खुद को हत्‍यारा और कुत्‍ता बताकर हम क्‍या पा लेंगे अरुंधति?

देश और समाज जब भी संकट में होता है तो उसे संकट से उबारने और सही दिशा में ले जाने की उम्‍मीद उन लोगों से की जाती है जो जिम्‍मेदार पदों पर बैठे हैं या फिर बुद्धिजीवी हैं। क्‍योंकि सामान्‍य जन ऐसे समय में अपनी समझ के अनुसार प्रतिक्रिया देता है। उसकी प्रतिक्रिया जज्‍बाती और जुनूनी रंग के साथ आती है और जब आप जज्‍बाती, जुनूनी या उन्‍मादी होकर प्रतिक्रिया देते हैं तो कई बार वह प्रतिक्रिया आपको ही कठघरे में खड़ा कर देती है।

लेकिन जिम्‍मेदार पदों पर बैठे लोग या जिन लोगों के बारे में यह भ्रम अथवा धारणा प्रचलित है कि उनका बुद्धि और विवेक से थोड़ा बहुत लेना देना है, जब वे भी उन्‍मादी होकर बात करने लगें तो संकट और बढ़ जाता है। अज्ञानी के बोल उतना नुकसान नहीं पहुंचाते जितना किसी ‘ज्ञानी’ की मूर्खता या अविवेकपूर्ण कृत्‍य पहुंचाते हैं।

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जो कुछ चल रहा है उसमें बहुत कुछ रोल जबान का भी है। चाहे इस कानून का बचाव करना हो या फिर उसका विरोध, समाज के रन-वे पर जबानें सिर्फ फिसल ही नहीं रहीं उनकी ‘क्रैश लैंडिंग’ हो रही है। जबानों की यह क्रैश लैंडिंग कितने लोगों को हताहत कर रही हैं और समाज के ताने बाने को कितना नुकसान पहुंचा रही हैं किसी को अंदाज ही नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिल्‍ली की रैली में डिटेंशन सेंटर और एनआरसी को लेकर दिए गए बयान, जिसे विपक्ष ने गलतबयानी करार दिया है, का विवाद अभी जारी ही है कि ऐसे कई और बयान सुर्खियों में आ गए हैं। इनमें से कई बयान सत्‍तारूढ़ दल के उन नेताओं के भी हैं जो इसी तरह के बयान देने के लिए कुख्‍यात हैं, लेकिन एक बयान कथित बुद्धिजीवी अरुंधति रॉय का है जिसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

पहले जरा अरुंधति रॉय का वह बयान सुन लीजिये। सीएए और एनआरसी को लेकर दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में हुए विरोध प्रदर्शन को संबोधित करते हुए अरुंधति ने लोगों से कहा कि जब एनपीआर को लेकर सरकारी कर्मचारी आपके घर आएं तो आप अपना गलत नाम बता दीजिये। और यह गलत नाम क्‍या हो, इसका तरीका भी अरुंधति ने ही बता डाला। वे बोलीं- ‘’जब आपके घर में आएंगे एनपीआर को लेकर, जब आपसे आपका नाम पूछेंगे, आप कोई दूसरा नाम दे दो। हम लोग पांच नाम तय करते हैं रंगा-बिल्‍ला रख दो या कुंग फू कुत्‍ता रख दो।‘’ इसी तरह उन्‍होंने पते को लेकर भी लोगों को सलाह दी कि वे अपना पता 7 रेस कोर्स रोड (प्रधानमंत्री आवास) बता दें। इतना ही नहीं उन्‍होंने लोगों से यह भी कहा कि अपनी अन्‍य जानकारियां भी गलत लिखवाएं।

एक ओर जब सीएए, एनआरसी तथा एनपीआर का विरोध करने वाले समूह प्रधानमंत्री पर गलतबयानी का आरोप लगा रहे हैं, वैसी स्थिति में अरुंधति जैसे लोगों के बारे में भी उतनी ही तीखी बात होनी चाहिए। पूछा जाना चाहिए कि उन्‍होंने जो बयान दिया है यह लोगों को दिशा देने वाला है या उन्‍हें भटकाने अथवा अपराध के रास्‍ते पर ले जाने वाला। लोगों को यह सलाह देकर कि वे सरकारी दस्‍तावेज में अपना नाम या पता गलत लिखवाएं, अरुंधति उन्‍हें राह दिखा रही हैं या उन्‍हें कानून का मुजरिम बनाने की ओर धकेल रही हैं।

