क्या भूलें, क्या याद करें
देश इधर 17वीं लोकसभा की चुनावी गतिविधियों में व्यस्त है और उधर कश्मीर में अलग ही खिचड़ी पक रही है। जब तक चुनावों की घोषणा नहीं हुई थी तब तक कश्मीर पूरे देश की निगाहों में था। वहां महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और भाजपा की मिलीजुली सरकार गिरने के बाद से राष्ट्रपति शासन लगने तक और 14 फरवरी को हुए पुलवामा अटैक से लेकर बालाकोट में की गई एयरस्ट्राइक तक की घटनाओं पर पूरा देश बात कर रहा था। अब कश्मीर उस तरह से चर्चा के केंद्र में नहीं हैं।
लेकिन सोमवार को कश्मीर एक बार फिर सुर्खियों में आया जब भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए अपना ‘संकल्प पत्र’ जारी करते हुए धारा 370 और 35ए का मामला छेड़ दिया। भाजपा ने चुनावी वायदे के रूप में इस बात को दोहराया कि अनुच्छेद 370 के बारे में हम जनसंघ के समय से चले आ रहे अपने दृष्टिकोण को दोहराते हैं। हम जम्मू-कश्मीर में धारा 370 और 35ए को खत्म करेंगे।
भाजपा ने कहा- हमारा मानना है कि धारा 35ए राज्य के गैर स्थाई निवासियों और महिलाओं के खिलाफ और भेदभावपूर्ण है। यह धारा जम्मू-कश्मीर के विकास में बाधक है। देश की सुरक्षा के साथ हम किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करेंगे। कश्मीरी पंडितों की सुरक्षित वापसी के लिए कदम उठाएंगे। साथ ही आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की हमारी नीति जारी रहेगी।
इससे पहले 2 अप्रैल को कांग्रेस ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए वादा किया था कि वो अगर सत्ता में आती है तो संविधान के अनुच्छेद 370 को किसी भी हालत में नहीं बदलने देगी। कांग्रेस ने कहा है कि कश्मीर का मुद्दा सिर्फ बातचीत से ही सुलझाया जा सकता है।
कांग्रेस ने इस बात को दोहराया था कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। हम राज्य के अनुपम इतिहास और उन अद्वितीय परिस्थितियों का भी सम्मान करते हैं,जिनके तहत राज्य ने भारत में विलय को स्वीकार किया, जिसकी वजह से भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किया गया। इस संवैधानिक स्थिति को बदलने की न तो अनुमति दी जायेगी, न ही ऐसा कुछ भी प्रयास किया जायेगा।
इसका मतलब साफ है कि कश्मीर के बुनियादी मसले को लेकर भाजपा और कांग्रेस ठीक विपरीत ध्रुवों पर खड़े हुए हैं। पर मूल मसला कांग्रेस और भाजपा का नहीं,कश्मीर के राजनीतिक दलों और स्थानीय नेताओं का है। जब से कश्मीर में पहले राज्यपाल का और फिर राष्ट्रपति शासन लागू हुआ है तब से वहां के नेता जिस तरह के बयान दे रहे हैं वे भारत की एकता और अखंडता को बरकरार रखने वाले तो कतई नहीं कहे जा सकते।
आपको याद होगा कि राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकीं पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने 25 फरवरी को बयान दिया था कि- ‘’अनुच्छेद 35-ए में अगर किसी तरह का बदलाव किया गया तो राज्य के लोग राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा के बजाय किसी और झंडे को भी थाम सकते हैं।‘’ एक तरह से धमकी देते हुए महबूबा बोली थीं-‘’यदि उन्होंने ऐसा किया तो फिर हमें मत कहना कि हमने आपको (केंद्र को) चेतावनी नहीं दी थी। जम्मू-कश्मीर के लोगों को मजबूर न करें।‘’
सोमवार को भाजपा के संकल्प पत्र में धारा 370 और 35ए खत्म करने की बात पर महबूबा एक बार फिर बिफरी हैं। इस बार उनका बयान और अधिक तेजाबी है। उन्होंने शायराना अंदाज में चेतावनी देते हुए कहा- ‘’ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालों। तुम्हारी दास्तां तक भी ना होगी दास्तानों में।‘’ महबूबा के सुर में सुर मिलाते हुए नैशनल कान्फ्रेंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने भी कहा कि‘’हम इसके खिलाफ खड़े हो जाएंगे। …अल्लाह को शायद यही मंजूर होगा कि हम इनसे आजाद हो जाएं। मैं भी देखता हूं फिर कौन इनका झंडा खड़ा करने के लिए तैयार होता है?’’
