुजर गए थे। वे गुजरात के पथराडा गांव गए थे और वहीं उन्हें इस बीमारी का प्रकोप हुआ और उनकी मौत हो गई। बाद में हरिलाल के अनाथ बच्चों यानी अपने पोतों पोतियों को कस्तूरबा गांधी साबरमती आश्रम ले आईं और उन्होंने उनका पालन किया।

गोपाल कृष्ण गांधी लिखते हैं कि इस साल गांधी गंभीर रूप से बीमार हुए थे लेकिन उन्हें ‘स्पानी फ्लू’ नहीं हुआ था। यह बात जरूर है कि गांधी के मित्र और सहयोगी खान अब्दुल गफ्फार खान के बेटे गनी को यह बीमारी हुई थी। रोचक तथ्य यह है कि खान साहेब यानी सीमांत गांधी की पत्नी मेहर कंद ने अल्लाह से दुआ की कि यह बीमारी उन्हें हो जाए और उनका बेटा ठीक हो जाए। संयोग देखिए कि बेटा ठीक हो गया और उस बीमारी से मेहर कंद मर गईं। बाद में गनी रवींद्र नाथ टैगोर के विश्वविद्यालय शांति निकेतन गए और एक कलाकार और कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

पर सवाल यह है कि आखिर गांधी को 1918 में क्या हुआ था जिसे तमाम शोधकर्ताओं ने समझ लिया कि उन्हें ‘स्पानी फ्लू’ हो गया था और वे उससे बच गए। दिलचस्प बात यह है कि कुछ प्रतिष्ठित अखबारों ने तो यहां तक लिखा है कि यह इन्फुलेंजा साबरमती आश्रम में जोरदार तरीके से फैला था और इसकी चपेट में महात्मा गांधी ही नहीं उनके साथी चार्ल्स एंड्रयूज और शंकरलाल पारीख भी आए थे।

कई पत्रकारों ने यहां तक लिखा है कि गांधी इस बीमारी में डाक्टरों की दवा लेने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने किसी की सलाह नहीं मानी और वे अपनी प्राकृतिक चिकित्सा के आधार पर ठीक हो गए। कुछ अखबारों ने लिखा है कि डाक्टरों ने उन्हें दूध पीने की सलाह दी लेकिन वे तैयार नहीं हुए। बाद में कस्तूरबा के समझाने पर वे बकरी का दूध पीने को राजी हुए।

दरअसल कई लेखकों और पत्रकारों की ओर से इन्‍फ्लूएंजा के बहाने लिखी गई इस कथा का आधा हिस्सा सही है लेकिन आधा हिस्सा स्टोरी को चर्चित बनाने के लिए या तो गलतफहमी में या आधे अधूरे शोध पर आधारित है। गांधी बीमार हुए थे लेकिन उन्हें इन्‍फ्लूएंजा नहीं हुआ था। गांधी इतना ज्यादा बीमार थे कि वे मौत से बचे थे लेकिन वह बीमारी पेचिस की थी न कि फ्लू की। इस दौरान गांधी के पत्रों और बीमारी की खबरों को बहुत सारे शोधकर्ताओं ने फ्लू समझ लिया।

ऐतिहासिक तथ्य कहते हैं कि गांधी पटेल के साथ खेड़ा सत्याग्रह में सक्रिय थे। वे नादियाड़ की किसी मीटिंग में थे और वहीं 11 अगस्त को उन्हें पेचिस हो गई। इस पूरे प्रसंग का जिक्र गांधी ने अपनी आत्मकथा में ‘मौत के द्वार’ शीर्षक से विस्तार से किया है। उन्होंने अलग अलग पत्रों में इसका उल्लेख भी किया है। गांधी ने लिखा है कि जब उनकी हालत बिगड़ने लगी तो अहमदाबाद के सेठ अंबालाल अपनी पत्नी के साथ आए और उन्हें अपने मिर्जापुर वाले बंगले पर ले गए। उन्होंने उनकी बड़ी सेवा की। बाद में उन्हें जिद करने पर साबरमती आश्रम लाया गया। वहां उन्होंने ज्यादातर डाक्टरों की सलाह मानने से इनकार कर दिया और किसी की दवा नहीं ली। लेकिन डॉ. तलवलकर नामक एक डाक्टर के नुस्खे उन्हें बेहद पसंद आए और उन्होंने शरीर पर बर्फ मलने की उनकी सलाह मानी।

गांधी जब साबरमती आश्रम में लाए गए और बिस्तर पर पड़े बहुत बुरी अवस्था में आराम कर रहे थे तभी सरदार वल्लभभाई पटेल खबर लाए कि जर्मनी विश्वयुद्ध में पूरी तरह हार गया है। इसलिए सैनिकों की भरती का अभियान चलाने की जरूरत नहीं है। गांधी अंग्रेजों के लिए भरती का अभियान चला रहे थे और इसी के साथ सौदेबाजी करके उन्होंने सूखाग्रस्त किसानों की लगान माफ कराई थी। गांधी ने अपनी बीमारी में डॉ. तलवलकर की बात तो मानी लेकिन दूध और अंडा खाने की उनकी सलाह नहीं मानी।

गांधी ने 17 अगस्त 1918 को कई पत्र लिखे हैं और इसमें बीमारी की भयानक स्थिति और उससे उबरने का जिक्र है। एक पत्र मित्र हैंडरसन को है। उन्होंने लिखा है- ‘’प्रिय हैंडरसन इस समय मैं बिस्तर पर पड़ा हूं। मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी बीमारी से गुजर रहा हूं। इसीलिए आपके पत्र का जवाब देने में असमर्थ रहा।‘’ दूसरा पत्र दक्षिण भारत गए अपने बेटे देवदास को लिखा है। उसमें उन्होंने कहा है- ‘’आज तबियत बहुत अच्छी मानी जा सकती है। अभी खटिया पर तो रहना ही पड़ेगा। कष्ट बहुत भोगा है और कसूर सिर्फ मेरा ही था।…इतने घोर कष्ट में भी मैंने अपनी आत्मा की शांति एक पल भी खोई हो ऐसा नहीं कहा जा सकता।‘’

एक पत्र होमरूल लीग के प्रमुख सदस्य जमनालाल द्वारकादास को है। उसमें कहा गया है- ‘’पत्र दूसरे से लिखवा रहा हूं। अब मैं बिस्तर में पड़ा हूं। मेरे स्वास्थ्य में निस्संदेह सुधार हो रहा है इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है।‘’ मनसुखलाल राव जी को पत्र लिखा- ‘’मैं तो इस समय भारी बीमारी से घिरा हुआ हूं और बिस्तर में पड़ा हूं। इस बात की प्रतीति होने पर कि रोग मेरी मूर्खता के कारण हुआ है मैं कम कष्ट का अनुभव कर रहा हूं।‘’

गांधी ने इस पेचिस के बारे में स्वीकार किया है कि वे मूंगफली का मक्खन और नीबू सेवन करते थे। उपवास के बाद उन्होंने कस्तूरबा के आग्रह पर त्योहार का भारी भोजन किया और शायद इसी कारण उनकी तबियत बिगड़ी। इसी बीमारी को शोधकर्ताओं ने ‘स्पानी फ्लू’ से जोड़ लिया और इस साल की महामारी और 102 साल पहले के ग्रेट इन्‍फ्लूएंजा से जोड़कर एक रोचक कहानी लिख डाली।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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