लोगों को ‘समझाने’ का काम विदेश में भी करना होगा

अगर यह विशुद्ध संयोग ही है, जो कि प्रथम दृष्‍ट्या लगता नहीं है, तो भी इसकी टाइमिंग पर खास ध्‍यान दिया जाना चाहिए। शुक्रवार को मैंने इसी कॉलम में ‘इकॉनामिस्‍ट इंटेलीजेंस यूनिट’ (ईआईयू) द्वारा जारी डेमोक्रेसी इंडेक्‍स पर बात की थी। ईआईयू ने वह इंडेक्‍स 22 जनवरी को जारी किया था और उसमें भारत की रैंकिंग दस पायदान नीचे लुढ़की हुई मिली थी।

अब 24 जनवरी को मीडिया में ‘द इकानॉमिस्‍ट’ पत्रिका का वह कवर पेज सुर्खियों में है जिसका मुख्‍य शीर्षक है ‘असहिष्‍णु भारत’ (Intolerant India) और इसके नीचे लिखा गया है ‘मोदी कैसे विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र को खतरे में डाल रहे हैं’… संयोग की बात मैंने इसलिये उठाई क्‍योंकि इकॉनामिस्‍ट इंटेलीजेंट यूनिट इसी ‘ द इकानॉमिस्‍ट’ पत्रिका का सहयोगी संस्‍थान है, जिसने भारत में एक बार फिर ‘असहिष्‍णुता’ शब्‍द को मुद्दा बना दिया है।

वैसे यह कोई नई बात नहीं है जब विश्‍व की प्रतिष्ठित पत्रिका में से एक ‘द इकॉनामिस्‍ट’ ने भारत को अपने कवर पेज पर लेते हुए यहां की स्थिति को मुद्दा बनाया हो। दुनिया भर की पत्र-पत्रिकाएं समय समय पर भारत से जुड़े विषयों को मुद्दा बनाती रही हैं। इसी ‘द इकॉनामिस्‍ट’ पत्रिका ने 2014 में मोदी सरकार के चुनकर आने के करीब एक साल बाद सरकार के कामकाज को लेकर 2015 में अपने कवर पेज पर नरेंद्र मोदी की बहुत सारे वाद्ययंत्रों के साथ तसवीर प्रकाशित करते हुए उसका शीर्षक दिया था- ‘भारत का वन मैन बैंड’

इसी तरह मशहूर अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ का मई 2018 का वह अंक भी बहुत चर्चित रहा था जिसके कवर पेज पर ‘इंडियाज डिवाइडर इन चीफ’ शीर्षक के साथ नरेंद्र मोदी की तसवीर प्रमुखता से प्रकाशित करते हुए सवाल उठाया गया था कि क्‍या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, मोदी सरकार को आने वाले और पांच साल बर्दाश्त कर सकता है? यह वो समय था जब भारत में लोकसभा चुनाव चल रहे थे और उस समय टाइम मैगजीन की इस स्‍टोरी की टाइमिंग को लेकर काफी सारे सवाल उठाए गए थे।

जिस तरह 2018 में टाइम मैगजीन ने मोदी को ‘इंडियाज डिवाइडर इन चीफ’ शीर्षक के साथ कवर पेज पर छापा था उसी तरह इसी मैगजीन ने 2012 में मोदी को कवर पेज पर स्‍थान देते हुए उसका शीर्षक दिया था- ‘मोदी मीन्‍स बिजनेस’ (मोदी यानि व्‍यापार) उस संस्‍करण में सवाल उठाया गया था कि क्‍या मोदी भारत का नेतृत्‍व कर सकेंगे? उसके बाद मोदी सरकार के पहले कार्यकाल का एक साल पूरा होने के बाद टाइम मैगजीन ने फिर मोदी को कवर पेज पर स्‍थान देते हुए उनके फोटो के साथ शीर्षक लगाया था ‘मोदी क्‍यों महत्‍वपूर्ण हैं?’ (Why Modi Matters?)

