अजय बोकिल
विरोधाभासी लगने वाली दो खबरें लगभग एक साथ आईं। पहली, जन-धन खातों में महज 5 सौ रुपये डलने की खबर के बाद देश भर में गरीब महिलाओं का बैंकों में उमड़ना। दूसरी, देश में कोरोना प्रकोप के गमगीन माहौल में भी शेयर बाजार का उछलना। एक ही दिन में सेंसेक्स में 1 हजार 34 अंकों की तेजी। एक सामान्य नागरिक के नाते यह खबर हैरान करने वाली इसलिए थी कि जब देश में चारों तरफ से काम धंधे ठप होने की खबरें हैं, चौतरफा लॉक डाउन है, आशंका और अनिश्चितता का माहौल है, लोग कोरोना से लड़ने के साथ जिंदा रहने के लिए भी जूझ रहें हों तब स्टॉक मार्केट ऐसी कुलांचे भला कैसे भर सकता है? क्या शेयर बाजार की मनोदशा देश की मनोदशा से अलग होती है?
क्या मार्केट के सेंटीमेंट (मनोभाव), इसांनी सेंटीमेंट्स की तरह संचालित नहीं होते? क्या उसे मुल्क के करोड़ों बाशिदों की भावनाओं से नहीं जुड़ना चाहिए? जो खबर चमकी, वह कुछ वैसी ही थी कि घर में गरमी हो और कोई बंदा शानदार बर्थ डे पार्टी के सपने देख रहा हो। लेकिन जो हुआ या हो रहा है, वह हकीकत है। एकतरफ देश में कोरोना लॉक डाउन के चलते करोड़ों लोगों के पेट कटने की नौबत है। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि वो किसे बड़ा दुश्मन मानें। कोरोना को या लॉक डाउन को? लॉक डाउन में भी क्या खाकर जिंदा रहें?
दूसरी तरफ इस मार्मिक स्थिति का खुला बयान वो दृश्य हैं, जो हमे बैंकों में दिख रहे हैं। ध्यान रहे कि देश में कोरोना लॉक डाउन के बाद केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसकी आंशिक भरपाई के रूप में महिलाओं के जन-धन खातों में 5 सौ रुपये तीन किस्तों में जमा करने का ऐलान किया था। इसकी शुरुआत 3 अप्रैल से हुई थी। यह रकम प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत केवल उन महिलाओं के जन-धन खातों में क्रमिक रूप से डाली गई, जिनकी संख्या करीब 20 करोड़ बताई जाती है।
इस ‘लघु लक्ष्मी’ के आगमन की खबर कोरोना से भी ज्यादा तेज गति से फैली। पूरे देश में लाखों महिलाएं चिलचिलाती धूप में भी बैंकों की तरफ दौड़ पड़ीं। बिना यह सोचे कि सोशल डिस्टेंसिंग का क्या होगा? बिना डरे कि कोरोना कहीं उन्हें भी आगोश में न ले ले। मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में तो ऐसी कई महिलाओं को पुलिस ने लॉक डाउन तोड़ने के आरोप में जेल भेज दिया। इसी से स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। वरना 5 सौ रुपये कोई बड़ा नेग नहीं है और न ही वह इतनी बड़ी रकम है कि उसके आगे कोरोना का डर भी ताक पर रख दिया जाए। मगर इन गरीबों के लिए ये पांच सौ रुपये भी तिनके का सहारा हैं। क्योंकि उनके पास और कुछ भी नहीं बचा है।
इस देशव्यापी तंगहाली के बीच ही पिछले दिनों गोते लगा रहे शेयर बाजार ने गुरुवार को जब अचानक उछाल मारा तो लगा कि कहीं उसके खाते में भी 5 सौ रुपये तो नहीं आ गए? बाजार कम पर खुला, ज्यादा पर बंद हुआ। कठिन समय में भी शेयर बाजार ने उम्मीद की पतवार क्यों थामी? जब देश भर में सभी कुछ बंद है तो स्टॉक मार्केट के दरवाजे खुले कैसे हैं? जी हां, स्टॉक मार्केट लॉक डाउन में भी चालू है और उसमें कारोबार भी हो रहा है। बीएसई ने तय किया था कि 21 दिन के लॉक डाउन में भी वह 11 दिन कारोबार करेगा, क्योंकि निवेशक ज्यादा नुकसान नहीं सह सकते। शेयरों पर दांव लगाए बिना नहीं रह सकते।
बात सही भी है, आखिर करोड़ों-अरबों का का खेल है। वैसे भी बाजार के सेंटीमेंट और आम आदमी के सेंटीमेंट्स में जमीन-आसमान का अंतर है। एक जिज्ञासु के नाते पता किया तो ज्ञात हुआ कि मार्केट सेंटीमेंट से तात्पर्य वित्तीय बाजार अथवा प्रतिभूतियों को लेकर निवेशको का समग्र मनोभाव है, यानी यह तौलना कि इससे बाजार चढ़ेगा या गिरेगा। लगाया हुआ पैसा दो का चार होगा या नहीं। अगर बाजार धन को दिन दूना करे तो उछाल, घटे तो धड़ाम। इस घट-बढ़ का प्रतीक एक सांड है, जो माल दूना होने की हवा मात्र से फुफकारने लगता है और डूबने की अफवाह भर से भालू बन जाता है। इस धंधे में पांच सौ गुना की बात होती है, पांच सौ रुपये की नहीं। यानी जेब पेट पर कई गुना भारी है।