यहां प्रश्न न तो भाजपा का है न कांग्रेस का। प्रश्न देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का है। जिस तरह से राजनीतिक हित साधने के लिए मुद्दों से खिलवाड़ किया जा रहा है, यह खतरनाक खेल उन्हीं लोगों की मदद कर रहा है जो भारत के टुकड़े होते देखना चाहते हैं। दुख की बात यह है कि वोट पॉलिटिक्स के चलते भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक ढांचे में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लोग ही, वो भाषा बोल रहे हैं जो आतंकियों या अलगाववादियों की है।
ऐसे ही रविवार को खबर आई थी कि सेना और सुरक्षा बलों की सुरक्षित आवाजाही के लिए बारामूला से जम्मू के उधमपुर तक 271 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग पर नागरिक आवाजाही रोकने का फैसला किया गया है। यह रोक 31 मई तक सप्ताह में दो दिन रविवार और बुधवार को सुबह चार बजे से शाम पांच बजे तक प्रभावी रहेगी।
दरअसल जब पुलवामा में 14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकी हमले में 40 से अधिक जवान मारे गए थे तो उसके बाद ही यह फैसला किया गया था कि सेना या अर्धसैनिक बलों के काफिले गुजरते समय सड़कों पर आम ट्रैफिक नहीं चलेगा। लेकिन कश्मीर के राजनीतिक दलों ने इसका भी जमकर विरोध किया।
महबूबा मुफ्ती ने कहा कि वे केंद्र सरकार के इस आदेश को नहीं मानती। ये हमारी सड़कें हैं, ये राज्य हमारा है और हम जब चाहेंगे इस पर निकलेंगे। वे लोग (केंद्र सरकार) कश्मीरियों को कुचलना चाहते हैं, कश्मीर के लोगों को अपनी जमीन पर कैद करना चाहते हैं, ऐसा मेरी लाश पर ही होगा। कश्मीर कश्मीरियों का है, कश्मीरी इस बैन को ना मानें और जब चाहें, जहां चाहें अपनी गाड़ियों से जाएं।
इस सवाल का जवाब देश के सभी राजनीतिक दलों को देना होगा कि आखिर कश्मीर को लेकर वे चाहते क्या हैं? क्या इस तरह के बयान कश्मीर के हालात को और अधिक नहीं बिगाड़ रहे? सेना की सुरक्षित आवाजाही के लिए राजमार्ग को दो दिन कुछ घंटों के लिए रोक देने पर सोशल मीडिया पर कुछ प्रतिक्रियाएं ऐसी भी आई हैं जिनमें प्रतिबंध के कारण आम जनता और पर्यटकों को होने वाली परेशानी का जिक्र है।
बिलकुल सही है कि ऐसे किसी भी कदम से लोगों को परेशानी होती है। लेकिन यदि हमें अपने सैनिकों या अर्धसैनिक बलों के जीवन की सुरक्षा और नागरिकों या पर्यटकों को होने वाली कुछ घंटों की परेशानी में से विकल्प चुनना हो तो हम किसे चुनेंगे? पुलवामा जैसा कांड होने के बाद हम छाती कूटते हैं कि हमने जवानों की सुरक्षा के पर्याप्त प्रबंध नहीं किए और जब प्रबंध किए जाते हैं तो हम अपनी परेशानी का खांडा लेकर खड़े हो जाते हैं। भारत से अलग होने की बात करने लगते हैं। इसे कैसे मंजूर किया जा सकता है?