मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री पद की शपथ हो जाने के बाद, प्रदेश के स्थानीय लोगों को रोजगार देने संबंधी कमलनाथ सरकार का एक फैसला लगातार चर्चा में बना हुआ है। इस फैसले का ऐलान करते वक्त कमलनाथ द्वारा बिहार और उत्तरप्रदेश का जिक्र कर दिए जाने पर कई लोगों ने आपत्ति की है। मैंने इसी कॉलम में दो दिन पहले कमलनाथ के उस बयान को लेकर लिखा भी था।
लेकिन आज जो एक रिपोर्ट मेरे हाथ लगी है वह मध्यप्रदेश में बेरोजगारी की स्थिति पर बहुत ही नए ढंग से सोचने पर मजबूर करने वाली है। इस रिपोर्ट को देखने के बाद मुझे लगा कि उसमें उन लोगों के लिए भी कई सारे सूत्र या उत्तर मौजूद हैं जो मामले को बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे विवाद में उलझाकर मूल समस्या को नजरअंदाज कर रहे हैं।
यह रिपोर्ट एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने जारी की है। एडीआर ने मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले अगस्त से नवंबर माह के बीच राज्य के सभी संसदीय क्षेत्रों में एक सर्वे कराया था जिसमें लोगों से सरकार से अपेक्षा और सरकार के कामकाज पर राय मांगी गई थी। सर्वे में शामिल लोगों में 70 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र के और 30 फीसदी शहरी क्षेत्र के थे। इनमें से भी 54 फीसदी सामान्य वर्ग के, 13 फीसदी ओबीसी और 15-15 फीसदी अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग थे।
सर्वे के दौरान ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों के लोगों ने बेरोजगारी को सबसे बड़ी समस्या बताते हुए सरकार से उसे हल करने की अपेक्षा की थी। ग्रामीण क्षेत्र के 59 फीसदी और शहरी क्षेत्र के 70 फीसदी लोगों का कहना था कि उनके लिए बेहतर रोजगार के अवसर वाला मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ यह है कि हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान खासतौर से युवाओं ने रोजगार को ध्यान में रखते हुए ही अपने वोट का फैसला किया होगा।
लेकिन इस सर्वे का सबसे हैरान कर देने वाला पहलू यह है कि बेहतर रोजगार की चाह रखने वाले लोग, किसी भी रोजगार के लिए ‘कौशल विकास’ को कोई खास तवज्जो नहीं देते। जब लोगों से पूछा गया कि क्या रोजगार के लिए किसी तरह की खास ट्रेनिंग को वे जरूरी समझते है तो ग्रामीण आबादी में सिर्फ 4 प्रतिशत लोगों ने और शहरी क्षेत्र में सिर्फ 9 फीसदी लोगों ने इस पर सहमति जताई। रिपोर्ट के मुताबिक लोगों का यह जवाब उपलब्ध रोजगार और वांछित कौशल के बीच की विसंगति को दर्शाता है।
लेकिन मेरे हिसाब से यह जवाब न सिर्फ बहुत ही चिंता में डालने वाला है बल्कि इसका एक सिरा जहां प्रदेश में बेरोजगारों की बढ़ती संख्या से जुड़ता है वहीं दूसरा सिरा ‘बिहार-उत्तरप्रदेश’ जैसे विवाद से। मैं मानता हूं कि भले ही यह सर्वे पुरानी सरकार के जाने से पहले किया गया है और हो सकता है इस मुद्दे ने उस सरकार को सत्ता से हटाने में भूमिका भी निभाई हो, लेकिन यह नई सरकार के लिए भी बहुत बड़ी और गंभीर चुनौती है।
दरअसल मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बरोजगारी जैसी समस्या की मुख्य जड़ यही है कि यहां का युवा रोजगार तो चाहता है पर उस रोजगार के लिए जरूरी कौशल प्राप्त नहीं करना चाहता। उसे बस नौकरी चाहिए, भले ही उसमें उस नौकरी की जरूरत के मुताबिक काम करने की क्षमता अथवा योग्यता हो या न हो। मैं जानता हूं कि सुनने में मेरी यह बात बहुत बुरी लग रही होगी लेकिन वास्तविकता यही है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश में शिक्षण संस्थाओं का बेतहाशा विस्तार हुआ है। राज्य में उच्च शिक्षा विभाग की वेबसाइट के अनुसार सरकारी कॉलेजों की संख्या 516 और अनुदान तथा गैरअनुदान प्राप्त कॉलेजों की संख्या 864 है। इसी तरह निजी व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों के लिए बनी प्रवेश एवं फीस नियामक कमेटी की वेबसाइट के मुताबिक निजी तकनीकी संस्थाओं की संख्या 845, चिकित्सा संस्थानों की संख्या 236 और उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या 626 है। सरकारी इंजीनियरिंग, मेडिकल, पोलीटेक्निक, फार्मेसी आदि संस्थान इनके अतिरिक्त हैं।
यह भी सही है कि प्रदेश के युवा अब कम से कम ग्रेजुएट तक की शिक्षा प्राप्त करने में अच्छी खासी रुचि दिखा रहे हैं। यही कारण है कि चाहे किसी भी संकाय के हों, पढ़े लिखे बेरोजगारों में ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट लोगों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
लेकिन मूल समस्या उस शिक्षा की गुणवत्ता की है जो वे प्राप्त कर रहे हैं या उन्होंने प्राप्त की है। युवाओं के पास कहने को ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री है लेकिन अधिकांश मामलों में उनका स्तर हाईस्कूल जैसा भी नहीं है। कारण जो भी रहा हो, लेकिन पिछले कुछ सालों में प्रदेश में शिक्षा का धंधा बहुत पनपा है। डिग्री देने की हजारों दुकानें खुल गई हैं और उन दुकानों पर पैसे लेकर डिग्रियां बांट दी जा रही हैं। और यह भी कोई दबा छुपा तथ्य नहीं है कि ऐसी ज्यादातर दुकानें राजनेताओं ने खड़ी की हैं।
प्रदेश में आज शिक्षा बस धन कमाने का जरिया बन कर रह गई है। शिक्षा संस्थानों में शिक्षा और कौशल की गुणवत्ता से किसी को कोई लेना देना नहीं है। उनका काम बच्चों से पैसा वसूलना और उन्हें संबंधित कोर्स की निश्चित समायावधि में एक कागज का टुकड़ा थमाकर संस्थान से विदा भर कर देना है।
सरकार से सस्ती जमीन और अन्य कई तरह के अनुदान व सुविधाएं लेकर संस्थान खड़े कर दिए जाते हैं और बाद में छात्रों से करोड़ों रुपए कमाकर उन्हें सरकार को गाली देने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। हाथ में डिग्री लिए ये नौजवान रोजगार का कोई जरिया न मिलने पर निराशा के गर्त में तो डूबते ही हैं, कई बार वे गलत या आपराधिक प्रवृत्तियों की ओर मुड़ जाते हैं। जिसका खमियाजा समाज को उठाना पड़ता है। (जारी)