पुरानी कहावत है- हाथी के दांत, खाने के और, दिखाने के और… आप इसे सरकारों पर भी लागू कर सकते हैं- सरकार के दांत, खाने के और, दिखाने के और… इससे भी आसान परिभाषा चाहिए तो और भी कम शब्दों में कह दें- सिर्फ सरकारें बदलती हैं, उसके दांत नहीं…
सरकार में ये जो दांत होते हैं, वह वास्तव में नौकरशाही होती है। सरकारें इन्हीं दांतों के बीच में जीभ की तरह जिंदा रहती हैं। दांत बोलते नहीं, जीभ बोलती है, लेकिन जीभ का बोलना दांतों की दया पर निर्भर करता है, जिस दिन या जिस क्षण वे चाहें जीभ का बोलना रुकवा सकते हैं।
मध्यप्रदेश और उसके सहोदर राज्य छत्तीसगढ़ में इन दिनों दांत, जीभ पर हावी हैं। जीभ दांतों की भाषा बोल रही है और वैसा ही नाच रही है जैसा दांत नचाना चाह रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारों को अपनी लार निगलने पर मजबूर नहीं होना पड़ता। थूक कर चाटना तो दूर की बात, जीभ यानी सरकार को इतनी भी इजाजत नहीं है कि वह थूक सके, भले ही उसकी थू-थू हो रही हो।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों जगह सरकारें बने एक साल हो गया है। इस अवधि में वैसे कहने सुनने को तो बहुत सारे किस्से हैं लेकिन हांडी के चावल की तरह आप एक-एक किस्सा दोनों जगह का उठा लीजिये, साफ पता चल जाएगा कि नौकरशाही के आगे सरकारों की कैसे घिग्घी बंधी हुई है या कि वे कैसे दंडवत कर रही हैं।
पहले अपने मध्यप्रदेश की बात। नागरिकता कानून संशोधन यानी सीएए को लेकर पिछले दिनों राजगढ़ जिले के ब्यावरा में एक प्रदर्शन हुआ। कांग्रेस राज वाली सरकारों में आमतौर पर ऐसे प्रदर्शन सीएए के खिलाफ हो रहे हैं लेकिन ब्यावरा का प्रदर्शन चूंकि भाजपा समर्थित था इसलिए वह सीएए के पक्ष में था।
उसी प्रदर्शन के दौरान राजगढ़ की जिला कलेक्टर निधि निवेदिता ने भाजपा के एक नेता को थप्पड़ रसीद कर दिया। मामले पर बहुत बवाल हुआ। बाद में पता चला कि मैडम ने उसी दिन न सिर्फ भाजपा नेता का गाल लाल किया था बल्कि उन्होंने कुछ सरकारी कर्मचारियों पर भी कथित रूप से हाथ आजमाए थे। इन्हीं में पुलिस का एक एएसआई भी था।
अपने आदमी के पिटने पर पुलिस ने मामले का नोटिस लिया और घटना को लेकर जांच पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय भेज दी। पुलिस मुख्यालय ने यह रिपोर्ट आवश्यक कार्रवाई के लिए गृह विभाग को प्रेषित कर दी। इसी बीच गृह मंत्री ने मीडिया को बयान दे दिया कि यदि कोई दोषी पाया गया तो कार्रवाई होगी।
बस, इसके बाद खेल शुरू हुआ। आईएएस लॉबी अपनी बिरादरी के सदस्य को बचाने के लिए सक्रिय हुई और नतीजा यह निकला कि न सिर्फ मंत्री के सुर बदल गए बल्कि गृह विभाग को रिपोर्ट प्रेषित करने वाले राज्य के पुलिस महानिदेशक वी.के.सिंह तक इसकी चपेट में आ गए। नौबत उन्हें हटाए जाने तक पहुंच गई। तरह तरह की चर्चाएं चलने लगीं। खबरें छपीं कि मुख्यमंत्री भी डीजीपी के इस रवैये से नाराज हैं कि उन्होंने मुख्य सचिव को विश्वास में लिए बिना जांच कैसे होने दी, कलेक्टर की जांच एक डीएसपी ने कैसे की और कैसे पुलिस मुख्यालय ने गृह विभाग को रिपोर्ट प्रेषित कर दी।
अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या है भाई एक कलेक्टर में। ठीक है कि राजगढ़ कलेक्टर एक तेज तर्रार प्रशासनिक अधिकारी हैं, लेकिन यदि उनके खिलाफ सरकारी कर्मचारियों पर हाथ उठाने की शिकायतें हैं तो क्या उनकी जांच नहीं होनी चाहिए? पर खबरें छपती हैं कि मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक इस बात से नाराज हैं कि आखिर एक कलेक्टर की जांच एक डीएसपी कैसे कर सकता है? क्यों भई, कानून के हिसाब से तो एक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक के आपराधिक कृत्य की जांच एक सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर कर सकता है जब तक कि किसी अन्य अफसर को किसी विशेष प्रयोजन के लिए उस मामले में जांच अधिकारी न बनाया गया हो।
कल को यदि कलेक्टर सड़क पर यातायात नियमों का उल्लंघन करे और कोई ट्रैफिक कांस्टेबल उसका चालान बना दे तो क्या आप कलेक्टर को यह कहते हुए बचाव करेंगे कि एक कांस्टेबल कैसे कलेक्टर का चालान बना सकता है। ये कौनसी प्रशासनिक व्यवस्था बनाई जा रही है? क्या अब कलेक्टरों के लिए अलग व्यवस्था होगी और बाकी लोगों/अफसरों के लिए अलग… और अब तो सुनने में आया है कि कलेक्टर पर लगे आरोपों की जांच करने भोपाल से एक जांच दल जाएगा। यह कौनसी परंपरा डाली जा रही है? और यह जांच दल होगा कि लीपापोती दल?
अब जरा दूसरा मामला सुन लीजिए। छत्तीसगढ़ में करीब एक हजार करोड़ रुपए का एक घोटाला हुआ। इससे संबंधित मामला हाईकोर्ट में चल रहा है। उस घोटाले में कथित रूप से शामिल होने वालों में राज्य के बहुत बड़े-बड़े, यहां तक कि पूर्व मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों के नाम भी हैं। हाईकोर्ट ने इसकी जांच सीबीआई से कराने को कहा है, लेकिन राज्य सरकार कोर्ट से गुहार लगा रही है कि जांच सीबीआई को सौंपने के बजाय राज्य पुलिस को ही करने दी जाए।
मजे की बात देखिए कि यह मामला भाजपा शासनकाल का है। इसमें शामिल कई अफसर भाजपा शासनकाल में प्रमुख पदों पर रहे हैं लेकिन कांग्रेस सरकार उनके खिलाफ भी कार्रवाई से हिचक रही है। हैरानी की बात तो यह है कि उस घोटाले में शामिल कई आरोपित अफसर तो इस नई सरकार में भी महत्वपूर्ण सरकारी और स्वायत्तशासी संस्थानों में शीर्ष पदों पर हैं।
कुल मिलाकर चाहे मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़ या कोई और राज्य, असली ताकत आज भी नौकरशाही के पास ही है। सरकार नाम की संस्था के दांत भी वे ही हैं, खाने के लिए भी और दिखाने के लिए भी। यदि ऐसा नहीं होता तो अपने मध्यप्रदेश में ही हनी ट्रैप में फंसे अफसरों पर क्या कार्रवाई नहीं हो गई होती? उस मामले में तो क्या क्या अजब-गजब नहीं हुए… यहां तक कि एसआईटी ने जो चालान पेश किया उसमें तक कुछ अफसरों के नाम का उल्लेख नहीं हुआ।
ऐसे में क्या तो कोई न्याय की उम्मीद करे और क्या उम्मीद करे कि माफिया राज खत्म हो जाएगा… यहां तो सबके सब उस माफिया से काफिया मिलाने में लगे हैं जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता…