ता कहुं ‘प्रभु’ कछु सुगम नहिं, जा पर तुम प्रतिकूल

क्‍या भूलें, क्‍या याद करें…

चार दिन पहले यानी गुड़ी पड़वा के दिन मैंने फेसबुक पर गोस्‍वामी तुलसीदास की एक पंक्ति यूं ही पोस्‍ट कर दी थी। यह रामचरितमानस के सुंदरकांड के एक दोहे से ली गई पंक्तियां हैं। इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं- ‘’ता कहुं प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम अनुकूल, तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकई खलु तूल’’ यानी हे प्रभु इस संसार में उस व्‍यक्ति के लिए कुछ भी कठिन या असंभव नहीं है जिस पर आप अनुकूल हों, अर्थात जिस पर आपकी कृपा हो। आपकी कृपा और प्रभाव की महिमा तो यह है कि रुई का एक रेशा भी बड़वानल (समुद्र की आग) को जला सकता है।

इन चार दिनों में वैसे तो कई घटनाक्रम हुए हैं लेकिन मध्‍यप्रदेश में हुए एक घटनाक्रम को लेकर मुझे तुलसी बाबा की ये पंक्तियां फिर से याद आ गईं। लेकिन इस बार थोड़े से फेरबदल के साथ। तुलसी चूंकि भक्‍त कवि थे और मर्यादापुरुषोत्‍तम राम उनके आराध्‍य थे, इसलिए उन्‍होंने अपने प्रभु के गुणगान में दृष्टिकोण सकारात्‍मक रखा। यही कारण रहा होगा कि अपने आराध्‍य की महिमा का बखान करते हुए उन्‍होंने कहा कि प्रभु यदि आप अनुकूल या सहाय हों तो कोई किसी का बाल भी बांका नहीं कर सकता। राम की ऐसी स्‍तुति तुलसी ने कई जगह की है। डीवी पलुसकर का गाया वो मशहूर भजन पुरानी पीढ़ी के लोगों को आज भी याद होगा- जानकीनाथ सहाय करें जब, कौन बिगाड़ करे नर तेरो…

पर यदि आज के संदर्भों में ‘प्रभु’ के मर्यादापुरुषोत्‍तम स्‍वरूप को एकबारगी दरकिनार कर दें और यह कल्‍पना करके चलें कि ‘प्रभु’ सिर्फ ‘अनुकूल’ ही नहीं होते, वे‘प्रतिकूल’ भी हो सकते हैं, तो क्‍या होगा? तुलसी तो शायद न कह पाते, लेकिन हम कह सकते हैं कि तब इस दोहे की शुरुआत कुछ इस तरह होती- ता कहुं प्रभु कछु सुगम नहिं, जा पर तुम प्रतिकूल… अर्थात् प्रभु यदि आप किसी के प्रतिकूल हैं या आप किसी से अप्रसन्‍न हैं, तो उसके लिये दुनिया में कोई भी चीज सुगम या सरल नहीं है और उसका जीना दुश्‍वार हो सकता है…

इन दिनों देश में संवैधानिक संस्‍थाओं और एजेंसियों का इस्‍तेमाल कुछ इसी अंदाज में हो रहा है। गंभीर बात यह है कि इसमें आप किसी एक पार्टी को दोष नहीं दे सकते। जो भी ‘प्रभु पद’ को प्राप्‍त है यानी जिसके भी हाथ में सत्‍ता है, वह सरकारी मशीनरी और समस्‍त संवैधानिक संस्‍थाओं और एजेंसियों का मनमाना इस्‍तेमाल कर रहा है। अब ये संस्‍थाएं अपराध के आधार पर कम, अपराधी के राजनीतिक चालचलन या उसकी राजनीतिक निष्‍ठाओं/जुड़ाव को देखते हुए कार्रवाई ज्‍यादा करती हैं।

भोपाल में हाल ही में मुख्‍यमंत्री कमलनाथ के नजदीकियों पर आयकर विभाग के छापे ऐसे ही इस्‍तेमाल की ताजा कड़ी हैं। कांग्रेस के नेता चिल्‍ला रहे हैं कि सरकार आयकर विभाग और सीबीडीटी (केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड) जैसी संस्‍थाओं का राजनीतिक इस्‍तेमाल कर विरोधियों को डरा रही है। लेकिन इस तरह की चीख चिल्‍लाहट अब आम हो गई है। आप कितना ही चिल्‍लाएं किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। सब कुछ प्रभु की मर्जी पर निर्भर करता है। यदि वे अनुकूल नहीं हैं तो रुई का रेशा क्‍या कोई तारपीडो भी बड़वानल पैदा नहीं कर सकता।

