अजय बोकिल
देश की सर्वोच्च अदालत ने फिलहाल तब्लीगी जमात के मीडिया कवरेज पर रोक लगाने पर इंकार कर दिया है। लेकिन इसी के साथ मीडिया में कोरोना और उससे जुड़े पहलुओं की प्रस्तुति, इसके पीछे की नीयत और उनका पत्रकारीय मूल्यों के अनुरूप होने अथवा न होने पर भी बहस छिड़ गई है। दूसरी तरफ कोरोना वायरस और उससे जुड़ी तमाम खबरों के मीडिया कवरेज पर वरिष्ठ पत्रकार ए.एस.पन्नीरसेल्वम ने तीखी टिप्पणी करते हुए इसे सूचनामहामारी (इन्फोडेमिक) करार दिया है। पन्नीरसेल्वम का कहना है कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी का कवरेज करते समय मीडिया को कुछ बुनियादी नैतिक मूल्यों का पालन अनिवार्य रूप से करना चाहिए, अन्यथा भारत जैसे बहुधर्मी देश में इसके कई अवांछित परिणाम हो सकते हैं।
देश के मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों) द्वारा तब्लीगी जमात और निजामुद्दीन के मरकज प्रकरण में जिस तरह का कवरेज किया जा रहा है, उससे मुस्लिम समाज नाराज है। इसी वजह से मुसलमानों के एक प्रमुख संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट में पिछले हफ्ते एक याचिका दायर की थी। इसमें अदालत से कहा गया था कि तब्लीगी जमात के मुद्दे पर मुसलमानों को बदनाम किया जा रहा है। मीडिया का एक वर्ग समाज में मुसलमानों को गलत तरीके से पेश कर रहा है।
याचिका में मांग की गई कि निजामुद्दीन स्थित तब्लीगी जमात मरकज मामले का साम्प्रदायीकरण रोकने के लिए कोर्ट आदेश जारी करे। लेकिन कोर्ट ने इस याचिका पर कोई अंतरिम निर्णय देने से इंकार कर दिया। उसने जमीयत से कहा कि वह इस मामले में भारतीय प्रेस परिषद को भी पक्षकार बनाए।
जहां तक जमात की बात है तो मरकज मामला सामने आने के बाद मीडिया के एक वर्ग और खासकर कुछ टीवी चैनलों ने तब्लीगी मरकज में शामिल जमातियों द्वारा कोरोना फैलाने और परोक्ष रूप से उन्हें ही देश में कोरोना के लिए जिम्मेदार ठहराने का अभियान छेड़ सा दिया है। हालांकि यह ऐसा एजेंडा है, जिसमें काफी हद तक सच्चाई भी है और जो एक सत्ताधारी पक्ष को सूट भी करता है। लेकिन कोरोना प्रकोप के बीच जमातियों का मरकज में इकट्ठा होना, कोरोना पॉजिटिव लोगों की जानकारी यथासंभव छुपाना, मरकज के कर्ताधर्ता का अभी भी अज्ञातवास में रहना, जमातियों द्वारा देश के कई हिस्सों में फैलकर कोरोना वाहक बनना, संदेही जमातियों को पकड़ने अथवा उनके इलाज के लिए गई मेडिकल टीमों तथा पुलिस के साथ दुर्व्यवहार जैसी कई घटनाएं देश ने देखी हैं और देख रहे हैं।
यह तर्क भी गले नहीं उतर रहा कि अगर कोई कोरोना पीडि़त है तो उसे छुपाने में धर्म की कौन सी सेवा है? अगर यही काम जमाती खुद सामने आकर करने लगें तो किसी को इसे मुद्दा बनाने का मौका ही न मिले।
