शिक्षा परिसरों को तो ‘अराजनीतिक’ ही होना चाहिए

खबरों और घटनाओं को देखने और उनका महत्‍व समझने का हमारा नजरिया इन दिनों कितना एकपक्षीय अथवा दूषित हो गया है, ज्‍यादातर लोग इसका अहसास नहीं कर पा रहे हैं। सूचना के प्रचलित स्रोतों और संचार माध्‍यमों का संकुचित दायरा घटनाओं को लेकर हमारी समझ विकसित करने में बेरिकेड का काम कर रहा है। यही कारण है कि किसी भी विषय या घटना को लेकर हम न तो ऑब्‍जेक्टिव तरीके से अपना दृष्टिकोण विकसित कर पा रहे हैं और न ही उस पर विवेकपूर्ण प्रतिक्रिया दे पा रहे हैं।

देश में इन दिनों जो हो रहा है वह जुनूनी लहजे में हो रहा है। जुनून होना कोई गलत बात नहीं लेकिन उसके साथ ही हमें ‘जोश के साथ होश’ बनाए रखने वाली पुरानी कहावत को भी याद रखना होगा। पर मीडिया का सरोकार इन दिनों इस होश से नहीं बल्कि उस उन्‍माद से है जो चारों तरफ सड़कों पर पसरा पड़ा है।

यदि ऐसा नहीं होता तो हिंसा का लावा उगलते या हिंसा की आग में झुलसते शिक्षा परिसरों को दिखाने के साथ-साथ वह शिक्षा परिसर भी दिखाया जाता जहां लाठी, तलवार और हथौड़ों से लैस हमलावर और लहूलुहान भीड़ नहीं है, जहां ‘हमें चाहिये आजादी’ या कि ‘देश के टुकड़े करने’ का ऐलान करने वाले नारे नहीं लग रहे हैं। उस परिसर में, अन्‍यान्‍य कारणों से बहने वाला जहरीले राजनीतिक उन्‍माद का नाला नहीं बल्कि समझ और विवेक का वह जलप्रपात है, जिसे देखकर यह उम्‍मीद कायम रहती है कि अभी सब कुछ नहीं बिगड़ गया है, सबकुछ बरबाद नहीं हुआ है।

मैं जिस परिसर की बात कर रहा हूं वह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्‍थान (आईआईटी) बॉम्‍बे का है। आप में से यदि किसी ने इस परिसर में घटी उस घटना के बारे में ऐन उसी दिन देखा या पढ़ा हो, जिस दिन वह घटी, तो मैं आपको भाग्‍यशाली कहूंगा। लेकिन मैं उतना भाग्‍यशाली नहीं था। वह खबर मुझे दो दिन बाद मिली और वह भी किसी मुख्‍य समाचार माध्‍यम से नहीं बल्कि वाट्सएप पर आए एक संदेश के जरिये।

खबर यह है कि आईआईटी बॉम्‍बे के करीब एक हजार छात्र-छात्राओं ने गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले अपने परिसर में एक हजार फीट लंबा ध्‍वज लेकर तिरंगा रैली निकाली। आप कह सकते हैं कि गणतंत्र दिवस पर तिरंगा रैलियां तो होती रहती हैं, आईआईटी बॉम्‍बे ने भी यदि ऐसा किया तो इसमें नया क्‍या है? तो इस सवाल का जवाब है इस तिरंगा रैली के पीछे की सोच।

‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ ने रिपोर्ट किया है कि तिरंगा रैली के आयोजकों की ओर से जारी बयान में कहा गया कि- ‘’इसके पीछे मुख्‍य विचार इस बात को दर्शाना था कि यह परिसर ‘अराजनीतिक’ है। हमारी जिम्‍मेदारी राष्‍ट्रनिर्माण के प्रति है। यह रैली शिक्षा परिसर में सकारात्‍मक शैक्षिक माहौल को स्‍थापित करने और छात्रों के बीच शोध के प्रति समर्पण का वातावरण बनाए रखने के साथ साथ शैक्षिक परिसर की अकादमिक गरिमा को बनाए रखने के उद्देश्‍य से आयोजित की गई।‘’

बयान की सबसे महत्‍वपूर्ण बात वो है जिसमें बताया गया कि संस्‍थान के निदेशक शुभाशीष चौधरी ने छात्रों का आह्वान किया था कि वे परिसर को ‘अराजनीतिक’ बनाए रखें। आयोजकों के अनुसार यह आह्वान कुछ छात्रों के द्वारा सीएए के विरोध में किए गए उस छिटपुट विरोध के संदर्भ में था जिसे परिसर में गड़बड़ी पैदा करने वाली हरकत के साथ ही गैर अकादमिक और राजनीतिक गतिविधि के तौर पर देखा गया।

आईआईटी बॉम्‍बे छात्र संघ की ओर से आयोजित ‘ओपन हाउस’ में संस्‍थान के निदेशक शुभाशीष चौधरी ने कहा कि छात्र राजनीतिक मुद्दों या मसलों पर अपनी ‘व्‍यक्तिगत’ राय परिसर से बाहर व्‍यक्‍त कर सकते हैं लेकिन परिसर को किसी भी राजनीतिक आग्रह, पूर्वग्रह से मुक्‍त होना चाहिए। किसी भी राजनीतिक मसले पर छात्रों के विचार या उनकी राय को उनकी व्‍यक्तिगत हैसियत में ही देखा जाना चाहिए न कि संस्‍थान की राय या विचार के रूप में। निदेशक ने याद दिलाया कि शिक्षा परिसर देश के करदाताओं के पैसे से संचालित होते हैं, इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए।

तिरंगा रैली के आयोजकों ने साफ किया कि इसका उद्देश्‍य यह बात रेखांकित करना था कि संस्‍थान का काम तकनीकी विशेषज्ञों और उद्यमियों को तैयार करना है। कुछ छात्रों ने बताया कि संस्‍थान के अनेक छात्र खुद को किसी भी राजनीतिक गतिविधि से संबद्ध दिखाना नहीं चाहते हैं। परिसर में इस तरह के राजनीतिक समूह मौजूद भी नहीं हैं। हां, कुछ छात्र हैं जो सीएए और एनआरसी को गलत मानते हैं, लेकिन उनकी भी राय यही है कि शिक्षा परिसर को बुनियादी रूप से ‘अराजनीतिक’ होना चाहिए।

इस समय जब जेएनयू से लेकर जामिया तक और बीएचयू से लेकर एएमयू तक के परिसर, शिक्षा केंद्र के रूप में कम और राजनीतिक आंदोलनों के केंद्र के रूप में ज्‍यादा दिखाई दे रहे हैं, वहां आईआईटी बॉम्‍बे की यह पहल स्‍वागतयोग्‍य है। निशिचत रूप से इसके लिए वहां के निदेशक शुभाशीष चौधरी की सराहना की जानी चाहिए जिन्‍होंने परिसर को राजनीति के वायरस से मुक्‍त रखने का प्रयास किया है।

छात्रों का आंदोलन करना, अपनी जायज मागों को लेकर सरकार या शिक्षा संस्‍थान प्रशासन के सम्‍मुख विरोध जताना न तो कोई नई बात है और न ही इसमें किसी को आपत्ति होनी चाहिए। लेकिन इन दिनों बात इसलिए बिगड़ रही है कि हमारे शिक्षा परिसर शिक्षा के केंद्र कम और राजनीतिक दलों के मुख्‍यालय अधिक बनते जा रहे हैं। वहां छात्र संगठनों की मौजूदगी छात्रों के हित और उनकी समस्‍याओं के निराकरण के लिए कम, अपनी अपनी राजनीतिक पार्टी के एजेंडे को लागू करने के लिए ज्‍यादा है।

देश के कई शिक्षा संस्‍थान ऐसी गतिविधियों के लिए सालों से पहचाने जाते रहे हैं। जब तक इस तरह की गतिविधियां छात्रों तक सीमित थी तब भी थोड़ी गनीमत थी लेकिन अब तो शिक्षा परिसरों का प्रशासन भी राजनीतिक हो चला है। वहां होनी वाली नियुक्तियां राजनीतिक आधार पर होती हैं। ऐसे में राजनीतिक हितों का टकराव होना ही है, और इस टकराव में सबसे ज्‍यादा नुकसान उन छात्रों का होता है जो सिर्फ और सिर्फ पढ़ने के उद्देश्‍य से इन संस्‍थानों में दाखिला लेते हैं। शिक्षक हों या छात्र, उनके अपने व्‍यक्तिगत राजनीतिक आग्रह या पूर्वग्रह कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन शिक्षा प्रणाली, शिक्षा पाठ्यक्रम और शिक्षा परिसर तो ‘अराजनीतिक’ ही होने चाहिए।

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