जैसे जैसे चुनाव की गरमी चढ़ रही है, चुनाव आयोग की साख पैंदे में जा रही है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने ठान लिया है कि चुनाव आयोग कुछ भी चिल्लाता रहे, उसके कानून कायदे कुछ भी कहते रहें, उन्हें जो करना है वे करके रहेंगे। आयोग के तमाम नोटिस और निर्देश राजनीतिक दलों और नेताओं के ठेंगे पर नजर आ रहे हैं।
वैसे तो जिस अंदाज में 17वीं लोकसभा का चुनावी हल्ला उठना शुरू हुआ था, उसी से लग गया था कि इस बार गालीगलौज का स्तर काफी ऊंचा रहेगा। मान मर्यादा के बजाय मानमर्दन पर जोर ज्यादा दिखेगा। ठीक उसी तर्ज पर ‘तू चोर, तेरा बाप चोर’ की गली मोहल्लों वाली सड़कछाप लड़ाई चुनाव भाषणों के केंद्र में है। और चुनाव आयोग बेबस-सा अपने हाथ में आचार संहिता की सड़ी गली बेंत लेकर बैठा है। ऐसी बेंत, जिससे वह किसी को सजा देने की कोशिश भी करे तो खुद उसके ही टुकड़े हो जाएं।
हाल ही के कुछ किस्से लीजिए। सबसे पहला किस्सा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है। चुनाव शुरू होने से पहले ही चुनाव आयोग ने साफ कर दिया था कि प्रचार के दौरान भारत की सेना को किसी भी सूरत में इस्तेमाल न किया जाए। सेना को राजनीति में न घसीटा जाए। लेकिन यदि किसी की सुन लें तो फिर मोदी ही क्या… प्रधानमंत्री ने अपनी 56 इंची छाती ठोक कर इस निर्देश का उल्लंघन किया।
महाराष्ट्र के लातूर की रैली में उन्होंने कहा- ‘‘मैं जरा कहना चाहता हूं मेरे फर्स्ट टाइम वोटरों को। क्या आपका पहला वोट पाकिस्तान के बालाकोट में एयर स्ट्राइक करने वाले वीर जवानों के नाम समर्पित हो सकता है क्या? मैं मेरे फर्स्ट टाइम वोटर से कहना चाहता हूं कि आपका पहला वोट पुलवामा (हमले) के वीर शहीदों को समर्पित हो सकता है क्या?’’ इस मामले में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो हजार कदम और आगे बढ़ गए और उन्होंने भारत की सेना को ‘मोदी की सेना’बता दिया।
एक कमाल केंद्र सरकार की महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने किया। उन्होंने सुलतानपुर के एक मुस्लिम बहुल इलाके की चुनावी सभा में कहा-‘’अगर मैं मुसलमानों के बिना समर्थन के जीतती हूं और उसके बाद वे मेरे पास किसी काम के लिए आते हैं तो मेरा रवैया भी वैसा ही होगा।’ …’’मैं जीत रही हूं, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन चुनाव के बाद जब मुझे पता चलेगा कि आपकी तरफ से मुझे 100 वोट मिले या 200 वोट मिले, तो जब आप काम के लिए आएंगे तो मेरा रवैया भी वैसा ही रहेगा।’’ … ‘’हम भी कोई महात्मा गांधी की छठी औलाद नहीं हैं। ऐसा थोड़े ही है कि हम भी सिर्फ देते ही रहेंगे और चुनाव में मार खाएंगे।’’
भारत में चुनाव चल रहे हों और उनमें हिन्दू मुसलमान का जिक्र न आए यह भला कैसे हो सकता है। मेरठ की एक चुनावी सभा में योगी आदित्यनाथ बोले- ‘‘अगर कांग्रेस, सपा, बसपा को ‘अली’ पर विश्वास है तो हमें भी ‘बजरंग बली’ पर विश्वास है।’’ योगी की यह टिप्पणी देवबंद में बसपा प्रमुख मायावती के उस भाषण के जवाब में आई थी जिसमें मायावती ने मुस्लिमों से सपा-बसपा गठबंधन को वोट देने की अपील की थी।
और योगी ने जब छेड़ दिया तो माया कहां चूकने वाली थीं। उन्होंने बुलंदशहर की सभा में पूरी बुलंदी से कहा- ‘’बजरंगबली आदिवासी दलित हैं, हमारी जाति से हैं। अली भी हमारे हैं, बजरंगबली भी हमारे हैं।… योगी जी को धन्यवाद कि उन्होंने बजरंगबली की जाति बताई। बजरंगबली और अली के गठजोड़ से अच्छा रिजल्ट मिलेगा। अली और बजरंगबली ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को छोड़ दिया है।‘’
उससे पहले राजस्थान के माननीय राज्यपाल कल्याणसिंह भी ऐसा ही कुछ फरमा गए थे। उन्होंने एएनआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा था- ‘’हम सभी बीजेपी के कार्यकर्ता हैं और हम चाहते हैं कि बीजेपी बड़ी जीत हासिल करे। देश के लिए जरूरी है कि नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बनें।’ कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह एटा से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
ऐसा ही मामला कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का है जिन्होंने राफेल डील के बारे में अपने बहुचर्चित नारे ‘चौकीदार चोर है’ को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक को लपेट लिया। उन्होंने कह दिया कि अब तक तो देश की जनता ही कह रही थी, लेकिन अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया है। भाजपा ने इस टिप्पणी पर राहुल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अदालत की अवमानना और कोर्ट को गलत तरीके से उद्धृत करने की याचिका लगाई है।
अब सवाल उठता है कि जब खुलेआम यह सबकुछ हो रहा है तो चुनाव आयोग और उसकी आचार संहिता क्या कर रही है। क्या चुनाव आयोग के होने का कोई मतलब है या नहीं? ये जितने भी मामले मैंने ऊपर गिनाए हैं उनमें से अधिकांश के बारे में खबरें कहती हैं कि आयोग ने संबंधित व्यक्तियों को कारण बताओ नोटिस देकर जवाब मांगा है। जाहिर ये सारे मामले चुनाव खत्म होने तक यूं ही लटके रहेंगे।
कल्याणसिंह के मामले में तो और भी गजब हुआ है। आयोग ने वह मामला राष्ट्रपति को भेजा। राष्ट्रपति ने उसे अपनी टीप के साथ गृह मंत्रालय के पास सरका दिया। अब गृह मंत्रालय के सूत्र कह रहे हैं कि वे राष्ट्रपति भवन से आए कम्युनिकेशन पर कानूनी सलाह ले रहे हैं।
यानी कुल मिलाकर सारी मंशा लीपापोती करने की है। ऐसा लगता है कि कोई कुछ करना ही नहीं चाहता। या तो सब डरे हुए हैं या फिर ऊंट की करवट पर टकटकी लगाए वक्त का इंतजार कर रहे हैं। जो बात खुली आंखों से दिखाई दे रही है उसके लिए खुर्दबीन तलाशी जा रही है। होना तो यह चाहिए था कि दो चार मामलों में नेताओं के चुनाव रद्द कर दिए जाते। कोई संदेश तो जाता कि चुनाव आयोग सचमुच निष्पक्ष चुनाव करवा रहा है। लगता तो सही कि देश में संस्थाओं की कोई हैसियत, कोई इज्जत या उनका असर है…
पर शायद ऐसा सोच कर हम ही कोई अपराध कर रहे हैं…