अजय बोकिल
इसे किस चश्मे से देखें? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘धमकी’ के आगे भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समर्पण? मुश्किल में फंसे दोस्त की घरू संकट के बाद भी मदद? देशहित के अडिग संकल्प को दरकिनार कर मानवता के मद्देनजर किया फैसला? ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ के आगे मोदी की ‘इंडिया फर्स्ट’ की हार या फिर उस महान भारतीय परंपरा का निर्वाह, जो केवल अपने पेट की नहीं सोचती? जो हुआ है और जो होने वाला है, उसके बारे में अंतिम निष्कर्ष अभी निकालना ठीक नहीं होगा। लेकिन यह सही है कि ट्रंप की ‘धमकी’ के मात्र 6 घंटे बाद मोदी सरकार ने विदेशों को जेनेरिक दवा हाइट्रोक्लोरोक्वीन और पेरासीटेमॉल के निर्यात पर आंशिक प्रतिबंध हटा लिया, यह कहकर कि यह ‘मानवीय आधार पर’ लिया गया निर्णय है।
इसी के साथ मोदी देश में विपक्ष के निशाने पर आ गए हैं। विपक्ष ने आरोप लगाया कि मोदी ने अमेरिका के आगे ‘समर्पण’ कर दिया है। उधर भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कह कि यह निर्णय अमेरिका के साथ-साथ कुछ अन्य मित्र देशों के ‘अनुरोध’ के बाद लिया गया है। इसे राजनीतिक नजर से देखना सही नहीं है। यह मानवीय फैसला है।
दो दिन पूर्व इसी कॉलम में अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा मोदी से कोरोना से लड़ने के लिए दवा सप्लाई करने की ‘गुहार’ के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी। मैंने इसे ‘कृष्ण की सुदामा से गुहार’ माना था। मोदी सरकार के इस स्टैंड की सराहना भी की थी कि हमारे लिए भारत और भारत की जरूरतें पहले हैं, बाकी सब बाद में। लेकिन लगता है कि भारत का यह स्टैंड 24 घंटे भी नहीं टिक पाया। ट्रंप ने ‘आग्रह’ को ‘धमकी’ में बदलने में देरी नहीं की। सोमवार तड़के उन्होंने मोदी को खड़का दिया कि अगर भारत ने हमारी मुश्किल में इन दवाओं की सप्लाई अगर नहीं की तो अमेरिका जवाबी कार्रवाई करेगा।
यह जवाबी कार्रवाई (यानी बदला) क्या और किस रूप में होगी, यह ट्रंप ने स्पष्ट नहीं किया, लेकिन संदेश साफ था कि आज नहीं तो कल अमेरिका भारत के इस रुख को ‘याद’ रखेगा और सही मौके पर जवाब देगा। इसके बाद मंगलवार को भारत सरकार ने हाइड्रोक्लोरोक्वीन और पेरासीटेमॉल सहित कुल 14 दवाओं के निर्यात पर से बैन उठा लिया। अर्थात ये दवाइयां अब कुछ मित्र देशों को भी भेजी जा सकेंगी। बताया जाता है कि दवाओं की यह मांग अमेरिका के अलावा नेपाल, श्रीलंका कुछ यूरोपीय देशों और ब्राजील से भी आई है। गौरतलब है कि भारत दुनिया में जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता-निर्यातक है। वर्ष 2017-18 में हमने पूरी दुनिया में 130 खरब रुपये की दवाएं निर्यात कीं। यह उद्योग देश में हर साल 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।
ब्लूमबर्ग इंटेलिजेंस की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका ने पिछले साल अपनी जरूरत की 47 फीसदी दवाइयां भारत से आयात कीं। इसी तरह यूरोपीय और अफ्रीकी देश भी अपनी जरूरत की 19 फीसदी दवाओं के लिए भारत पर निर्भर हैं। ऐसे में जब कोरोना के चलते भारत ने दवा निर्यात पर प्रतिबंध लगाया तो विश्व में हडकंप मच गया।
अगर अमेरिका की मजबूरी की बात करें तो उसके यहां कोरोना वायरस सुरसा की तरह फैल रहा है। ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति को सलाह दी गई कि वे कोरोना के इलाज के लिए हाइड्रोक्लोरोक्वीन भारत से मंगवाएं। सस्ती मिलने वाली ये दवा भारत में मलेरिया और ऑर्थराइटिस में दी जाती है। साथ ही पेरासीटेमॉल का उपयोग बुखार और दर्द के इलाज में होता है। फिलहाल कोरोना के इलाज में यही दवा कुछ हद तक कारगर मानी जा रही है। हालांकि यह अभी भी ‘अनप्रूवन’ मेडिसिन की श्रेणी में ही है।
लेकिन कोरोना से थर्राए अमेरिका को इसमें भी आशा की किरण दिखाई दे रही है। पहले मनुहार और बाद में ट्रंप की इस ‘कड़क गुहार’ के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव का बयान आया कि ‘’हमारी प्राथमिकता देश में इन दवाइयों का जरूरत के मुताबिक भरपूर स्टॉक करने की है। लेकिन नए हालात को देखते हुए सरकार ने कुछ दवाओं के निर्यात पर लगी अस्थायी रोक हटा ली है।‘’