हालांकि अंतर्राष्‍ट्रीय मीडिया का भी अपना एजेंडा होता है और वे उसी एजेंडा के हिसाब से किसी सर्वे या किसी व्‍यक्ति को प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं या कि उसकी सराहना या आलोचना में लेख प्रकाशित करते हैं। ऐसा कंटेंट ज्‍यादातर उस उल्लिखित देश के साथ अंतर्राष्‍ट्रीय संबंधों को ध्‍यान में रखते हुए प्रकाशित या प्रसारित किया जाता है। कई बार इस तरह का कंटेट सीधे-सीधे उस देश को टारगेट करने वाला तो नहीं होता लेकिन उस देश या वहां के सर्वोच्‍च नेता पर दबाव बनाने के लिए उसका इस्‍तेमाल किया जाता है।

मोदी सरकार के आने के बाद भारत की विदेश नीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला है और इसमें खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका सबसे अधिक रही है। उन्‍होंने विदेश दौरों के मामले में अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों को पीछे छोड़ दिया है। मोदी की विदेश यात्राओं को लेकर तो मजाक में यहां तक कहा जाता है कि वे भारत में जितने लोकप्रिय नहीं है उससे कहीं ज्‍यादा विदेश में लोकप्रिय हैं। मोदी ने भी अपने विदेश दौरों को अपने छवि निर्माण के लिए भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी के दूसरे कार्यकाल का अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ है और विदेशी पत्र पत्रिकाओं ने इस तरह से उन्‍हें या उनकी सरकार की कार्यशैली को टारगेट बनाना क्‍यों शुरू कर दिया है। हम ‘डेमोक्रेसी इंडेक्‍स’ या फिर ‘द इकॉनामिस्‍ट’ की किसी कवर पेज स्‍टोरी को अनदेखा भी कर दें तो भी इससे इनकार कैसे किया जा सकता है कि इस तरह की घटनाएं वैश्विक स्‍तर पर भारत की छवि या हमारे अंतर्राष्‍ट्रीय संबंधों को प्रभावित जरूर करती हैं।

भारत में हो रही घटनाओं को लेकर विदेश में होनी वाली प्रतिक्रियाओं के मामले में मलेशिया प्रकरण तो अभी ताजा ही है। मलेशिया ने कश्‍मीर में धारा 370 की समाप्ति से लेकर सीएए से जुड़ी घटनाओं को लेकर तीखी प्रतिक्रिया दी है। वहां के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्‍मद ने खुलकर इन घटनाओं और निर्णयों की आलोचना की है और उसीका नतीजा रहा है कि भारत ने सख्‍त रुख अपनाते हुए मलेशिया से पॉम ऑइल के आयात के सौदे रुकवा दिए हैं। पॉम ऑइल मलेशिया की अर्थ व्‍यवस्‍था की रीढ़ है और भारत इसका सबसे बड़ा खरीदार है। भारत की ओर से आयात बंद कर देने से मलेशिया की अर्थव्‍यवस्‍था पर गहरा असर हुआ है।

लेकिन अंतर्राष्‍ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में भारत सरकार या प्रधानमंत्री को लेकर प्रकाशित होने वाली सामग्री का मामला इतना सीधा नहीं है। वहां इस तरह की कोई कार्रवाई नहीं हो सकती जैसी मलेशिया के साथ हुई है। किसी सामान के आयात निर्यात और मीडिया की किसी गतिविधि को बाधित करने में बहुत अंतर है।

‘द इकॉनामिस्‍ट’ प्रकरण से एक और बात पता चलती है, वो यह कि भारत में इन दिनों जो हो रहा है, चाहे वह 370 हटने के बाद कश्‍मीर की स्थिति का मामला हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लागू करने का। चाहे जेएनयू, जामिया अथवा एएमयू में छात्रों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई का मसला हो या शाहीन बाग जैसे धरना प्रदर्शनों का मामला, केंद्र सरकार अपने कदमों को लोगों को ठीक से समझाने या उन्‍हें मुतमईन करने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पा रही है। ऐसा न सिर्फ देश के भीतर बल्कि बाहर भी हो रहा है।

देश के भीतर होने वाली घटनाओं से तो कानून व्‍यवस्‍था बनाए रखने के नाम पर पुलिस-प्रशासन के जरिये निपटा जा सकता है, लेकिन विदेशों में बन रही गलत धारणा से कैसे निपटा जाएगा? ऐसा लगता है कि घरेलू मोर्चे के साथ-साथ सरकार को अब अपने कदमों की सार्थकता समझाने के लिए विदेशों में भी मोर्चा खोलना होगा। हम ‘डेमोक्रेसी इंडेक्‍स’ या ‘द इकॉनामिस्‍ट’ की रिपोर्टिंग को यूं ही दरकिनार नहीं कर सकते क्‍योंकि यह सारा खेल ‘लोकतंत्र’ या ‘लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं’ को केंद्र में रखकर खेला जा रहा है। याद रखना होगा कि अंतर्राष्‍ट्रीय ताकतें किसी भी देश पर शिंकजा कसने के लिए ऐसे ही हथियारों का इस्‍तेमाल करती आई हैं।

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