चुनाव का विश्‍लेषण बहुत जोखिम का काम है भाई

हमारे यहां चुनाव परिणामों के विश्‍लेषण अकसर वस्‍तुनिष्‍ठ न होकर समय और परिस्थिति सापेक्ष होते हैं। इसका उदाहरण देखना हो तो चुनाव के अंतिम या निर्णायक परिणाम आने से पहले टीवी चैनलों पर होने वाली बहस और विश्‍लेषणों को देख लीजिए। ऐसी बहसों में ज्‍यादातर बात रुझानों पर होती है और जैसे जैसे रुझान बदलते हैं राजनीतिक विश्‍लेषकों की राय भी अपनी दिशाएं बदलती चली जाती हैं। ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जब कोई विश्‍लेषक डाक मतपत्रों की गणना के परिणामों या रुझान के आधार पर अपनी कोई राय प्रकट करे और अंत तक उस पर टिका रहे।

वरना होता तो यही है कि यदि एक पार्टी आगे बढ़ती दिखी तो उसके पक्ष में दर्जनों तर्क देकर यह स्‍थापित करने की कोशिश होनी लगती है कि यह तो शुरू से ही लग रहा था कि इस बार ऐसा ही होगा। हारने वाली पार्टी के बारे में भी ऐसा ही रवैया होता है। तर्कों की बाढ़ से यह स्‍थापित कर दिया जाता है कि उस पार्टी की ऐसी दुर्दशा तो होनी ही थी। बात करते समय मतगणना में पीछे चलने वाली पार्टी की रणनीतिक चूकों और उसके नेताओं की खामियों कमजोरियों का मानो पिटारा ही खुल जाता है। लेकिन जैसे ही रुझानों की अदला-बदली हुई यानी आगे चलने वाली पार्टी पीछे हो जाए और पीछे चलने वाली आगे बढ़ जाए तो ये सारे के सारे विश्‍लेषण भी उसी धारा में बहने लगते हैं।

झारखंड का ही मामला लीजिये। इस राज्‍य के चुनाव परिणाम देश की जिस राजनीतिक परिस्थिति में आए हैं वह बहुत अलग और कई तरह से चार्ज्‍ड है। झारखंड में पांच चरणों में मतदान हुआ और इनमें से चार चरण नागरिकता संशोधन कानून संसद में पास होने के बाद उस पर सड़कों पर बवाल शुरू होने से पहले हो चुके थे। जबकि दो चरण (16 और 20 दिसंबर वाले) इस कानून पर हुए बवाल के बाद संपन्‍न हुए। टीवी चैनलों पर बहस इस बात को लेकर भी हो रही है कि सीएए या एनआरसी को लेकर देश में मचे बवाल का झारखंड चुनाव पर क्‍या असर हुआ?

विश्‍लेषकों का एक धड़ा यह स्‍थापित करने पर तुला है कि सीएए और एनआरसी के बवाल ने भाजपा को और अधिक नुकसान पहुंचाया। कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी सभाओं में नए कानून का जोर शोर से जिक्र करते हुए इसके विरोधियों को आड़े हाथों लिया था। इसी दौरान होने वाले प्रदर्शनों को लेकर प्रधानमंत्री की दुमका में हुई चुनावी रैली के संबोधन का वह हिस्‍सा बार बार कोट किया जा रहा है जिसमें नरेंद्र मोदी ने कहा था कि-‘’कांग्रेस और उसके साथी तूफान खड़ा कर रहे हैं। उनकी बात चलती नहीं है तो आगजनी फैला रहे हैं। ये जो आग लगा रहे हैं, ये कौन हैं, उनके कपड़ों से ही पता चल जाता है।‘’

दूसरी तरफ भाजपा नेताओं की दलील है कि सीएए और एनआरसी का झारखंड के चुनाव पर कोई खास असर नहीं हुआ। वहां पार्टी की पराजय के कारण बहुत अलग हैं। आश्‍चर्यजनक रूप से इसमें एक कारण पार्टी के साथ साथ खुद भी चुनाव हार चुके पूर्व मुख्‍यमंत्री रघुवरदास के अहंकार को भी बताया जा रहा है। खुद रघुवरदास का बयान आया कि यह पार्टी की नहीं उनकी व्‍यक्तिगत हार है। कोई पूछेगा नहीं लेकिन भाजपा नेतृत्‍व से पूछा जरूर जाना चाहिए कि भाई जब आपको पता चल गया था कि जिसे आपने मुख्‍यमंत्री बना रखा है वह अहंकारी हो गया है तो उसे बनाए क्‍यों रखा या फिर उसके व्‍यवहार को ठीक क्‍यों नहीं करवाया?

