हालांकि ‘लोकतंत्र’ शब्द अब केवल दुहाई देने या कसमें खाने तक ही सीमित रह गया है, लेकिन फिर भी इसका महत्व अभी मरा नहीं है। यह बात अलग है कि सरकारें अब लोकतंत्र को ‘लोक का, लोक के द्वारा, लोक के लिए’ स्वरूप में संचालित करने के बजाय ‘सत्ता का, सत्ता के द्वारा, सत्ता के लिए’ स्वरूप में संचालित करने लगी हैं।
इन परिस्थितियों में कई लोगों के लिए भारत जैसे देश में लोकतंत्र की स्थिति पर बात करना बेमानी हो सकता है, लेकिन बात जब वैश्विक परिदृश्य की और विश्व स्तर पर बनने वाली छवि की हो तो यह बात बहुत मायने रखती है कि कोई देश, शासन व्यवस्था के स्तर पर लोकतांत्रिक है या नहीं और यदि है तो वहां लोकतंत्र की स्थिति अथवा दशा क्या है?
इस लिहाज से हाल ही में जारी हुए ‘विश्व लोकतंत्र सूचकांक’ (डेमोक्रेसी इन्डेक्स) के आंकड़े भारत के लिए उत्साहवर्धक नहीं हैं। वर्ष 2019 में 167 देशों की इस सूची में भारत दस पायदान नीचे खिसक गया है। सरकार के स्तर पर इन आंकड़ों को कितनी तवज्जो दी जाएगी या कि उस पर क्या प्रतिक्रिया होगी कहा नहीं जा सकता, पर इतना तय है कि इन आंकड़ों ने ‘महान’ या दुनिया के ‘सबसे बड़े’ लोकतंत्र की हमारी छवि को चोट पहुंचाई है।
यह इंडेक्स ब्रिटिश संस्थान ‘द इकोनॉमिस्ट ग्रुप’ के सहयोगी संस्थान ‘इकॉनामिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट’ (ईआईयू) द्वारा तैयार किया जाता है। ईआईयू की ओर से जारी 2019 की लोकतंत्र की वैश्विक सूची में भारत 41 वें स्थान से लुढ़क कर 51वें स्थान पर आ गया है। 2018 की सूची में भारत के खाते में दस में से 7.23 अंक थे, जो अब घटकर 6.90 रह गए हैं।
ईआईयू ने दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति के आकलन का यह काम 2006 से शुरू किया था। उस साल भारत में लोकतंत्र की स्थिति को देखते हुए दस में से 7.68 अंक दिए गए थे। पिछले 13 सालों में भारत को सर्वाधिक 7.92 अंक 2014 में मिले थे। वह साल यूपीए सरकार के जाने और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के आने का साल था। उसके बाद भारत यह आंकड़ा नहीं छू सका। और इस बार तो 13 सालों में पहली बार वह सात अंक से भी नीचे आ गया है।
लोकतंत्र सूचकांक विभिन्न देशों में लोकतंत्र की स्थिति को दर्शाने वाला आंकड़ा है और यह सरकार के कामकाज, चुनाव प्रक्रिया व बहुलतावाद, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक स्वतंत्रता पर आधारित होता है। कुल दस अंकों की आकलन प्रणाली में देशों को चार प्रकार की शासन व्यवस्था में बांटा जाता है- ‘पूर्ण लोकतंत्र’ (8 से ज्यादा अंक हासिल करने वाले), त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र (6 से ज्यादा लेकिन 8 या 8 से कम अंक वाले), मिश्रित शासन (4 से ज्यादा लेकिन 6 या 6 से कम अंक हासिल करने वाले) और सत्तावादी या अधिनायकवादी शासन (4 या उससे कम अंक वाले)।
इस हिसाब भारत को जो अंक दिए गए हैं उनके मुताबिक हम ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी में आते हैं। अमेरिका भी इसी श्रेणी में है। सूची के पांच शीर्ष देशों में क्रमश: नार्वे, आइसलैंड, स्वीडन, न्यूजीलैंड और फिनलैंड हैं जबकि सबसे निचली पायदान पर रहने वाले पांच देश हैं उत्तरी कोरिया, कांगो, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, सीरिया और चाड। सबसे खराब स्थिति वाले अंतिम पांच देशों की सूची में हैरान करने वाली बात यह है कि सीरिया पिछली बार की तुलना में दो पायदान ऊपर चढ़ा है।
