आज मैं अपनी कोई बात नहीं कहूंगा। पिछले 24 घंटों में दो चीजें पढ़ीं, आज बात उन्हीं की। इनमें से एक विचार था तो दूसरी खबर। दोनों के विषय अलग-अलग होते हुए भी केंद्रीय तत्व लगभग समान है। विचार वाली बात के लेखक हैं वुसअतुल्लाह ख़ान और खबर जिस व्यक्ति से ताल्लुक रखती है उनका नाम है मुर्तजा अली। वैसे ये दोनों नाम कुछ लोगों की त्योरियां चढ़ने का कारण हो सकते हैं, लेकिन ऐसा कुछ करने से पहले जरा बात पूरी पढ़ लीजिए।
वुसअतुल्लाह खान पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हैं।(शायद मेरा एक और अपराध?) उन्होंने बीबीसी के लिए सोमवार को एक ब्लॉग लिखा जिसका शीर्षक है-‘’सैनिक कैसे जाने कि जंग देश के लिए है या सरकार के लिए?’’ वैसे तो यह शीर्षक ही बहुत कुछ कह रहा है लेकिन ब्लॉग में वुसअतुल्लाह ने जो लिखा है वह भी पढ़ने और गुनने लायक है।
वे लिखते हैं- ‘’कुछ डर अच्छे होते हैं, मगर बहुत से डर अच्छे नहीं भी होते।… जब सिपाही के दिल में यह सवाल लहराने लगे कि वो देश के लिए जान दे रहा है या किसी सरकार के लिए और क्या ये देश और सरकार भी उसके बाद उसके परिवार का पूरी तरह से ध्यान रखेंगे या उसके परिवार को अपने हाल पर छोड़ देंगे तो ऐसा कोई भी डर अच्छा नहीं है।‘’
‘’जब मतदाता के मन में यह डर पैदा हो जाए कि मैं जिसे वोट दे रहा हूं वो इस वोट को अपने वचन की अमानत समझेगा या मेरे वोट को स्वार्थ की सीढ़ी बना लेगा तो यह डर अच्छा नहीं है।‘’
‘’किन्हीं भी दो देशों के संबंधों की नींव भले शक की ज़मीन, भय की ईंटों और अज्ञान के गारे से उठे मगर एक-दूसरे को समझने के लिए दिमाग़ की हर खिड़की बंद कर दी जाए और ये खिड़की कभी न खुलने का डर दिल में बैठता जाए तो यह डर अच्छा नहीं है।‘’
‘’जब यह डर पैदा हो जाए कि सिर्फ़ एक आतंकवादी अपनी सिर्फ़ एक ज़हरीली हरक़त से पूरे-पूरे देशों की व्यावहारिक बुद्धि को अपने नापाक एजेंडे का बंधक बनाने के लिए काफ़ी है तो यह डर अच्छा नहीं है।‘’
‘’जब ये डर पैदा हो जाए कि मीडिया किसी भी घटना से फैलने वाले डर को कम करने और डरने वालों को हौसला देने और इस घटना की तह में जाने और खोज करने के बजाय मुंह में रेटिंग का पेट्रोल भरकर आसमान की तरफ़ मुंह करके शोले निकालना शुरू कर देगा तो यह सोच-सोचकर जो डर पैदा होता है वो अच्छा नहीं है।‘’
‘’जब मैं सिर्फ़ इस डर के मारे भीड़ का हिस्सा बन जाऊं कि अगर मैं भीड़ का हिस्सा नहीं बना तो मारा जाऊंगा या मेरा हुक्का-पानी बंद हो जाएगा या चलना-फिरना दूभर हो जाएगा तो यह डर अच्छा नहीं है।‘’
‘’जब मुझे लोकतंत्र के ख़्वाब में भी फासिज़्म का शैतान आ-आकर डराने लगे तो यह डर अच्छा नहीं है। जब मैं सामने वाले को इस डर से मार दूं कि मुझे किसी ने बताया है कि मैंने अगर उसे आज नहीं मारा तो एक दिन वो मुझे मार देगा तो यह डर न तो मेरे लिए अच्छा है और न सामने वाले के लिए।‘’
अब दूसरी खबर की बात-
यह भारत के मुंबई में रहने वाले मुर्तजा अली की है जो मूलत: राजस्थान के कोटा के बाशिंदे हैं। मुर्तजा दिव्यांग हैं और उन्हें बहुत ही कम दिखाई देता है। खबर कहती है कि मुर्तजा ने पुलवामा में शहीद हुए सुरक्षाबलों के 40 जवानों के परिवारों को 110 करोड़ रुपए की सहायता देने का ऐलान किया है। अगर खबरों में छपा, मदद की राशि का यह आंकड़ा सही है, तो संभवत: आतंकी घटनाओं का शिकार हुए परिवारों को निजी तौर पर किसी व्यक्ति द्वारा दी जाने वाली यह अब तक की सबसे अधिक राशि होगी।
मुर्तजा अली ने फ्यूल बर्न रेडियेशन तकनीक का आविष्कार किया है जिसकी मदद से जीपीएस, कैमरा या अन्य किसी उपकरण के बिना ही किसी वाहन की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। खबरों के अनुसार मुर्तजा ने 2016 में यह तकनीक भारत सरकार को मुफ्त में देने की पेशकश की थी लेकिन समय पर कोई जवाब न आने पर उन्होंने इसके लिए एक कंपनी से करार कर लिया।
करार के बदले मिली मोटी राशि को मुर्तजा ने देश के शहीदों को समर्पित करने का फैसला किया है और इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने का समय मांगा है। जवाब में पीएमओ के अफसरों ने कागजी कार्यवाही के लिए उनसे और ब्योरा तलब किया है।
मुंडियों का पता पूछने के इस श्मशानी समय में वुसअतुल्लाह का डर और मुर्तजा की पेशकश हमें सोचने के नए दायरे देते हैं। पूछा जाना चाहिए सरकार और विपक्ष दोनों से कि क्या उनके पास किसी भी सिपाही के दिल में उठने वाले इस सवाल का जवाब होगा कि वो (सिपाही) देश के लिए जान दे रहा है या किसी सरकार के लिए?
इसी तरह पूछा जाना चाहिए दिनरात चीखने वाले चैनल मालिकों और देशभक्ति के झाग उगलने वाले एंकरों, रिपोर्टरों और संपादकों से, कि उनमें से कितनों ने,कितनी राशि पुलवामा और अन्य आतंकी घटनाओं का शिकार हुए लोगों के परिवारों को दान की।
मुंडियों का पता पूछने वालो और युद्ध को राजनीति की सीढ़ी बनाने वालो, क्या तुम कभी उस सिपाही के डर को महसूस कर पाओगे? क्या कभी मुर्तजा जैसा दिल दिखा पाओगे? शुक्र है मुंडियों पर पैर रखकर सिंहासन तक पहुंचने वालों और नोबल का ख्वाब देखने वालों की भेडि़या जमात के बीच इधर भी और सीमा के उस पार भी कुछ लोग ऐसे बचे हैं जिनके सरोकारों में राजनीति के बिलबिलाते कीड़े अभी प्रवेश नहीं पा सके हैं।