खैर… मैं बात कर रहा था सीएए और एनआरसी विवाद की। आज जब भाजपा झारखंड में चुनाव हार गई है तो कहा जा रहा है कि इस विवाद का भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा। उसने इस कानून के बहाने जिस हिन्‍दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को भुनाने की कोशिश की थी वह कारगर नहीं हो पाया। लेकिन यकीन जानिए, यदि झारखंड में भाजपा जीत जाती तो विश्‍लेषकों का सुर इसके बिलकुल विपरीत होता। वे कहते, विपक्ष भले ही देश में सड़कों पर उतर आया हो लेकिन देश की जनता सीएए और एनआरसी पर भाजपा के साथ है। चुनाव नतीजों ने इस पर मुहर लगा दी है, वगैरह…

कई बार मुझे लगता है कि हम लोग बहुत सतही होकर चीजों को देखने लगते हैं। जिसे राजनीति कहते हैं वह बहुत सारी चीजों से मिलकर बना रसायन है। वह मिक्‍स्‍चर नहीं कंपाउंड है। और यह कंपाउंड भी कई तरह के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्‍कृतिक, सांप्रदायिक, जातीय, आपराधिक, स्‍थानीय और बाहरी तत्‍वों के बीच होने वाली जटिल रसायनिक प्रक्रिया से तैयार होता है। इसीलिए कभी हमें लगता है कि सरकार को प्‍याज ले डूबा तो कभी लगता है किसानों का कर्ज और ब्‍याज ले डूबा। वास्‍तव में नाव डूबती क्‍यों है इसका कोई निश्चित कारण किसी को पता नहीं होता।

इसका एक और पक्ष लीजिये। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर, राष्‍ट्रीय चैनल में बैठकर बात करने वाले पत्रकार या विश्‍लेषक से आप पूछेंगे कि हार या जीत क्‍यों हुई तो हो सकता है वह आपको कई तरह के सिद्धांतों, शास्‍त्रीय व्‍याख्‍याओं और उसके खुद के आसपास मीडिया अथवा सोशल मीडिया में परिक्रमा करने वाली पोस्‍टों के आधार पर कह दे कि जीडीपी ग्रोथ रेट में कमी आने या बैंकों के लाखों करोड़ रुपये डूब जाने के कारण ऐसा हुआ। वह इसका कारण कभी बालाकोट को बता सकता है तो कभी मुद्रास्‍फीति को। लेकिन यही सवाल आप उस संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में रहने वाले किसी स्‍थानीय पत्रकार या जानकार से करें तो हो सकता है वह आपको बताए कि नेताजी ने ऐन चुनाव से पहले फलां समाज के नेता को फटकार दिया था, उस समाज ने अपने अपमान का बदला ले लिया।

कुल मिलाकर चुनाव और उसकी राजनीति को समझना बहुत ही मुश्किल है और थोड़ा बहुत आप समझ भी लें तो उसके आधार पर निष्‍कर्ष निकालना और भी ज्‍यादा मुश्किल या जोखिम भरा होता है। क्‍योकि आपको पता ही नहीं होता कि आपने जो समझा है वह सचमुच में वैसा ही है या फिर आपने अपनी समझ के अनुसार उसे समझने की कोशिश करते हुए उसे वैसा ‘समझ’ लिया है। और मैं जो कह रहा हूं उसे समझने के लिए आपको ज्‍यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। बस आप अपने टीवी पर चैनल बदलते जाइये आपको ‘समझ’ का यह फेर साफ नजर आता जाएगा।

पुरानी कहावत है ‘’कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वानी’’ लेकिन हम तो उस समय में जी रहे हैं जिसमें रिमोट या मोबाइल स्‍क्रीन पर अंगूठे की एक हरकत से वानी (वाणी) बदल रही है।

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