परंपरा और नियम दोनों हैं कि चुनाव आचार संहिता जब लागू हो, चुनाव जब चल रहे हों तो इस तरह की कार्रवाइयों के बारे में चुनाव आयोग को विश्‍वास में लिया जाना चाहिए, उसे सूचित किया जाना चाहिए। लेकिन भोपाल के मामले में खुद चुनाव आयोग शिकायती अंदाज में सफाई दे रहा है कि उसे इन छापों की सूचना नहीं दी गई। आयोग ने इस बारे में सीबीडीटी और राजस्‍व मंत्रालय से जवाबतलब किया है। और ताजा सूचना यह है कि राजस्‍व सचिव अजय भूषण पांडे ने आयोग के माथे पर जवाब का मोटा भाटा पटकते हुए साफ कह दिया है कि- ‘’हम तटस्थ, पक्षपातहीन और गैर-भेदभावपूर्ण शब्दों का अर्थ समझते हैं।‘’

जिस समय मध्‍यप्रदेश में आयकर के छापे चल रहे थे, उसी दौरान तेलंगाना में एक वाकया हुआ। वहां तेलंगाना पुलिस ने भाजपा नेताओं को पकड़कर उनके 8 करोड़ रुपए जब्‍त कर लिए। इसकी सूचना चुनाव आयोग और आयकर विभाग दोनों को दे दी गई। भाजपा नेता चीखते रहे कि अरे हम अपनी पार्टी के खाते से यह पैसा बैंक से निकालकर ला रहे हैं पर पुलिस ने एक न सुनी। कहने का मतलब यह कि जिसके पास सत्‍ता का डंडा है उसके पास मनमानी का लायसेंस भी है।

ऐसे व्‍यवहार का सबसे गंभीर पहलू यह है कि इसमें सच-झूठ, ईमानदार-बेईमान का फर्क खत्‍म होता जा रहा है। असली मुद्दे पर कोई बात ही नहीं कर रहा। कार्रवाई राजनीतिक हो या अराजनीतिक, यदि करोड़ों रुपए के कालेधन का पता चले तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए या नहीं? यह आड़ कैसे ली जा सकती है कि जी यह सब राजनीतिक बदले की भावना से किया जा रहा है। और छापामारों को भी दोनों आंखों से कालाधन देखना चाहिए। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक आंख से तो विपक्ष का कालाधन दिखे और जब सत्‍ता पक्ष की बात आए तो दूसरी आंख में मोतियाबिंद उतर आए।

भोपाल में तो एक और हथकंडा चला। छापे के दौरान स्‍थानीय पुलिस और आयकर टीम के साथ आई सीआरपीएफ टीम के एक दो अफसरों के बीच कहासुनी को‘संवैधानिक संकट’ बता देने तक का दांव मारा गया। जबकि टीवी चैनल चीख भले ही कुछ भी रहे हों पर विजुअल्‍स में साफ दिख रहा था कि संवैधानिक संकट फंकट जैसी कोई बात नहीं है, कोई है जो जानबूझकर मामले को इस लाइन पर ले जाना चाहता है।

अच्‍छा, भोपाल कांड में सबने सब तरह के आरोप प्रत्‍यारोप लगा दिए। बदले की कार्रवाई से लेकर संविधान तक को संकट में बता दिया, लेकिन मजा देखिए, किसी माई के लाल ने, न कांग्रेस के न भाजपा के, यह सवाल नहीं उठाया कि भाई ये जिस आदमी अश्विनी शर्मा के यहां छापा डला है, अखबारों में छपे ब्‍योरे के मुताबिक वह सड़क से महल तक तो भाजपा के राज में ही पहुंचा। यदि उसने इतना सारा कालधन कमाया तो पिछले तीन महीनों में तो कमा नहीं लिया होगा। उसकी थैली में कांग्रेस के चट्टे हैं तो भाजपा के बट्टे भी रहे होंगे और अफसरशाहों के गट्टे भी…

पर ऐसा सवाल न कोई पूछता है और न पूछेगा… नंगा करने के लिए चड्डी दूसरों की उतारी जाती है, खुद की नहीं… असलियत में तो नंगे सभी हैं…

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