हमारी रुचि जिन देशों के बारे में अधिक जानने की रहती है, यदि उन देशों की बात करें तो चीन 2.26 अंकों के साथ अब 153वें पायदान पर है। पाकिस्तान कुल 4.25 अंकों के साथ 108वें स्थान पर, श्रीलंका 6.27 अंकों के साथ 69वें और बांग्लादेश 5.88 अंकों के साथ 80वें स्थान पर है।
लेकिन दूसरे देशों की बात छोड़कर हम यदि अपने देश के बारे में बात करें तो भारत का ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ बने रहना और उसमें भी दस पायदान नीचे खिसक जाना हमारे सामाजिक ढांचे और शासन प्रणाली दोनों की खामियों को इंगित करता है। ऐसा नहीं है कि भारत को इस इंडेक्स में पहली बार ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ बताया गया हो। जब से इस इंडेक्स को तैयार करने का काम शुरू हुआ है तब से भारत ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ की सूची में ही रहा है। लेकिन उसके बावजूद उसे दस में से सात या अधिक अंक मिलते रहे हैं। 2014 में तो यह 7.92 अंकों के साथ ‘पूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी के बहुत नजदीक था, लेकिन उसके बाद से ही उसके परफार्मेंस में गिरावट आती गई।
यहां यह जानना जरूरी है कि आखिर वो कौन से कारण रहे जिनके चलते भारत के लोकतंत्र को दस पायदान नीचे खिसकना पड़ा। डेमोक्रेसी इन्डेक्स के पिछले साल यानी 2018 के आंकड़ों से तुलना करें तो बीते एक साल में तीन मोर्चों पर हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को चोट पहुंची है। इसमें सबसे बड़ी चोट नागरिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में पहुंची है। इस क्षेत्र में 2018 में भारत को दस में से 7.35 अंक मिले थे जबकि इस बार उसे 6.76 अंक ही मिले हैं, यानी .59 अंकों की कमी आई है।
इसी तरह राजनीतिक भागीदारी में पिछले साल हमें दस में से 7.22 अंक मिले थे और इस बार 6.67 अंक मिले हैं यानी .55 अंक कम। और तीसरा गड्ढा चुनाव प्रक्रिया और बहुलतावाद के क्षेत्र में हुआ है जहां पिछली बार हमारे खाते में दस में से 9.17 अंक थे वहीं इस बार ये घटकर 8.67 अंक रह गए हैं। मतलब यहां .5 अंकों का नुकसान हुआ।
सरसरी तौर पर देखें तो ये अंक कुछ खास कहते हुए नहीं लगेंगे लेकिन अंकों के बजाय हम यदि गड्ढे वाले मापदंडों या आकलन आधारों पर ध्यान दें तो हमें समझ में आएगा कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे या स्वरूप को कहां कहां चोट पहुंच रही है या वह कैसे कमजोर हो रहा है। हमारी चुनाव प्रक्रिया और बहुलतावाद की संस्कृति कमजोर हुई है, राजनीतिक भागीदारी कम हुई है और सबसे बड़ी बात कि नागरिक स्वातंत्र्य पर चोट पहुंची है।
मजे की बात यह है कि इंडेक्स के आकलन के मुताबिक पिछले एक साल में हमारी सरकार के कामकाज और हमारी राजनीतिक संस्कृति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। इन दोनों ही क्षेत्रों में हमारे परफार्मेंस को ठीक उतने ही अंक मिले हैं जितने पिछली बार मिले थे।
तो क्या हम यह मानें कि सरकारों के कामकाज की शैली के यथावत बने रहने या उसकी निरंतरता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़, चुनाव प्रक्रिया से लेकर हमारे बहुलतावादी सामाजिक ढांचे और नागरिक स्वातंत्र्य को चोट पहुंचाने का काम किया है? आंकड़े तो कम से कम यही कह रहे हैं और यह स्थिति भारत के लोकतंत्र को लेकर चिंता पैदा करने वाली है।