आज जब हमें कोरोना से बचने हर कदम पर एहतियात बरतने, घर से न निकलने, सामाजिक दूरी कायम रखने की सलाहें दी जा रही हों, आए दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मप्र के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान टीवी पर हमारी हौसला अफजाई कर रहे हों, तब स्टॉक मार्केट का हौसला किसके दम पर बुलंद हो रहा है, यह हैरानी के साथ दिलचस्पी की बात भी है। जब आर्थिक अखबारों को खंगाला और अर्थ विशेषज्ञों की टिप्पणियां देखीं तो खुलासा हुआ कि बीच में डूबते से लग रहे शेयर बाजार में यह जान मुख्य रूप से दो खबरों के बाद आई है। पहला तो 14 अप्रैल के बाद लॉक डाउन में शिथिलता की उम्मीद और दूसरे मोदी सरकार द्वारा 24 दवाओं के निर्यात पर आंशिक प्रतिबंध उठाना।
इसी संदर्भ में कोटक महिंद्रा के एमडी नीलेश शाह का कहना है कि दवा निर्यात के बड़े ऑर्डर की उम्मीद में दवा कंपनियों के शेयर तेजी में हैं। कुछ कंपनियां इस भरोसे में है कि लॉक डाउन जल्द खुलेगा जिससे काम काज फिर शुरू होगा। इसीलिए एफएमसीजी व अन्य उपयोग का सामान बनाने वाली कंपनियों के शेयर बढ़े। शेयर बाजार में बढ़त का एक और कारण भारत सरकार द्वारा फॉरेन पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट (एफपीआई) लिमिट में वृद्धि करना है। इससे देश में 9 हजार 9 सौ करोड़ रुपये आने की उम्मीद है। जो विदेशी निवेशक भारत में कोरोना की खबर के बाद मार्च से अपना पैसा बाजार से वापस निकाल रहे थे, अब उनका रुख पलटने की बात कही जा रही है।
चौथा मुख्य कारण विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतों का लगातार घटना है। तेल के भाव 21 डॉलर प्रति बैरल के नीचे आ गए हैं। जानकारों के मुताबिक विश्व बाजार में तेल का दाम 1 डॉलर भी घटता है तो भारत को डेढ़ अरब डॉलर की बचत होती है। तंगहाली के दौर में मोदी सरकार के लिए यही राहत है कि तेल आयात पर उसे काफी कम खर्च करना पड़ेगा। इससे विदेशी मुद्रा बचेगी। यह बाजार के लिए भी राहत की बात है। आम भाषा में समझें तो कीमतों का बढ़ना शेयर बाजार के लिए खुश होने और गरीब के लिए दुखी होने का कारण है।
दरअसल गरीब के सेंटीमेंट्स और शेयर बाजार के सेंटीमेंट्स में कोई सगा रिश्ता नहीं है। शेयर बाजार की बारात में गरीब नाच नहीं सकता। शेयर बाजार अपनी चाल चलता है। किसी के जीने-मरने से उसकी आकांक्षाओं पर कोई खास असर नहीं पड़ता। गरीब की कराह उसकी राह में रोड़ा नहीं बनती। शेयर बाजार केवल यह बताता है कि किस स्टॉक में इन्वेस्ट करने से कितना मुनाफा है। हालांकि डूबने का डर यहां भी है। इसीलिए बाजार के सेंटीमेंट्स में ‘फीयर इंडेक्स’ होता है और ‘हाई लो इंडेक्स’ भी।
हाल में जब यह खबर आई कि शेयर बाजार गिरने से अंबानी-अडाणी जैसों को भारी नुकसान हुआ है तो बहुतों की छाती यह सोच कर ठंडी हुई कि अमीरों को अब पता चला कि लॉक डाउन की मार क्या होती है। खबरों के मुताबिक स्टॉक मार्केट में कोरोना कहर से मुकेश अंबानी को 1.33 लाख करोड़ और अडाणी को 42 हजार करोड़ का झटका लगा। अर्थात उनकी सम्पत्ति इतनी कम हो गई है। जबकि दुनिया को कोरोना वायरस बांटने वाले चीन के अरबपतियों की दौलत फिर बढ़ने लगी है। हालांकि यह झटका अनुमानित ज्यादा होता है बजाए वास्तविक के।
तो क्या यह सिर्फ सट्टेबाजी का खेल है? जो जीवन की वास्तविकताओं से दूर है? ऐसा खेल, जिसमें गरीब की कोई जगह नहीं है? हालांकि पूरी तरह ऐसा मानना भी सही नहीं होगा। क्योंकि निवेश से ही उस रोजगार की संभावना बनती है, जिसकी पहली जरूरत गरीब को ही है। फर्क है तो उस संवेदना का, जो भरे और खाली पेट से पनपती है। विडंबना यह है कि गरीब और गरीबी के महिमामंडन का असर शेयर बाजार पर नहीं होता। आह वहां भी होती है, पर कराह नहीं होती।
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