कौन-सा अन्याय बड़ा? वेतन कटने का या पेट कटने का?

अजय बोकिल

कोरोना वायरस के खिलाफ जारी देशव्यापी लड़ाई के बीच केन्द्र और कुछ राज्य सरकारों द्वारा अपने कर्मचारियों के वेतन भत्तों में कटौती के फैसलों के खिलाफ आवाज उठने लगी हैं। विपक्षी कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इसे गलत फैसला बताया है तो कुछ लोग इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गए हैं। फैसले के मुखालि‍फ लोगों का कहना है कि शासकीय कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में यह कटौती अथवा उन्हें फ्रीज करना अमानवीय है। खासकर तब, जब कोरोना युद्ध में सरकारी कर्मचारी ही सबसे ज्यादा अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं।

सरकारों के फैसले को सही मानने वालों का कहना है कि इस कठिन आर्थिक समय में शासकीय कर्मचारियों को भी थोड़ा त्याग करना चाहिए। उन्हें केवल अपनी सुख सुविधा के बजाए देश के उन करोड़ों लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए, जो कोरोना के कारण काम धंधा गंवाकर या तो सड़क पर आ गए हैं या फिर आने की कगार पर हैं।

मोदी सरकार और कुछ राज्य सरकारों का यह फैसला बेशक कठोर तो है ही, गहरी बहस की भी मांग करता है। क्योंकि देश में ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि केन्द्र सरकार ने अपने सभी कर्मचारियों और पेंशनरों का महंगाई भत्ता करीब एक साल के लिए फ्रीज कर दिया हो। 2008 में आर्थिक मंदी के दौर में भी ऐसा नहीं हुआ था। आज लंबे लॉक लॉक डाउन के चलते देश में आर्थिक गतिविधियां लगभग ठप हैं। सरकारों पर खर्च का दबाव ज्यादा है। आय तकरीबन शून्य तक पहुंच गई है।

संभवत: इसी के मद्देनजर केन्द्र की मोदी सरकार ने फैसला किया कि वह 1 जनवरी 2020 से 1 जुलाई 2021 के बीच महंगाई भत्ते (डीए) की दर नहीं बढ़ाएगी। अर्थात डीए 17 फीसदी की दर से ही दिया जाता रहेगा। साथ ही 1 जुलाई 2021 को किए जाने वाले संशोधन के समय भी डेढ़ साल की इस अवधि के बकाया का भुगतान नहीं किया जाएगा। यह निर्णय पेंशनरों पर भी लागू होगा।

इसके पहले देश में कुछ राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती की घोषणा कर चुकी थीं। उदाहरण के लिए उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने अपने 16 लाख कर्मचारियों और 11 लाख पेंशनरों के महंगाई भत्ता, महंगाई राहत एवं अन्य 6 तरह के भत्तों पर 31 मार्च 2021 तक के लिए रोक लगा दी है। इससे सरकार को करीब 10 हजार करोड़ रुपये बचने की उम्मीद है। केरल की वामपंथी सरकार ने अपने कर्मचारियों के वेतन से मई से सितंबर तक प्रति माह 6 दिन की वेतन कटौती का फैसला किया। हालांकि कम वेतन पाने वालों को इससे अलग रखा गया है।

तेलंगाना पहला राज्य था, जहां मुख्यमंत्री चंद्रशेखर ने प्रदेश में तैनात आईएएस अफसरों के वेतन में क्रमश:60, अन्य श्रेणियों में 50 तथा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के वेतन से 10 फीसदी कटौती का ऐलान‍ किया। फिर महाराष्ट्र ने भी अपने कर्मचारियों के वेतन से 60 फीसदी कटौती करने तथा इसका भुगतान बाद में करने का निर्णय लिया, इसमें कांग्रेस की भी सहमति है। कुछ ऐसे ही फैसले पंजाब, ओडिशा व आंध्रप्रदेश सरकारों ने भी किए हैं।

मध्यप्रदेश ने भी डीए भुगतान पर आंशिक रोक लगाई है। अब कर्नाटक भी वेतन में 20 फीसदी कटौती पर गंभीरता से विचार कर रहा है। अलबत्ता हरियाणा ऐसा राज्य है, जिसने कोरोना लड़ाई में जूझ रहे सरकारी कर्मचारियों को डबल वेतन देने का ऐलान किया है।

कर्मचारी संगठनों ने विभिन्न सरकारों के कटौती फैसलों का अभी खुलकर विरोध नहीं किया है। लेकिन पेंशनर इसके खिलाफ कोर्ट पहुंच गए हैं। हिमाचल प्रदेश के रिटायर्ड मेजर और कैंसर मरीज ओंकार सिंह गुलेरिया ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा कि सरकार का यह फैसला ‘मनमाना’ है। इससे लाखों पेंशनर प्रभावित होंगे। कोरोना समय में इससे कर्मचारियों को ‘अपूरणीय’ क्षति हो सकती है।

मोदी सरकार के इस फैसले पर कांग्रेस भड़क गई। पार्टी के सांसद राहुल गांधी ने फैसले को ‘अमानवीय’ और ‘असंवेदनशील’ बताते हुए कहा कि इसके बजाए सरकार सेंट्रल विस्टा और बुलेट ट्रेन जैसी परियोजनाओं को रद्द करे। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि मुश्किल समय में भी ऐसा फैसला अनुचित है। उधर अ.भा. सेवाओं के अफसरों में इस फैसले से भारी असंतोष है। उनका सवाल है कि सरकार ऐसे कितने पैसे बचा लेगी?