इस दवा निर्यात और उसको लेकर ‘धमकी’ भरी भाषा पर भारत में राजनीति शुरू हो गई। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट किया कि ‘’वैश्विक मामलों के मेरे दशकों के अनुभव में मैंने ऐसा कभी नहीं सुना कि कोई राष्ट्राध्यक्ष या सरकार इस तरह से ‘खुली धमकी’ दे रही हो।‘’ पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि कोरोना वायरस के खिलाफ जंग में भारत को दूसरे देशों की मदद करनी चाहिए, लेकिन जीवनरक्षक दवाएं पहले भारतीयों को मिलनी चाहिए। ट्रंप के बयान पर राहुल ने एक तंजिया ट्वीट भी किया-‘’मित्रों में प्रतिशोध की भावना?’’ माकपा नेता सीताराम येचुरी ने कहा कि अमेरिका के आगे मोदी सरकार ने घुटने टेक दिए। आरजेडी ने पीएम मोदी को अमेरिकी दबाव में घबराकर राष्ट्रहित की तिलांजलि न देने की सीख दी।
अब मुद्दा यह है कि क्या भारत ने इन दवाओं के निर्यात पर रोक हटाकर ठीक किया? क्या घरेलू जरूरतों से समझौता करना सही है? कहीं यह निर्णय मोदी के लिए राजनीतिक रूप से आत्मघाती तो साबित नहीं होगा? एक जवाब तो यह है कि मोदी सरकार ने यह फैसला कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से निपटने में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मदद करने की भारत की प्रतिबद्धता के अनुरूप किया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव के अनुसार “भारत का रुख हमेशा से यह रहा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एकजुटता और सहयोग दिखाना चाहिए। लिहाजा भारत अपने उन सभी पड़ोसी देशों को पेरासिटामॉल और हाइड्रोक्लोरोक्वीन को उचित मात्रा में उपलब्ध कराएगा जिनकी निर्भरता भारत पर है।”
कुछ जानकारों का कहना है कि यह फैसला मोदी पर भारी भी पड़ सकता है, क्योंकि दो महीने बाद ही भारत में मानसून सीजन शुरू होगा, जो मलेरिया के माकूल है। तब हाइड्रोक्लोरोक्वीन की मांग बहुत बढ़ जाएगी। अगर इसकी सप्लाई पर विपरीत असर दिखा तो जनता में यह संदेश भी जा सकता है कि मोदी ने गरीबों की दवाई अमीर अमेरिका को भिजवा दी।
भारतीय प्रवक्ता कुछ भी कहें, विदेशी मीडिया ने ट्रंप की भाषा को ‘धमकी’ ही बताया है। अमेरिकी अखबार ‘न्यूजवीक’ ने अटलांटिक कौंसिल के दक्षिण एशिया सेंटर के डायरेक्टर इरफान नुरूद्दीन के हवाले से कहा है कि मोदी इस कठिन परिस्थिति को अपनी जीत में भी बदल सकते हैं बशर्ते वो निकट भविष्य में कोरोना से लड़ाई में अमेरिका से कोई बड़ी आर्थिक मदद अथवा ट्रेड डील में कोई बड़ी रियायत हासिल कर सकें। जयपुर स्थित ‘सेंटर फॉर इंटरनेशनल ट्रेड, इकानॉमिक्स एंड एनवायरनमेंट के डायरेक्टर बिपुल चैटर्जी का मानना है कि दवा निर्यात प्रतिबंध हटाने का मोदी सरकार का यह फैसला उत्तर कोरोना (पोस्ट कोरोना) विश्व में वैश्विक व्यापार समीकरणों के विकास की दिशा तय करेगा। यह इस बात का प्रतीक होगा कि नए विश्व में खाद्य और दवाइयां किस तर राष्ट्रीय सुरक्षा का हिस्सा बन गए हैं।
चटर्जी का यह भी कहना है कि फिलहाल तो ठीक है, लेकिन ऐसी उदारता हम हर मामले में नहीं दिखा सकते। जाहिर है कि अगर ट्रंप और अमेरिका ने भारत की दरियादिली के बदले हमें ठेंगा ही दिखाया तो मोदी को दवा निर्यात के इस फैसले को जस्टिफाय करना नामुमकिन होगा। बहरहाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस ‘कोरोना परिस्थिति’ में जो फैसला लिया है, उसका औचित्य या अनौचित्य आने वाला वक्त तय करेगा। वैसे भी अंतरराष्ट्रीय रिश्ते ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के सिद्धांत से तय होते हैं।
ट्रंप मोदी की इस उदारता (या मजबूरी?) का सिला क्या और किस रूप में देंगे, कहना मुश्किल है। वो केवल अपना मतलब निकालना चाहते हैं या फिर भारत की इस मानवीय पहल को याद रखेंगे, कहा नहीं जा सकता। मोदी और उनकी पार्टी को इसका क्या राजनीतिक अंजाम भुगतना पड़ेगा, पड़ेगा भी या नहीं, इसका जवाब भी आने वाला वक्त देगा। वैसे अपने घर में बदहाली के बावजूद दूसरे की संकट में मदद करना भारतीय संस्कार है। मोदी के फैसले को दबाव से ज्यादा इसी रूप में देखना गलत नहीं होगा। क्या अभी तो ‘सुदामा’ ही ‘कृष्ण’ पर भारी पड़ता नहीं लग रहा?
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