जरा कल्‍पना कीजिये कि इस सलाह को मानने के क्‍या परिणाम होंगे? इससे सरकार के किसी कथित गलत कदम का प्रभावी विरोध स्‍थापित होगा या विरोध करने वाला खुद अपराधी के रूप में स्‍थापित होगा। आप में कितना ही गुस्‍सा हो लेकिन क्‍या आप सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही भीड़ को क्‍या यह कह सकते हैं कि भीड़ को काबू में करने आई पुलिस का सिर फोड़ दीजिए, थानों में आग लगा दीजिए। यदि किसी ने गलत नाम और पता लिखवाया तो कानून की जद में आकर वह सरकारी दफ्तरों या अदालतों के जिस दुष्‍चक्र में फंसेगा, उससे उसे बचाने के लिए कौन आएगा, क्‍या अरुंधति जैसे लोग, जो सिर्फ ऐसे मौकों पर भाषण देने के लिए ही यदाकदा प्रकट होते रहते हैं?

दूसरी बात अरुंधति के भाषण के दौरान दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय परिसर में मौजूद लोगों की है। याद रखें कि यह विरोध प्रदर्शन किसी गली मोहल्‍ले या ‘कपड़ों से पहचानी जाने वाली भीड़’ से घिरे चौराहे पर नहीं हो रहा था। यह विरोध एक शिक्षा संस्‍थान में हो रहा था जिसके बारे में यह मानकर चला जाना चाहिए कि वहां मौजूद लोग पढ़े लिखे और विवेकशील होंगे। लेकिन दुख की बात है कि जिस समय अरुंधति लोगों को गलत नाम पता लिखवाने की यह ‘बेशकीमती’ सलाह दे रही थीं, उसम समय वहां मौजूद लोग खुशी से किलकारी भरते हुए उनका समर्थन कर रहे थे। किसी ने यह कोशिश नहीं की कि अरुंधति से कहे कि मोहतरमा आप गलत दिशा में जा रही हैं।

और यदि विश्‍वविद्यालयों में पढ़ने वालों का यह हाल है तो फिर हम उन लोगों से किस आचरण की उम्‍मीद करें जिन्‍होंने विश्‍वविद्यालय तो छोडि़ये, पाठशाला तक का मुंह नहीं देखा। एक तरफ सत्‍ता और राजनीति लोगों को भड़काने और गुमराह करने का काम कर रही तो दूसरी ओर क्‍या खुद को बुद्धिजीवी और मार्गदर्शक समझने वाले लोग भी यही काम नहीं कर रहे? अरुंधति रॉय सौभाग्‍य या दुर्भाग्‍य से ‘जानी-मानी’ लेखिकाओं में शुमार होती हैं। उन्‍हें लेखन में दुनिया का प्रतिष्ठित बुकर पुरस्‍कार मिल चुका है, लेकिन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में उनका आचरण किसी ‘बुकी’ से कम नहीं था।

यह बात भी हैरान करने वाली है कि गलत नाम लिखाने की सलाह देने वाली अरुंधति को पांच गलत नाम तय करते हुए ऐसे नामों की सूची में रंगा-बिल्‍ली और कुंगफू-कुत्‍ता जैसे ही नाम याद आए। आज की पीढ़ी को तो शायद पता भी नहीं होगा कि रंगा-बिल्‍ली कौन थे। ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दूं कि ये दोनों कुख्‍यात अपराधी थे जिन्‍होंने 26 अगस्‍त 1978 को नौसेना के अधिकारी मदनमोहन चोपड़ा के किशोरवय के दो बच्‍चों गीता और संजय का फिरौती के लिए अपहरण कर उनकी हत्‍या कर दी थी। इन्‍हीं गीता और संजय चोपड़ा के नाम पर भारतीय बाल कल्‍याण परिषद हर साल वीरता पुरस्‍कार भी देती है।

क्‍या अरुंधति चाहती हैं कि लोग उनकी सलाह पर अमल करते हुए एक तो गलत जानकारी देने का अपराध करें और वह गलत नाम भी दो कुख्‍यात अपराधियों का हो। क्‍या अरुंधति के नामों की सूची ऐसे अपराधियों के नाम से ही तैयार होती है? और नाम चयन के बारे में इस महान लेखिका का दूसरा सुझाव है- कुंगफू-कुत्‍ता… अब लोग ही तय करें कि सरकार का विरोध करते हुए कौन-कौन खुद को कुत्‍ता बताने के लिए तैयार है… आप चाहें तो इससे भी नीचे उतर सकते हैं, संभावनाएं अनंत हैं…

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