पुष्यमित्र
आपने मनु स्मृति का नाम खूब सुना होगा। मगर बहुत कम लोगों को याज्ञवल्क्य स्मृति के बारे में पता होगा। वैसे तो हिन्दू धर्म में न्याय और सामाजिक व्यवहार पर केंद्रित 18 से अधिक स्मृतियां रची गयी हैं। मगर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत का संविधान बनने से पहले तक हिंदुओं के लिये न्याय की सबसे प्रचलित पुस्तिका ‘याज्ञवल्क्य संहिता’ ही थी, मनु संहिता नहीं। कम से कम पिछले 1000 सालों से यह रिकॉर्डेड हिस्ट्री है कि ज्यादातर हिन्दू राजा, मुग़ल शासक और बाद में अंग्रेज हिंदुओं के विवादों का फैसला इसी पुस्तक के नियमों के आधार पर करते रहे। इसे पूरे देश में इसलिये स्वीकार्यता मिली, क्योंकि यह मनु स्मृति की तुलना में अधिक लिबरल और अधिक व्यवस्थित थी। इसे खास तौर पर चालुक्यों के राज में इस पर रचे गए टीका पुस्तक मिताक्षरा और बंगाल में रचे गए पुस्तक दायभाग का सहारा मिला।
जैसा कि हम सब जानते हैं, याज्ञवल्क्य मिथिला के राजा जनक के दरबार के एक बड़े ऋषि थे। शुक्ल यजुर्वेद और शतपथ ब्राह्मण जैसे उपनिषदों के रचयिता के रूप में उनकी ख्याति रही है। अपनी पत्नी मैत्रेयी के साथ जो उनका संवाद है उसे काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। यह पुस्तक उन्हीं के नाम पर रचित है। मगर ज्यादातर इतिहासकार मानते हैं कि याज्ञवल्क्य स्मृति के लेखक वे खुद नहीं थे। बल्कि उनकी मृत्यु के अमूमन एक हजार साल बाद यह पुस्तक रची गयी है। मुमकिन है कि उनके अनुयायियों ने उनके सिद्धांतों के आधार पर यह पुस्तक लिखी हो। मगर जानकार इस बात को लेकर निश्चिंत हैं कि इसकी रचना मिथिला में हुई है।
बताया जाता है कि यह पुस्तक काफी व्यावहारिक है। इसमें राजाओं और ग्राम पंचायतों के लिये अलग अलग न्याय की व्यवस्थाएँ लिखी गयी हैं। इसमें मनु स्मृति समेत हिन्दू न्याय शास्त्र की विभिन्न पुस्तकों के उद्धरण शामिल किए गए हैं। इस पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी महिलाओं और दलितों के प्रति इसका सकारात्मक नजरिया माना जाता है। हालांकि आज के लिहाज से यह बहुत लिबरल नहीं है, मगर मनु स्मृति की तरह रेडिकल भी नहीं है। कई इतिहासकार मानते हैं कि बौद्ध धर्म की वजह से इस पुस्तक में यह सकारात्मकता आयी है।
बौद्ध धर्म तो नहीं, मगर जिस मिथिला में इस पुस्तक की रचना हुई है, वहां लम्बे समय से, महाभारत काल से भी पहले से, जैन सम्प्रदाय का असर रहा है। मल्लीनाथा जो अरिष्टनेमि से पहले जैन तीर्थंकर हुई थीं, मिथिला की ही थीं। उसके बाद नेमिनाथ और खुद वर्धमान महावीर का जन्म तत्कालीन मिथिला में हुआ। ऐसे में इनके विचारों का मिथिला पर प्रभाव स्वाभाविक था। इसके अलावा खुद मनु मिथिला के क्षेत्र को व्रात्य मानते थे, इस वजह से भी यह क्षेत्र वैदिक धर्म के कर्मकांडों के बदले आध्यात्मिक विचारों का पोषक बना।
याज्ञवल्क्य स्मृति के लिबरल विचारों पर आधारित होने की वजह से इसे भारतीय राजाओं ने न्याय सिद्धांत की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया और अपने राज्यों में इसके आधार पर न्याय की व्यवस्था की। चालुक्यों के राज में ग्यारहवीं सदी में विज्ञानेश्वर नमक न्यायाधीश ने इस पुस्तक पर एक टीका लिखी, जिसका नाम मिताक्षरा था और उसे उस वक़्त के विभिन्न राजाओं ने न्याय का आधार बनाया। लगभग उसी दौर में बंगाल में जीमूतवाहन ने इस पुस्तक पर एक और टीका लिखी जिसका नाम दायभाग था। ये दोनों पुस्तकें खूब प्रचलित हुईं। और उसके बाद से हिंदुओं के न्याय के लिये इन्हें ही आधार माना जाने लगा। मुग़लों ने भी इन दोनों पुस्तकों को हिंदुओं के लिये न्याय का आधार माना। बाद में अंग्रेजों ने भी इसे अपना लिया।
दसवीं सदी में मिथिला में वाचस्पति मिश्र नामक एक बड़े न्यायविद हुए जिन्होंने नव्य न्याय नाम दर्शन की शुरुआत की। पहले याज्ञवल्क्य स्मृति फिर नव्य न्याय सिद्धांत की वजह से मिथिला मध्य काल में न्याय के जानकारों की भूमि बन गया। यहां के न्याय शास्त्र के अध्येता देश के विभिन्न राज्यों में बुलाये जाने लगे। वे न्याय में राजाओं की मदद करते थे। मिथिला का आखिरी राजवंश जो खण्डवला राज वंश के नाम से जाना जाता है, के संस्थापक महेश ठाकुर भी ऐसे ही एक न्यायविद थे, वे मध्यप्रदेश के एक राज्य में न्याय की व्याख्या में मदद करते थे।
आजादी के वक़्त संविधान निर्माताओं ने भी इसी पुस्तक के कई सिद्धांतों को हिन्दू विवाह एवं उत्तराधिकार से जुड़े कानूनों का आधार बनाया, हालांकि इसमें जरूरत के हिसाब से काफी संशोधन किए गए। मगर इस पुस्तक का यह दुर्भाग्य रहा कि हजारों साल तक हिंदुओं के जीवन में शामिल रहने के बावजूद इसे अपेक्षित पहचान नहीं मिली। इसे हिंदुओं के साथ उस तरह नहीं जोड़ा जाता है, जैसे मनु स्मृति को जोड़ा जाता है। जबकि मनु स्मृति के सिद्धांतों को अमूमन हिंदुओं ने बहुत कम व्यवहार में लाया है।
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