मध्यप्रदेश में हमेशा की तरह इस बार भी जिस मालवा निमाड़ अंचल को सत्ता परिवर्तन की चाबी बताया जा रहा है, उसी इलाके की मालवी बोली में बहुत पुरानी कहावत है- खाली बाण्यो कईं करै, इधर को बांट उधर धरै… यानी दुकान पर खाली बैठे बनिये के पास कोई काम तो होता नहीं, ऐसे में वह क्या करे, तो वक्त काटने के लिए वह बाटों को कभी तराजू के एक पलड़े में रखता है तो कभी दूसरे पलड़े में…
राज्य में विधानसभा चुनाव के वोट डलने के बाद पत्रकारों की हालत भी खाली बाण्ये जैसी ही हो गई है। करने को कुछ है नहीं इसलिए वे भी खबरों की खुरचन का हलवा बनाने में लगे हैं। मतदान के बाद चूंकि सारी गतिविधियां एक तरह से ठप हो जाती हैं, इसलिए परिणाम आने तक सिर्फ मतदान ही ऐसी ‘एक्टिविटी’ बचती है जिसे मतगणना होने तक घसीटा जा सके। इन दिनों यही हो रहा है।
चूंकि सारा माहौल ही इधर का बांट उधर धरने का है, इसलिए मैंने भी सोचा कि क्यों न मैं भी तराजू के पलड़ों पर बांटों की कुछ उठाधरी करके देखूं। और इस उठाधरी में जो कुछ देखने को मिला वह सिर पीटने लायक है। ऐसा लगता है कि ये जितने भी ‘खाली बाण्ये‘ हैं वे इधर का बांट उधर रखने का काम भी सलीके से नहीं कर पा रहे।
जब से मध्यप्रदेश में मतदान का अनुष्ठान संपन्न हुआ है, चुनावी मशीनरी से लेकर मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म पर आंख मूंदकर एक ही बात कही जा रही है, कि इस बार ‘बंपर वोटिंग’ हुई है। जिसे देखो वह इसी जुमले के आसपास अपनी कहानियां बुनने में लगा है। और बिना सोचे समझे इस जुमले में फंस जाने या आंकड़ों पर अपना जरा भी दिमाग न लगाने का नतीजा यह है कि लोग चिडि़या के मूत को सैलाब बताए दे रहे हैं।
आइए जरा समझें कि मैंने ऐसा क्यों कहा? चुनाव आयोग की वेबसाइट पर जो आंकड़ा उपलब्ध है वो कहता है कि राज्य में इस बार 75.05 प्रतिशत मतदान हुआ। चूंकि 2013 में 72.13 फीसदी मतदान हुआ था इसलिए पिछली बार और इस बार के मतदान के 2.92 प्रतिशत के अंतर को ‘बंपर मतदान’ की संज्ञा दी जा रही है। लेकिन क्या वोटिंग में वास्तव में तीन फीसदी से भी कम बढ़ोतरी को हम ‘बंपर मतदान’ कह सकते हैं? क्या हमें ऐसा कहना चाहिए? क्या हमें इस बढ़ोतरी को अभूतपूर्व आधार मानकर चुनाव नतीजों का अनुमान लगाना चाहिए?
मेरे विचार से ऐसा करना गणित के लिहाज से तो गलत होगा ही, पत्रकारिता के लिहाज से तो और भी घातक होगा। ऐसे में पहले जरा उनकी बात कर लें जिनकी गणित में ज्यादा रुचि है या जो चुनाव को सिर्फ अंकगणित या आंकड़ों का खेल मानते हैं। जिनको प्रतिशत से खेलने का बहुत ज्यादा शौक है (इनमें निर्वाचन आयोग की मशीनरी सबसे अव्वल है) उन्हें यह मोटी बात समझनी चाहिए कि प्रतिशत का खेल मूलत: बहुत भ्रामक होता है। और चुनाव के संबंध में तो और भी ज्यादा भटकाने वाला…
इस खेल को यूं समझिए… मान लीजिए कोई दौड़ आयोजित है और उसमें भाग लेने वाले सिर्फ दो ही धावक हैं। दोनों दौड़ते हैं और एक धावक दूसरे धावक से कुछ ज्यादा तेज दौड़कर उस दूरी को जल्दी पूरी कर लेता है। जाहिर है वह प्रथम हुआ और उसके पीछे आने वाला द्वितीय। अब प्रतिशत प्रेमी इसका आकलन करने बैठें तो कह सकते हैं कि दौड़ में 50 फीसदी लोग प्रथम स्थान पर रहे और 50 फीसदी दूसरे स्थान पर… लेकिन क्या ऐसा आकलन या विश्लेषण, यथास्थिति के हिसाब से सही होगा? नहीं ना..!!!
कुछ ऐसा ही मतदान के साथ भी हो रहा है। बात को समझने के लिए जरा फिर से आंकड़े देखिए। चुनाव आयोग की किताब कहती है कि 2013 के चुनाव में प्रदेश में कुल 4 करोड़ 66 लाख 9024 मतदाता थे जिनमें से 72.13 फीसदी यानी 3 करोड़ 36 लाख 19633 लोगों ने मतदान किया।
इस बार यानी 2018 में मतदाताओं की संख्या 5 करोड़ 43 लाख 3079 थी। (इनके अलावा 62 हजार 172 सर्विस वोटर थे, जिनका खेल अलग ही है और उस पर बाद में कभी बात करेंगे।) अब इस बार और पिछली बार के मतदाताओं का अंतर देखें तो पिछली बार की तुलना में इस बार मतदाताओं की संख्या में 73 लाख 94055 का इजाफा हुआ था।
प्रतिशत प्रेमियों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मतदाताओं में बढ़ोतरी के लिहाज से पिछली बार की तुलना में इस बार 15.86 प्रतिशत मतदाता बढ़े थे। अब जरा भारी भरकम गणित लगाने के बजाय साधारण जोड़-बाकी का ही गणित लगा लें, तो आपके हाथ क्या लगेगा? हमारे हाथ यह लगेगा कि मतदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई 15.86 फीसदी की और मतदान बढ़ा सिर्फ 2.92 फीसदी। यानी बढ़ी हुई मतदाता संख्या से 12.94 फीसदी कम। तो हुई ना ये सीधे-सीधे उल्लू बनाने वाली बात…!!!
आगे इसी गणित की कुछ और गुत्थियों की उधेड़बुन करके पता लगाएंगे इस ‘बंपर वोटिंग’ की असलियत…
बेहतरीन आकलन
इस गणित में अब मतदाता सूची से बाहर किए गए उन लगभग 34-35 लाख फर्जी मतदाताओं की संख्या को भी घटा दिया जाना चाहिए
धन्यवाद सुरेंद्र जी