न्‍यायपालिका का इतना असहाय होना ठीक नहीं है

कल मैंने न्‍यायपालिका और न्‍याय प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कुछ तत्‍वों पर बात की थी। आज उसी बात को थोड़ा और आगे बढ़ाते हैं…

न्‍यायपालिका खुद पर कितना दबाव महसूस कर रही है इसका ताजा उदाहरण भारत के प्रधान न्‍यायाधीश रंजन गोगोई का एनडीटीवी को दिया गया वह इंटरव्‍यू भी है जो सुप्रीम कोर्ट के ही जस्टिर ए.के. सीकरी के चर्चित भाषण के आठ दिन बाद मीडिया में आया। जस्टिस सीकरी ने न्‍यायपालिका की दिक्‍कतों को लेकर जिन बिंदुओं का जिक्र किया था रंजन गोगोई ने एक तरह से उसी बात की पुष्टि की है।

जस्टिस गोगोई ने कहा कि जजों के फैसलों की आलोचना नया ट्रेंड बन गया है, जोपरेशान करने वाली बात है। जजों पर कीचड़ उछालना आम बात हो गई है। फैसला पक्ष में न आने पर जजों को निशाना बनाया जाता है। आप फैसलों की आलोचना करें,कानूनी खामियों की तरफ इशारा करें, लेकिन जजों पर हमला करना और अपने मकसद के लिए उन्हें निशाना बनाना परेशानी वाली बात है।

उन्‍होंने कहा-‘’पक्ष में फैसला न आने पर जजों को निशाना बनाया जाता है। जजों पर कीचड उछालने की वजह से युवा न्यायपालिका में नहीं आ रहे हैं, वो कहते हैं कि हम अच्छी कमाई कर रहे हैं। हमें जज क्यों बनना चाहिए, क्‍या इसलिए कि लोग हम पर कीचड़ उछाले? अगर आप जजों पर कीचड़ उछालते रहेंगे तो अच्छे लोग नहीं आएंगे। कुछ युवा जज पश्चाताप कर रहे हैं कि उन्होंने इस पेशे को क्यों चुना?’’

इस इंटरव्‍यू में जस्टिस रंजन गोगोई ने कॉलेजियम की सिफारिशों, वरिष्‍ठता की अनदेखी, जजों की नियुक्ति में सरकार की कथित अड़ंगेबाजी, लंबित मामलों का निपटारा, जजों की कमी दूर करने के उपाय जैसे कई मुद्दों पर बात की। भारतीय न्‍यायपालिका के वर्तमान परिदृश्‍य को जानने और समझने में यह इंटरव्‍यू काफी मददगार हो सकता है।

जिस तरह जस्टिस सीकरी ने उच्‍चतम न्‍यायालय की तुलना में उच्‍च न्‍यायालयों और निचली अदालतों पर मीडिया का दबाव ज्‍यादा होने का संकेत दिया था उसी तरह जस्टिस गोगोई का यह कथन भी बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए कि न्‍यायपालिका में आए युवा जज इस बात का पश्‍चाताप कर रहे हैं कि उन्‍होंने इस पेशे को क्‍यों चुना? वे इस पेशे में आने से कतरा रहे हैं साथ ही यह भी कह रहे हैं कि हम अच्‍छी कमाई कर रहे हैं, क्‍यों बेकार में खुद पर कीचड़ उछाले जाने का उपक्रम करें।

यानी हमारी न्‍यायव्‍यवस्‍था में अदालत के बजाय वकालत ज्‍यादा पसंदीदा पेशा है। और उसके पीछे भी मुख्‍य कारण धन है। अब यदि युवा ही जज बनने को तैयार नहीं हो रहे तो जान लीजिए कि न्‍यायिक ढांचे पर कितना बड़ा संकट है। एक तो वैसे ही अदालतों में मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है, अदालतें मानव संसाधन की कमी से जूझ रही हैं और दूसरी ओर वहां आकर काम करने के प्रति अरुचि भी बढ़ती जा रही है।

और सबसे बड़ी बात है कि न्‍यायिक ढांचे पर आए इस संकट का एक बड़ा कारण मीडिया को बताया जा रहा है। यानी जो मीडिया खुद को जनता और लोकतंत्र का रहनुमा बताने की दुहाई देते नहीं थकता वही संवैधानिक संस्‍थाओं की टांगें तोड़ने पर तुला है। और मीडिया ही क्‍यों पीडि़तों को न्‍याय दिलाने में जिस बार से बेंच की मदद करने की अपेक्षा की जाती है उस बार की भूमिका को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट खुश नहीं है।

सीबीआई के अंतरिम निदेशक नागेश्‍वर राव की नियुक्ति मामले में सुप्रीम कोर्ट ने छह फरवरी को वरिष्‍ठ वकील प्रशांत भूषण को अवमानना नोटिस जारी किया था। उस मामले को लेकर अदालत में हुई चर्चा की जो बातें मीडिया में आईं वे काफी महत्‍वपूर्ण हैं। कोर्ट ने कहा कि बार ही न्यायपालिका की सरंक्षक है। (यदि वहीं से ऐसा हो) तो हम क्या कर सकते हैं?

जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ ने कहा कि जब अदालत में मामला लंबित है तो वकील पब्लिक में क्यों लिख रहे हैं या टीवी डिबेट में क्‍यों जा रहे हैं? ये अवमानना से ज्यादा मौलिक सवाल का मामला है कि क्या स्वतंत्रता में जिम्मेदारी भी रहती है? अदालत में लंबित मामले में बाहर जाकर मीडिया से बात करने का चलन बढ़ गया है? सबका स्वागत है लेकिन लंबित मामले में कोई वकील कैसे मीडिया में बयानबाजी कर सकता है?

जस्टिस मिश्रा का कहना था कि अदालत में क्या हुआ वो तो ठीक है लेकिन तथ्यों पर बयानबाजी कैसे हो सकती है? मीडिया ट्रायल और उनकी वजह से बनने वाले पब्लिक ऑपिनियन के कारण आपराधिक केस प्रभावित होते हैं। मान लो किसी को पहले अपराधी बता दिया गया और वो बाद में बरी हो गया तो? आजकल तो याचिका पर सुनवाई से पहले ही सब मीडिया में आ जाता है।

अदालत का मत था कि बार को इस पर कोई गाइडलाइन तैयार करनी चाहिए। हमने कुछ दिन पहले ही एक फैसले में कहा है कि किस तरह फैसलों को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। इसे लेकर अब कानून की घोषणा होनी चाहिए कि मीडिया किस हद तक रिपोर्ट कर सकता है।  वकीलों को कैमरों के पास जाने पर रोक हो।

इस मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना था कि वकीलों को मीडिया में नहीं जाना चाहिए। ऐसे कई मामले हुए हैं जब वकील किसी फैसले के बाद मीडिया के पास जाते हैं और अपना जहर उगलते हैं। कई बार तो यह तक कह दिया जाता है कि ये न्यायपालिका के इतिहास में काला दिन है। सुप्रीम कोर्ट और जजों पर सवाल उठाए जाने से आम लोगों को लगता है कि देश की सबसे बड़ी अदालत से भी उसे न्याय नहीं मिलेगा।

सुप्रीम कोर्ट के जजों के ये आब्‍जर्वेशन और सर्वोच्‍च अदालत में कही गई ये बातें बताती हैं कि हमारे न्‍यायिक ढांचे में व्‍यापक सुधार की कितनी ज्‍यादा जरूरत है और वह भी कितनी जल्‍दी।

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