यह बात भी सामने आ रही है कि काटी गई धनराशि पीएम केयर्स फंड में जमा की जाएगी। ज्वाइंट कंसल्टेशन मशीनरी फॉर सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाई के सचिव शिव गोपाल मिश्रा ने कहा कि देश का हर सरकारी कर्मचारी आज कोरोना लड़ाई में अपना योगदान दे रहा है। ऐसे में केंद्र सरकार को अपने कर्मियों के वेतन-भत्तों पर कैंची चलाने से पहले उन्हें विश्वास में लेना चाहिए था। वैसे भी कर्मचारी अपने एक दिन का वेतन पीएम केयर्स फंड में दे ही रहे हैं।

जहां तक कर्मचारी संगठनो से चर्चा की बात है तो प्रधानमंत्री मोदी की वह कार्यशैली ही नहीं है। उनके फैसले कई बार उनके अपने मंत्रियों तक को पता नहीं होते, कर्मचारी दूर की बात है। मोदी फैसले लेने के बाद दूसरों की राय जानने की कोशिश करते हैं। इससे कई बार विवाद भी खड़े होते हैं। जहां तक इस फैसले के औचित्य का प्रश्न है तो पहले ही आर्थिक संकट से जूझ रही सरकार की कोरोना ने चूलें हिला दी हैं। ऐसे में सरकार के पास अपने बटुए की चेन तंग करने के अलावा ज्यादा विकल्प नहीं हैं।

आज केन्द्र सरकार के करीब डेढ़ करोड़ कर्मचारी और पेंशनर्स हैं। सरकार डीए का भुगतान रोकेगी तो उसके करीब 10 हजार करोड़ बचेंगे। तीन साल पहले केन्द्र सरकार की एक विशेष अध्ययन समिति ने अपनी ‍रिपोर्ट में कहा था कि देश की कुल सालाना जीडीपी का 8 फीसदी केवल सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों पर खर्च होता है। यह राशि करीब 10.18 खरब होती है। दूसरे, केन्द्र सरकार जैसे ही महंगाई भत्ते की बढ़ी हुई किस्त की घोषणा करती है, बाकी राज्यों पर भी ऐसा ही करने का दबाव बढ़ जाता है।

यह सही है कि कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट से निपटने केन्द्र और राज्यों के कुछ विभागों के कर्मचारी जी जान एक किए दे रहे हैं। इनमें मेडिकल, पुलिस और स्थानीय संस्थाओं के कर्मचारी प्रमुख हैं। ऐसे में उन्हें पुरस्कार के बजाए वेतन कटौती का ‘तोहफा’ देना सरासर अन्याय है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है ‍कि सरकारी कर्मचारियों की तो वेतन भत्तों में ही कटौती और वह भी अस्थायी तौर पर की जा रही है। अमूमन चुनावों के पहले तो सरकारें ये बकाया भुगतान भी कर ही देंगी। लेकिन कर्मचारियों की नौकरियां तो सुरक्षित हैं। उनके घरों का चूल्हा तो नहीं बुझेगा।

इसके विपरीत निजी क्षेत्र में संगठित और असंगठित क्षेत्रों की स्थिति इससे कई गुना भयावह है। लॉक डाउन ने कितने लोगों की नौकरियां छीन ली हैं, इसका सही अंदाज अभी किसी को नहीं है। आज लाखों घरों में एक जून की रोटी भी खाने को नहीं है। जैसे ही लॉक डाउन का ढक्कन खुलेगा, बेकारी और भूख का डरावना आईना हमारे सामने होगा। कहने को सरकारों ने गरीबों, छोटे मोटे काम और कारोबार करने वालों को अनाज जरूर बांटा है, लेकिन बाकी सामान खरीदने के लिए ज्यादातर के पास फूटी कौड़ी भी नहीं है।

ये ऐसे अनाम ‘वॉरियर्स’ हैं, जो कोरोना के साथ भूख से भी आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं। देश भर में सरकारी, अर्द्ध सरकारी कर्मचारियों की कुल संख्या करीब 5.50 करोड़ है। इसमें निजी क्षेत्र के संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को भी मिला लें तो यह संख्या करीब 7 करोड़ होती है। बाकी सारा रोजगार और मजदूरी असंगठित क्षे‍त्र में ही है, जिनकी तादाद वास्तव में कितनी है, इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह संख्या सरकारी या निश्चित वेतन पाने वाले कर्मचारियों की तादाद का कम से कम पांच गुना है।

इनके पुनर्वास के बारे में क्‍या कोई सोच रहा है? क्योंकि लॉक डाउन ने इनका तो सब कुछ छीन लिया है। इस ‘जबरिया त्याग’ को आप क्या कहेंगे? सवाल सिर्फ इतना है कि बेहतर वेतन-भत्ते पाने वाले सरकारी कर्मचारियों की कुछ समय के लिए वेतन कटौती ज्यादा ‘असंवेदनशील’ है या फिर उन करोड़ों लोगों का पेट हाथ पर लेकर सड़क पर आ जाना ज्यादा ‘अमानवीय’ है, जिनके जिंदा रहने का गारंटर भी कोई नहीं है। लॉक डाउन खुलने के बाद ये सब सड़कों पर उतर आए तो? जरा सोचें!

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here