लेकिन इन सबकी आड़ में संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को दोषी ठहराना भी पूरी तरह गलत है। क्योंकि सारे जमाती भले मुसलमान हों, लेकिन सारे मुसलमान जमाती नहीं हैं। उनमें भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है, जो लॉक डाउन का पालन कर रहे हैं और करवा भी रहे हैं। कुछ लोगों की महामूर्खता के लिए पूरे समुदाय को दोषी मान लेना अन्याय होगा। वैसे ही कि जैसे प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लॉक डाउन में कोरोना वारियर्स की हौसला अफजाई के लिए दीप जलाने के आव्हान पर कुछ मूढ़ हिंदुओं द्वारा हर्ष फायर करना और खुशी में पटाखे चलाना या फिर पंजाब में चंद सिरफिरे निहंगों द्वारा एक कर्तव्यनिष्ठ सिख पुलिस अधिकारी का सरेआम बेहरमी से हाथ काट देना है।
जहां तक जमातियों और लॉक डाउन में भी मस्जिद में सामूहिक नमाज पढ़ने की जिद की बात है तो ऐसे धर्मांध लोगों से भारत तो क्या पाकिस्तान सहित कई दूसरे मुस्लिम देश भी परेशान हैं।
लेकिन जमात की इस मांग कि मरकज और जमातियों से जुड़ी खबरें दिखाने पर रोक लगाई जाए, इसलिए उचित नहीं है कि मीडिया कोई अपनी तरफ से खबरें क्रिएट नहीं करता। ज्यादातर अखबार और चैनल वही लिख और दिखा रहे हैं, जो हो रहा है। आपत्ति प्रायोजित बहसों और केवल जमात को ही टीआरपी का आधार बनाने पर हो सकती है। लेकिन सिर्फ इसी बिना पर पूरे मीडिया का मुंह और आंखें बंद कर दी जाएं, मान्य नहीं है। याचिका लगाने के साथ जमात की तरफदारी करने वालों को भी सोचना होगा कि स्वहित और समाजहित की उनकी कल्पना बाकी देश से अलग क्यों है? वास्तविक ऐहिक जीवन पर सुखद पारलौकिक जीवन की कल्पना अथवा संदेश हावी होना कितना जायज है?
मनुष्य समाज में धर्म की बहुत अहम भूमिका है और रहेगी भी। लेकिन कोई भी आत्मघाती कृत्य धर्माचरण कैसे माना जा सकता है? उलटे जमातियों की हरकतों से उन्हीं ताकतों को टॉनिक मिल रहा है, जो देश के सीधे विभाजन में अपना फायदा देखती हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि संपूर्ण मीडिया पूरी तरह निष्पक्ष है। जमात ही क्यों, अन्य कुछ मामलों में भी उसकी भूमिका ‘मीडिया एथिक्स’ के अनुरूप नहीं रही है। हाल में प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ में जाने माने पत्रकार ए.एस. पन्नीरसेल्वम का कॉलम छपा है। जिसमें उन्होंने मीडिया के कोरोना कवरेज को ‘सूचनामहामारी’ (इन्फोडेमिक्स) की संज्ञा दी है। पन्नीरसेल्वम अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पत्रकार और मीडिया प्रोफेसर हैं। नियमित स्तम्भ लेखन के साथ वे एथिकल जर्नलिज्म नेटवर्क ‘पेनोस साउथ एशिया’ के प्रमुख भी हैं। यह संस्था समाज को सर्वसमावेशी, लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण बनाने की पक्षधर है।
अपने साप्ताहिक कॉलम ‘नोटबुक’ में पन्नीरसेल्वम ने मीडिया साक्षरता, उसकी समझ और व्यावहारिक जरूरत पर गंभीरता से चर्चा की है। उन्होंने मीडिया में कोरोना की कथित दवाई ‘हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन’ के कवरेज और प्रस्तुति का बारीकी से विश्लेषण किया है। उनके मुताबिक स्वस्थ पत्रकारिता से तात्पर्य उन मुद्दों का कड़ाई से परीक्षण है, जो प्रमाणों, शोध और अकादमिक समीक्षा पर आधारित हो और ऐसी भाषा में हो, जो आम लोगों की समझ आ सके।
