सांसद निधि पर रोक ‘आर्थिक आपात काल’ का संकेत है?

अजय बोकिल

देश के शीर्ष संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों तथा सांसदों के वेतन-भत्तो में 30 फीसदी की कटौती इस बात का साफ संकेत है कि आने वाले दिन देश के लिए आर्थिक रूप से कितने भारी होने वाले हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर तथा अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने इसे आर्थिक आपातकाल की संज्ञा दी है। वैसे भी पिछले हफ्ते महाराष्ट्र, आंध्र आदि राज्यों में शासकीय कर्मचारियों को वेतन के किस्तों में भुगतान के ऐलान के बाद अपेक्षा की जा रही थी कि जनप्रतिनिधि इस मामले में अपने आर्थिक हितों को कितना शिथिल करते हैं। जो निर्णय सोमवार को सांसदों के मामले में किया गया है, वैसा ही फैसला अब लगभग सभी राज्यों के विधायकों और विधान परिषद सदस्यों के बारे में भी अपेक्षित है। आश्चर्य नहीं कि आने वाले कुछ महीनों में बाकी राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों को ठीक से वेतन भी न दे पाएं। डीए व अन्य भत्तों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

कारण साफ है। कोरोना का आर्थिक असर उसकी जानलेवा क्षमता से भी कहीं ज्यादा मारक साबित होने वाला है। सरकार की चिंता इसी बात से समझी जा सकती है कि कोरोना से लड़ने के लिए (सीआईआई की रिपोर्ट के मुताबिक) हमारी जीडीपी का कम से कम 2 फीसदी हिस्सा यानी करीब 4 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। यह पैसा कहां से आएगा? यह राशि कोरोना पर नियंत्रण के लिए जरूरी तत्काल धनराशि के अलावा है, जो देश के उद्योग और कारोबार जगत को फिर से खड़ा करने के लिए आवश्यक होगी। जब संसद में देश का वर्ष 2020-21 का बजट पेश हो रहा था, तब सरकार को अंदाजा नहीं था कि चीन में तबाही मचा रहा कोरोना भारत को भी भीतर तक हिला कर रख देगा। न सिर्फ इंसानी जिंदगियां, वह हमारे आर्थिक तंत्र को भी तहस-नहस कर देगा।

बेशक, कोरोना से लड़ने के लिए जितनी बड़ी धनराशि की आवश्यकता है, उसे देखते हुए वेतन-भत्तों की यह आंशिक कटौती या मदद बहुत थोड़ी है। लेकिन बूंद-बूंद से ही घड़ा भर सकता है। सांसदों के वेतन-भत्तों में कटौती से भी ज्यादा चिंताजनक दो साल तक सांसद निधि पर रोक है। इसे संक्षेप में एपमी लेड फंड (मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट लोकल एरिया डेवलपमेंट फंड) कहा जाता है। जन प्रतिनिधि की सिफारिश पर और स्थानीय प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए उसके निर्वाचन क्षेत्र में हर सांसद को साल में एक निश्चित धनराशि देने की शुरुआत पी.वी. नरसिंहराव सरकार ने 1993 में की थी।

शुरू में यह राशि प्रति सांसद 25 लाख रुपये थी। बाद में बढ़ते-बढ़ते 5 करोड़ रुपये हो गई। इसका एक मकसद राजनीतिक लाभ लेना भी रहा है। क्योंकि सांसद इसे अपने कार्यकाल की उपलब्धि में गिनाते रहे हैं। इसके तहत सांसद कलेक्टर को विकास कार्यों की अनुशंसा कर सकते हैं। हालांकि इस राशि के खर्च में भ्रष्टाचार और अनियमितता की शिकायतें भी मिलती रही हैं। कैग ने 2010 में इस राशि के दुरुपयोग को लेकर अपनी रिपोर्ट में कड़ी टिप्पणी भी की थी। बावजूद इसके सांसद निधि के तहत बहुत से ऐसे विकास कार्य होते रहे हैं, जो रू‍टीन प्रक्रिया में जल्द नहीं हो पाते।

मोदी सरकार द्वारा एमपीलेड फंड को दो साल तक स्थगित रखने का अर्थ है लगभग 1 लाख करोड़ रुपये की राशि को रोकना। अर्थात यह राशि अब सांसदों को नहीं मिलेगी। इसे कनसोलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया में जमा किया जाएगा। संभव है कि इसका इस्तेमाल कोरोना से लड़ने अथवा पुनर्वास कार्य में किया जाए। वैसे सांसद निधि का एक निराशाजनक पक्ष यह है कि कई सांसद इसका भी ठीक से उपयोग नहीं कर पाए। अगर वित्तीय वर्ष 2019-20 के आंकड़े देखें तो इस दौरान मोदी सरकार ने सांसद निधि के तहत कुल 53 हजार 704 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। लेकिन इसमें से 4 हजार 103 करोड़ रुपये की राशि सांसद खर्च ही नहीं कर पाए। यानी सांसदों की रुचि इस पैसे को भी अपने क्षेत्र में विकास कार्य कराने पर खर्च करने में नहीं दिखी।

