गुजरे हुए साल में 27 दिसंबर को मैंने इसी कॉलम का शीर्षक दिया था- संघीय ढांचे के लिए बहुत खतरनाक है यह टकराव– उस दिन मैंने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में बन रहे हालात का जिक्र करते हुए लिखा था- ‘’कानून के समर्थन और विरोध की इस स्थिति ने सबसे बड़ा सवाल यह पैदा किया है कि क्या देश केंद्र और राज्यों के बीच किसी खतरनाक टकराव की ओर बढ़ रहा है? निश्चित रूप से संविधान में केंद्र को बहुत सारी शक्तियां दी गई हैं लेकिन पूर्व में ऐसा कभी नहीं देखा गया कि राज्य इस तरह से केंद्र के खिलाफ उठ खड़े हुए हों और सार्वजनिक रूप से बयान देते हुए और सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करते हुए, यह कह रहे हों कि वे केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कानून को लागू नहीं करेंगे।‘’
मैंने यह आशंका भी जताई थी कि- ‘’यदि राज्य सरकारें केंद्र के खिलाफ ताल ठोककर खड़ी हो जाएं या केंद्र के फैसलों के खिलाफ कोई कंसोर्टियम बनाकर एकजुट विरोध करते हुए केंद्रीय कानूनों और निर्देशों को अपने यहां लागू करने से मना करें, केंद्रीय एजेंसियों को अपने यहां काम करने या फिर उनके अपने यहां घुसने पर पाबंदी लगा दें तो क्या होगा? कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में केंद्र को राज्यों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन विरोध यदि सामूहिक हो तो क्या केंद्र ऐसी किसी भी कार्रवाई को आसानी से अंजाम दे पाएगा?’’
उस दिन की बात आज फिर से इसलिए उठानी पड़ रही है क्योंकि केरल से इस टकराहट की शुरुआत हो गई है। वहां की विधानसभा ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताते हुए केंद्र से अनुरोध किया है कि वह इस कानून को वापस ले। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने विधानसभा में प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि- ‘’सीएए धर्मनिरपेक्ष नजरिए और देश के ताने बाने के खिलाफ है। इसके कारण नागरिकता देने में धर्म के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव होगा। यह कानून संविधान के आधारभूत मूल्यों और सिद्धांतों के विपरीत है।‘’
केरल विधानसभा की ओर से प्रस्ताव पारित किए जाने के बाद खबरें आ रही हैं कि पुडुचेरी विधानसभा भी इस तरह का प्रस्ताव ला सकती है। तमिलनाडु में जहां विपक्षी दल डीएमके ने एआईएडीएमके सरकार से ऐसा प्रस्ताव लाने की मांग की है, वहीं आम आदमी पार्टी ने पंजाब विधानसभा में इस तरह का प्रस्ताव पारित करने की मांग उठाई है। कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर सीएए के खिलाफ स्टैंड ले चुकी है और मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में उसके मुख्यमंत्री सड़कों पर उतरकर इस कानून का विरोध कर चुके हैं।
दूसरी ओर केंद्र सरकार और उसके तमाम मंत्री देश भर में सभाएं और प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर लोगों को यह बता रहे हैं कि सीएए से भारतीय नागरिकों को डरने की कोई जरूरत नहीं है। यह कानून नागरिकता देने की बात करता है नागरिकता छीनने की नहीं। इस कानून का लेना-देना पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले उन हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों से है जो इन पड़ोसी देशों में उनके साथ धार्मिक आधार पर होने वाली प्रताड़ना से तंग आकर भारत में शरण ले रहे हैं। सीएए इन्हीं लोगों को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अवसर देते हुए भारत की नागरिकता प्रदान करता है।
चूंकि केरल विधानसभा का प्रस्ताव इस मामले को एक नई दिशा देता है इसलिए उस पर बात होनी चाहिए। माकपा के नेतृत्व वाली सरकार के इस प्रस्ताव का कांग्रेस ने भी समर्थन किया है। प्रस्ताव पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का कहना है कि इसकी कोई कानूनी या संवैधानिक वैधता या महत्व नहीं है, क्योंकि नागरिकता विशेष रूप से ‘केंद्रीय’ विषय है।
विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव को लेकर विवाद बढ़ने पर माकपा के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने स्पष्ट किया है कि ‘’इसे संवैधानिक प्रावधानों की मुखालफत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। विधानसभा ने केंद्र सरकार से इस कानून को वापस लेने का ‘आग्रह’ भर किया है क्योंकि उसके मुताबिक यह कानून संविधान की मूल भावना के विपरीत है। करात ने कहा कि संसद द्वारा पारित कानून पर आपत्ति उठाई जा सकती है। हरेक को यह कहने का अधिकार है कि अमुक कानून गलत है। विधानसभा ने कोई गैरकानूनी कदम नहीं उठाया है।‘’
एक भ्रम यह भी है कि सीएए को देश की विधानसभाओं के अनुमोदन की जरूरत होगी। ऐसा नहीं है। इस तरह का अनुमोदन सिर्फ संविधान संशोधन वाले विधेयकों को लेकर जरूरी होता है। सीएए संसद से पारित होने और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून बन चुका है। केरल विधानसभा में जो हुआ वह कानून को खारिज करना नहीं बल्कि विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केंद्र से उसे वापस लेने का आग्रह भर है। विधानसभाओं को ऐसा प्रस्ताव पारित करने का हक है।
दरअसल सीएए को लेकर इन दिनों ‘देशमंथन’ हो रहा है। इसमें एक तरफ सत्ता पक्ष है तो दूसरी तरफ विपक्ष। दोनों पक्षों ने मंथन का सुमेरु संविधान को बना लिया है और सीएए के समर्थन और विरोध में जो कुछ हो रहा है उससे संविधान की ही धज्जियां उड़ रही हैं। केरल विधानसभा के प्रस्ताव का भले ही कानूनी या संवैधानिक रूप से कोई महत्व न हो लेकिन उसने एक ऐसा रास्ता खोल दिया है जिस पर चलकर केंद्र और राज्यों के बीच टकराहट नया मोड़ ले सकती है।
जैसाकि कि केंद्रीय गृह मंत्री और कानून मंत्री कह रहे हैं कि राज्यों को यह कानून रोकने या उस पर अमल से इनकार करने का अधिकार ही नहीं है, तो वे सही हैं। यह भी सही है कि लोकसभा में सरकार के पास भरापूरा बहुमत है और राज्यसभा में वह जोड़तोड़ कर बिल पास करवाती रही है। लेकिन यह भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि इस समय भाजपा देश में अपने बूते सिर्फ 11 राज्यों में सत्ता में है। पहले वह देश के 71 प्रतिशत भूभाग पर राज कर रही थी जो अब सिकुड़कर 35 फीसदी रह गया है। इसी तरह पहले देश की 68 फीसदी आबादी भाजपा सरकारों की छाया तले थी जो अब कम होकर 43 फीसदी रह गई है।
यानी देश का 65 फीसदी भूभाग और 57 फीसदी आबादी अब गैर भाजपा दलों की छत्रछाया में है। यह भौगोलिक और जनसांख्यिकीय आंकड़ा अपने आप में कई आयामों को समेटे हुए है इसे इग्नोर नहीं किया जाना चाहिए। एक दूसरे को गलत साबित करने से बात नहीं बनेगी। केंद्र व राज्य के संबंधों पर पड़ने वाला इसका कोई भी विपरीत असर देशहित में नहीं होगा।