पन्नीरसेल्वम ने हाल में हिंदू में ही छपी एक खबर ‘भारत ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन पर प्रतिबंध उठाया’ की समीक्षा करते हुए एक प्रबुद्ध पाठक की प्रतिक्रिया को कोट किया कि वास्तव में यह प्रतिबंध अमेरिकी राष्ट्रपति की धमकी के बाद उठाया गया था, लेकिन ‘धमकी’ की बात को मीडिया ने किसी दबाव में ‘अंडर प्ले’ किया। पन्नीर सेल्वम कहते हैं कि पाठक/दर्शक विश्वसनीय सूचना के महत्व को समझते हैं, इसलिए उसे सेंसर नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि पत्रकारिता दरअसल हमारे जनता के साथ अंतर्गुंथन (इंटरलॉकिंग) का ही प्रस्तुतिकरण है। बाद में इसी अखबार ने ‘हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन’ के दवा के रूप में इस्तेमाल पर संशय व्यक्त करने वाला लेख भी छापा। इससे पाठकों के मन में भ्रम पैदा हुआ।
वैसे ‘इन्फोडेमिक’ शब्द का पूर्व में प्रयोग विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित ‘हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन’ के दवा के रूप में उपयोग से सम्बन्धित शोध पत्र के संदर्भ में किया था, जो संगठन की राय में जल्दबाजी में लिखा और प्रकाशित किया गया था। इस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टिप्पणी की कि यह कोरोना महामारी के साथ ‘सूचनामहामारी’ भी है, जो अपुष्ट तथ्यों, केवल अनुमानित अथवा सुनी-सुनाई बातों के आधार भी प्रसारित कर दी जाती है। अर्थात वास्तविकता यही है कि भले अमेरिका सहित दुनिया के कई देश हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को कोरोना की दवा के रूप में हमसे मंगवा रहे हों, लेकिन यह कोरोना की रामबाण दवा है, इसका अभी तक कोई ठोस आधार नहीं है।
इसी स्थापना को अगर हम भारत में जमातियों के कवरेज के संदर्भ में देखें तो इसमें विवेकशीलता कम दिखाई देती है। मीडिया के एक वर्ग द्वारा बहुत चतुराई से यह पेश करने की कोशिश की गई है कि जमाती न होते तो कोरोना ही न होता। यकीनन जमाती इसे फैलाने में योगदान दे रहे हैं, लेकिन वे ही इसका एकमात्र कारण न तो हैं और न हो सकते हैं। यह फिरकाई गोलबंदी की बहुत महीन बुनाई है।
पन्नीरसेल्वम कहते है कि भारत जैसे देश में कोरोना की रिपोर्टिंग इसलिए भी ज्यादा चुनौती भरी है क्योंकि यहां इसके वैज्ञानिक, चिकित्सकीय और सामाजिक पक्ष के अलावा साम्प्रदायिक पक्ष को भी ध्यान में रखना जरूरी है। क्योंकि कोरोना वायरस ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की सावधानी को कब अवांछित ‘कम्युनल डिस्टेंसिंग’ में बदल दिया जाए, कहा नहीं जा सकता। यही नहीं जमात को केन्द्र में रखकर ऐसी तमाम गैरजरूरी सूचनाओं की चौतरफा मार शुरू कर दी गई कि मानो देश में या तो कोरोना है या फिर जमाती। बाकी सब गौण है। यही ‘सूचनामहामारी’ है, जो समाज के लिए कोरोना जितनी ही घातक है। मीडिया को इससे बचना होगा वरना उसकी रही सही साख भी रसातल में चली जाएगी।
रहा सवाल मीडिया पर कानूनी लगाम का तो इससे कोई भी सहमत नहीं हो सकता। गलतबयानी पर अंकुश अथवा उसकी समीक्षा स्वीकार्य है, लेकिन इसके लिए मुंह को ही लॉक डाउन कर दिया जाए यह न तो देशहित में है और न ही लोकतंत्र के हित में।
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