नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी के खिलाफ देश भर में हो रहे प्रदर्शन और मौजूदा राजनीतिक स्थिति पर चर्चा के लिए सोमवार को दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब यह कहा कि आज देश के किसानों और छात्रों में केंद्र सरकार के खिलाफ बेहद गुस्सा है और इस गुस्से की मुख्य वजह बेरोजगारी और महंगाई है तो याद आया कि अरे, हां, बेरोजगारी और महंगाई भी तो मुद्दा हैं।
राहुल ने कहा- मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देता हूं कि वे बिना पुलिस सुरक्षा के किसी भी यूनिवर्सिटी में जाकर दिखाएं और वहां के छात्रों को बताएं कि आखिर आज देश की अर्थव्यवस्था की यह हालत क्यों है? देश में इतनी बेरोजगारी क्यों है? और सरकार युवाओं के लिए क्या कर रही है? वे छात्रों को यह भी बताएं कि उन्हें आखिर रोजगार कैसे मिलेगा, सरकार नौकरियां देने के लिए क्या कर रही है और कैसे देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकेगी?
राहुल गांधी के सवाल बिलकुल जायज और प्रासंगिक हैं। क्योंकि तमाम इधर-उधर के फसादों और विवादों में जो बात लगातार पीछे और पीछे धकेली जा रही है वो यह कि देश के आर्थिक हालात चिंताजनक हैं। राजनीतिक कारणों से राहुल गांधी की मांग को यदि एक बार के लिए अलग भी रख दिया जाए तो भी उस खबर का क्या करें जो मंगलवार को अखबारों में बहुत प्रमुखता से छपी है और जो कहती है कि वर्ष 2019-20 में युवाओं को इसके पिछले साल की तुलना में 16 लाख रोजगार कम मिलेंगे।
जिस रिपोर्ट के आधार पर यह खबर बनी है वह देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्यकांति घोष की रिपोर्ट है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2018-19 में 89.7 लाख नौकरियां मिली थीं। कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के आंकड़ों के मुताबिक इस वित्त वर्ष में अप्रैल से अक्टूबर 2019 तक सिर्फ 43.1 लाख नौकरियां ही मिल पाई थीं। यदि यही गति रहे तो पूरे वर्ष के लिए नौकरियों की औसत उपलब्धता 73.9 लाख होगी यानी पिछले वित्त वर्ष की तुलना में लगभग 16 लाख कम।
रोजगार न मिलने के साथ साथ एक और बड़ी समस्या खराब आर्थिक स्थिति के चलते उन लोगों का रोजगार छिन जाना भी है जो अब तक कहीं न कहीं रोजगार कर रहे थे। इस हिसाब से बेरोजगारी दो तरह से बढ़ रही है। एक उनके कारण जो हर साल लाखों की संख्या में पढ़ लिखकर रोजगार की तलाश में निकल रहे हैं और दूसरे वो जो लगा लगाया रोजगार या नौकरी छूट जाने के कारण बेरोजगार हो गए हैं।
चूंकि सरकारी रोजगार की संख्या भी लगातार सिकुड़ती जा रही है इसलिए वहां भी उम्मीद टूट रही है। दूसरी तरफ आर्थिक हालत खराब होने के बावजूद जो कंपनियां छंटनी जैसा उपाय न भी अपना रही हैं, उन्होंने भी कर्मचारियों के वेतन, भत्तों व अन्य सुविधाओं में या तो भारी कटौती कर दी है या फिर उन्हें बंद कर दिया है। यही हाल कर्मचारियों को मिलने वाली सालाना वेतनवृद्धि का भी है। इसमें भी या तो कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है या हो भी रही है तो बढ़ती महंगाई और खर्चों की तुलना में वह कुछ भी नहीं है।
महंगाई के मोर्चे पर भी लगातार बुरी खबरें ही मिल रही हैं। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर महीने में खुदरा महंगाई की दर 7.35 फीसदी पर पहुंच गई है जो पिछले पांच सालों में सबसे अधिक है। इससे पहले मोदी सरकार पहली बार आने के बाद जुलाई 2014 में यह 7.39 फीसदी रेकार्ड की गई थी। चिंता की बात यह है कि महंगाई दर बढ़ने के पीछे मुख्य कारण खाने पीने की चीजों की कीमतों में इजाफा होना है। दिसंबर 2018 की तुलना में दिसंबर 2019 में सब्जियों के दाम 60 फीसदी से भी अधिक बढ़ गए। आसमान छूती प्याज की कीमतों के चलते सबसे ज्यादा हाहाकार मचा।
खाने पीने की बाकी चीजों की महंगाई दर दिसंबर 2019 में 14.12 फीसदी रही जो एक साल पहले यानी दिसंबर 2018 में 2.65 फीसदी चल रही थी। इस अवधि में दाल की कीमतों में जहां 15.44 फीसदी की बढ़ोतरी हुई तो अनाज की कीमतों में 4.36 फीसदी की। मसालों के दाम 5.79 फीसदी बढ़े तो पेय पदार्थों की कीमतों में 12.16 फीसदी का इजाफा हुआ। यानी कुलमिलाकर लोगों का रोजमर्रा का खानापीना भी और मुश्किल या महंगा बना।
ऐसा नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था के हालात कोई रातोंरात बिगड़े हों। स्थिति की भयावहता को दबाने या उसको कमतर दिखाने की तमाम कोशिशों के बावजूद समय के साथ साथ सरकारी एजेंसियों और आर्थिक सलाहकारों को भी यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि हालात अच्छे नहीं हैं। जीडीपी के लगातार कम होते अनुमानों ने सरकार को भी अपने आशावादी बयानों से पीछे हटते हुए वास्तविकता स्वीकार करने को मजबूर किया। हालांकि सरकार आज भी पूरी तरह यह बात स्वीकार नहीं कर रही कि हालात बहुत खराब हैं। उसका यह तर्क अब भी कायम है कि पूरे विश्व में अर्थव्यवस्था के बुरे हाल हैं और ऐसी स्थिति में भारत की जीडीपी जो भी, जैसी भी स्थिति में है वह बाकी कई देशों की तुलना में बहुत बेहतर है।
अर्थव्यवस्था की इस पतली हालत के बीच ही कुछ दिनों में देश का अगले वित्त वर्ष यानी 2020-21 का बजट आने वाला है। इसमें एक तरफ सरकार पर लोगों का यह दबाव होगा कि वह उन्हें बढ़ती महंगाई से निजात दिलाने के लिए राहतकारी कदम उठाए, अधिक रियायतें दे, वहीं दूसरी तरफ सरकार की विवशता यह होगी कि वह किस तरह अपनी माली हालत को सुधारे। जाहिर है बगैर करों में बढ़ोतरी या आय के नए स्रोत तलाशे ऐसा करना संभव नहीं होगा। और यदि ऐसा किया गया तो राहत एक जेब में आएगी और दूसरी जेब से निकल जाएगी।
इन सारी परिस्थितियों के बीच विडंबना यह है कि देश महंगाई और बेरोजगारी के बजाय सीएए, एनपीआर और एनआरसी जैसी बहस में उलझा हुआ है। जिस युवा पीढ़ी को रोजगार या अपने भविष्य की चिंता में लगना था उसे सड़कों पर प्रदर्शन करने और पुलिस से भिड़ने में लगा दिया गया है। सरकार से लोगों की आम जिंदगी को प्रभावित करने वाले सवालों के जवाब मांगने के बजाय लोग गैरजरूरी सवालों में उलझा दिए जाएं, किसी भी सरकार के लिए इससे ज्यादा मुफीद और क्या हो सकता है?