क्‍या दिल्‍ली का चुनाव भारतीय राजनीति की दिशा बदलेगा?

दिल्‍ली चुनाव के नतीजे वैसे ही आए हैं जैसा ज्‍यादातर लोगों का अनुमान था। बहुत लंबे समय बाद किसी चुनाव में ऐसा हुआ है जब नतीजे आने से पहले ही लोगों को यह अहसास रहा हो कि पलड़ा किधर झुकने वाला है। यह बात अलग है कि नतीजे आने से पहले हर पार्टी अपनी जीत का बढ़ चढ़कर दावा कर रही थी। एक्जिट पोल्‍स के नतीजों को झूठा साबित करने के दावे हो रहे थे। ऐसे दावे करने में वो भाजपा भी शामिल थी जिसके बड़े नेताओं को अच्‍छी तरह पता था कि नतीजे क्‍या रहने वाले हैं।

अब सवाल यह है कि दिल्‍ली के नतीजों को किस तरह देखा जाए और उनसे भारत की राजनीति के भविष्‍य को लेकर क्‍या संकेत लिए जाएं। निश्चित रूप से आज की परिस्थितियों में कोई भी कहेगा कि दिल्‍ली का चुनाव देश की राजनीति की दिशा बदलेगा और उससे भी ज्‍यादा वह उस भाजपा को सोचने पर मजबूर करेगा जिसने चुनावों का एक अलग रंग और एक अलग पैटर्न सेट कर दिया है।

प्रचंड जीत के बाद अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा- ‘’दिल्‍ली के लोगों ने नई राजनीति को जन्‍म दिया है। यह राजनीति है ‘काम की राजनीति’… यह एक नई किस्‍म की राजनीति की शुरुआत है… यह देश के लिए शुभ संदेश है और यही राजनीति देश को 21 वीं सदी में ले जा सकती है… यह दिल्‍लीवासियों की नहीं, भारतमाता की जीत है…’’

इसमें कोई दो राय नहीं कि अण्‍णा आंदोलन के कार्यकर्ता से लेकर दिल्‍ली का तीसरी बार मुख्‍यमंत्री बनने की स्थिति तक, अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक यात्रा में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे हैं। उन्‍होंने राजनीति करने की अपनी शैली में कई बदलाव भी किए हैं। एक समय था जब वे ‘जबान की राजनीति’ किया करते थे, मुख्‍यमंत्री बन जाने के बावजूद वे सड़क की राजनीति करने या धरना आंदोलन को ही विकल्‍प मानने का मोह नहीं छोड़ पाए थे। लेकिन उन्‍होंने अपने अनुभवों से काफी कुछ सीखा और अपनी राजनीति और काम करने की शैली में आमूलचूल बदलाव किया।

इस बार के चुनाव में केजरीवाल ने शुरुआत ही ‘काम की राजनीति’ के आधार पर जनता के बीच जाने के फैसले से की थी। लेकिन जैसे जैसे उनकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी भाजपा ने अपनी ‘परंपरागत शैली’ की राजनीति करनी शुरू की, केजरीवाल का विश्‍वास भी हिलता दिखने लगा। यही वजह रही कि उन्‍होंने खुद को हनुमान भक्‍त बताने और हनुमान चालीसा के पाठ जैसे टोटके भी अपनाए।

केजरीवाल का ऐसा करना साफ संकेत था कि अपने काम के दम पर वोट पा लेने का उनका भरोसा डिग रहा है। टीवी इंटरव्‍यूज में वे कहने लगे थे कि यदि धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोटिंग हुई तो यह देश का दुर्भाग्‍य होगा। ऐसे ही एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा था- ‘’यदि भाजपा सत्ता में आई तो पांच सालों में आम आदमी सरकार द्वारा किए गए विकास कार्य और दिल्ली की प्रगति की रफ्तार चौपट हो जाएगी।‘’