उल्लेखनीय है कि एमपीलेड फंड की तर्ज पर लगभग सभी राज्यों के विधायकों और विधान परिषद सदस्यों को भी विधायक निधि मिलती है। मप्र में यह राशि प्रति विधायक 2 करोड़ रुपये है। केन्द्र की तर्ज पर संभवत: सभी राज्य इस निधि को भी स्थगित कर सकते हैं, बल्कि उन्हें करना ही पड़ेगी। क्योंकि कोरोना के चलते सरकारों का राजस्व माइनस में जा सकता है, इसलिए पैसा बचाना ही आय का एकमात्र रास्ता है। इसकी गाज राज्य सरकार के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों पर भी पड़ सकती है। जब नियमित आय वर्ग के लोगों की आमदनी घटेगी तो इसका विपरीत असर बाजार पर होगा। उपभोक्ता वस्तुओं का मार्केट दम तोड़ेगा। इस पूरे प्रकरण में असंगठित क्षेत्र के उन करोड़ों लोगों की तो बात ही नहीं हो रही है, जिनका भविष्य फिलहाल तो अंधेरे में ही है, जो रोज कुआं खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं। जब कुएं ही खुदने बंद हो गए हैं तो पानी कहां से निकलेगा।

कोरोना से मुकाबले के लिए धन जुटाने के लिए मोदी सरकार ने 26 मार्च को अलग से पीएम केयर्स फंड शुरू किया है। शुरुआत में इसकी आलोचना इस बात के लिए हुई कि जब पहले से प्रधानमंत्री राहत कोष मौजूद है तो अलग इस फंड की जरूरत क्या है। जो जानकारी सामने आई है, उस पर भरोसा करें तो ‘पीएम केयर्स फंड’ केवल कोरोना संकट से निपटने के लिए है, जबकि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष सभी तरह की आपदाओं से निपटने के लिए है। इसके लिए पिछले बजट में 3 हजार 8 सौ करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। अगर इसमें राज्यों के आपदा कोष की राशि भी शामिल कर ली जाए, जो कि 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक होती है तो भी कोरोना से जूझने के लिए यह पैसा बहुत कम है। इनके अलावा एक और राष्ट्रीय आपदा प्रतिसाद कोष होता है। इसमें भी 25 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान है। फिर भी कोरोना से जूझने के लिए और पैसा चाहिए।

शायद इसीलिए पीएम केयर्स फंड बनाया गया है। हालांकि एक आरोप यह भी है ‍कि इस कोष से सरकार मनमाने ढंग से पैसा खर्च करना चाहती है, जो पीएम राष्ट्रीय आपदा कोष से करना मुश्किल था। जो भी हो, इस फंड में पैसा आना शुरू हो गया है। अपनी स्थापना के पहले हफ्ते में ही इसमें 6 हजार 5 सौ करोड़ रुपये जमा हो चुके हैं। पैसा आ रहा है, लेकिन जरूरत बहुत ज्यादा की है। इसीलिए सरकार ने सीएसआर राशि और इनकम टैक्स में छूटें इस निधि के लिए दी हैं।

स्पष्ट है कि जो हो रहा है, गंभीर संकट की ओर इशारा है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने हाल में कहा कि देश अब तक के सबसे बड़े आर्थिक आपातकाल के दौर से गुजर रहा है। भले ही इसकी औपचारिक घोषणा न की गई हो। उन्होंने इससे निपटने के लिए मोदी सरकार को विपक्ष और अन्य अर्थशास्त्रियों की मदद लेने की सलाह दी है। ये बात मोदी सरकार के गले शायद ही उतरे। लेकिन राजन ने सरकार के 21 दिन के देशव्यापी लॉक डाउन के फैसले की तारीफ भी की है। उन्होंने कहा कि ऐहतियात के तौर पर यह ठीक है। लेकिन यह स्थिति लंबे समय तक तो नहीं रखी जा सकती।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। इससे वेबसाइट का सहमत होना आवश्‍यक नहीं है। यह सामग्री अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के तहत विभिन्‍न विचारों को स्‍थान देने के लिए लेखक की फेसबुक पोस्‍ट से साभार ली गई है।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here