केजरीवाल के ये बयान बता रहे थे कि शाहीन बाग प्रकरण से बन रहे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हालात ने आम आदमी पार्टी को निराश भले न किया हो लेकिन उसे आशंकित जरूर कर दिया है। चुनाव प्रचार के उन दिनों में मैंने इसी कॉलम में लिखा था- ‘’बहुत लंबे समय बाद देश के किसी राज्य में ऐसी स्थिति बन रही थी जहां सरकार अपने काम को सामने रखकर लोगों से वोट मांगने निकली हो।… दिल्ली में जो कुछ हो रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के लिहाज से और चुनावी राजनीति की दिशा और दशा बदलने के लिहाज से अच्छा नहीं है। विकास और सरकार के कामकाज का मुद्दा पीछे खींचकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को आगे लाना हमारी चुनाव प्रक्रिया को और ज्यादा कमजोर करने का सबब बनेगा।‘’

दिल्‍ली के चुनाव परिणाम इस मायने में देश के लिए अच्‍छे हैं कि उन्‍होंने चुनाव प्रक्रिया को, समाज के विभाजन पर केंद्रित करने की कोशिशों को दरकिनार करते हुए, विकास के मुद्दे पर केंद्रित करने की उम्‍मीद टूटने नहीं दी है। पर देखना यह होगा कि क्‍या दिल्‍ली का संदेश देश के अन्‍य राज्‍यों में इसी रूप में ग्रहण किया जाता है?

एक सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि क्‍या भाजपा शाहीन बाग जैसे मुद्दे को यूं ही हाथ से जाने देगी? मेरा मानना है कि यदि कोई ऐसा सोच रहा है तो यह उसकी गलतफहमी है। भाजपा अपने घोषित एजेंडे को इस तरह आसानी से छोड़ने वाली नहीं है। वैसे भी यह सवाल उठाया जाने लगा है कि राम मंदिर का मसला हल हो जाने के बाद हिन्‍दू समाज को समग्रता में एकजुट करने का अब भाजपा के पास क्‍या उपाय बचा है? तो यकीन जानिए भारत में रहने वाले ‘हर भारतवासी को हिन्‍दू मानने वाली’ भाजपा कतई यू-टर्न लेने वाली नहीं है।

बात यह भी उठ रही है कि जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व को यह पता था कि दिल्‍ली चुनाव के नतीजे क्‍या होंगे, तब भी उन्‍होंने दिल्‍ली चुनाव को शाहीन बाग में रंग देने का जोखिम मोल क्‍यों लिया? इस सवाल के जवाब में भी वही बात छिपी हुई है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया। दरअसल दिल्‍ली की राजनीतिक फिजा देश के दूसरे राज्‍यों से बहुत अलग है। दिल्‍ली उस तरह से ‘राज्‍य’ भी नहीं है जैसे यूपी, बिहार, गुजरात, मध्‍यप्रदेश, महाराष्‍ट्र या पश्चिम बंगाल आदि हैं।

भाजपा के लिए ‘शाहीन बाग’ का मुद्दा सिर्फ दिल्‍ली या दिल्‍ली चुनाव का मुद्दा नहीं बल्कि पूरे देश का मुद्दा है। ठीक वैसे ही जैसे आम आदमी पार्टी पूरे देश की पार्टी नहीं बल्कि दिल्‍ली की पार्टी है। इसीलिए भाजपा ने दिल्‍ली में राजनीति का अपना परंपरागत रंग न तो छोड़ा और न ही उसे हलका होने दिया। उसे मालूम है कि इसका फायदा उसे दिल्‍ली में भले ही न मिले लेकिन बाकी राज्‍यों में यह रंग लोगों की आंखों से इतनी जल्‍दी ओझल नहीं होने वाला,…उसे होने भी नहीं दिया जाएगा।

इसलिए दिल्‍ली के चुनाव से यह नतीजा निकालना बहुत जल्‍दबाजी होगी कि भविष्‍य में देश में होने वाले चुनाव सिर्फ और सिर्फ विकास या कि सरकारों के कामकाज पर केंद्रित होंगे। यदि ऐसा हो सके तो वह दिन देश के इतिहास में मील का पत्‍थर होगा लेकिन ‘परंपरागत’ राजनीतिक दलों और उनकी ‘परंपरागत राजनीति’ से जाति, धर्म और संप्रदाय को हटाना क्‍या इतना आसान होगा?

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