क्‍या हमें सचमुच सेना की जरूरतों की चिंता है?

इतिहास गवाह है कि देश में रक्षा सौदों को लेकर जब-जब भी बात उठी या आरोप लगे, हल्‍ला तो बहुत मचा, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। किसी का बाल बांका नहीं हुआ। चाहे वह बोफोर्स का मामला हो या फिर ऑगस्‍ता वेस्‍टलैंड हेलीकॉप्‍टर का। तय मानिये कि रॉफेल का हश्र भी वैसा ही होने वाला है। दरअसल रक्षा सौदों की लॉबी इतनी तगड़ी है कि उसे भेद पाना लगभग नामुमकिन है।

ऐसे विवाद जब भी उठे हैं, राजनीतिक कारणों से उठे हैं और फिर राजनीति कारणों से ही बंद भी हुए हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है कि इन सौदों में भ्रष्‍टाचार के आरोप गलत हों, लेकिन जब भी ये उठाए जाते हैं, उनका लक्ष्‍य दोषियों को बेनकाब करना या उन्‍हें सजा दिलवाना नहीं, बल्कि उनसे राजनीतिक फायदा उठाना होता है।

एक दिक्‍कत और है… लोग भी सरकार को भ्रष्‍ट बताकर अजीब सा संतोष महसूस करते हैं, भले ही सत्‍ता पर कोई भी काबिज हो। हम ऐसे मसलों पर अपने पूर्वनिर्धारित निष्‍कर्षों या धारणाओं के आधार पर लिखी गई बातें ही पढ़ना या सुनना चाहते हैं। कोई भी तर्क या तथ्‍य अगर हमारे हिसाब से है, तो वह सही, अन्‍यथा गलत। हम देखने समझने की कोशिश ही नहीं करते कि जो कहा या बताया जा रहा है, उसका कोई दूसरा पक्ष भी हो सकता है।

खबरी लोकप्रियता की भेड़चाल ऐसी है कि उसमें सब आंख मूंदकर बढ़ते चले जाते हैं। ऐसे में कौन तो सवाल पूछे और कौन जवाब दे। यह स्थिति उन लोगों के लिए और सुविधाजनक हो जाती है जो अव्‍वल तो सवालों को ही उठने नहीं देना चाहते और अगर सवाल उठ भी जाए तो उत्‍तर तो कदापि नहीं देना चाहते। दरअसल हर कोई चाहता है कि धुंध छाई रहे, ताकि अगर टकराकर गिर भी जाएं, तो कोई वजह बताई जा सके।

इतने दिनों में रॉफेल मामले को मैं जितना समझ पाया हूं, इसमें राजनीति से कहीं अधिक बड़ा रोल कॉरपोरेट और नौकरशाही की लॉबी का है। कॉरपोरेट हर समय सत्‍ता को अपनी उंगलियों पर नचाता आया है। यदि इस श्रृंखला की शुरुआती सामग्री को फिर से पढ़ें तो आपको भी साफ लगेगा कि जब से वायुसेना ने लड़ाकू विमान की जरूरत बताई थी, तभी से यह भी लगभग तय हो गया था कि इस मामले की दिशा या हश्र क्‍या होगा। भारत में यह सौदा किस औद्योगिक घराने की झोली में गिरेगा। ऐसा नहीं होता तो रॉफेल के साथ साथ यूरोफाइटर पर भी बात होती…

यानी सौदे की धुरी तो शुरू से ही तय थी, बाकी बातें तो उसके आसपास सुविधानुसार बुनी या उधेड़ी गईं। इसीलिए सुई कभी अंबानी की ओर घुमाई जाती है तो कभी वाड्रा की ओर। देश भी उसी एंगल पर बात कर रहा है। इस पर तो बात ही नहीं हो रही कि इस घमासान में सेना का कितना नुकसान हो रहा है। हम देश की रक्षा और सेना की मजबूती पर चिल्‍लाते तो बहुत हैं, लेकिन असलियत पर शायद ही कभी ध्‍यान देते हों।

और असलियत यह है कि भारत की वायुसेना दो दशकों से सरकार का मुंह ताक रही है कि कब वह मेहरबान होगी और कब वायुसेना को अपनी जरूरत के मुताबिक विमानों का बेड़ा मिल सकेगा। वायुसेना को विमानों की जरूरत है इसकी सुगबुगाहट वर्ष 2000 के आसपास ही शुरू हो गई थी। 2007 में तो वायुसेना ने सरकार को बाकायदा प्रस्‍ताव भेज दिया था। लेकिन लड़ाकू विमान खरीद का यह मामला अभी तक नहीं सुलझ पाया है।

यूपीए इस पर कोई फैसला नहीं कर सकी और एनडीए ने जो समझौता किया है उसके तहत भी विमानों की पहली खेप अगले साल अक्‍टूबर तक ही आ सकेगी। सेना ने करीब दो दशक पहले जो मांग लगभग 200 विमानों की जरूरत से शुरू की थी वह सरकारी प्रस्‍ताव बनते-बनते यूपीए में 126 और एनडीए में सिर्फ 36 रह गई। हम लाख देशभक्ति और राष्‍ट्रहित की बात करें लेकिन ये है सेना और उसकी जरूरतों के प्रति हमारा रुख।

हैरानी की बात यह है कि रॉफेल को लेकर बाकी तमाम बातें मुद्दा बन रही हैं लेकिन कोई यह सवाल मजबूती से नहीं उठा रहा कि जिस सेना के शौर्य का हम जबानी बखान करते नहीं थकते उस सेना की जरूरतों के प्रति हम चिंतित कितने हैं। सरकार और राजनीतिक दलों से लेकर जनमानस तक में रॉफेल बस भ्रष्‍टाचार का एक और मामला भर है।

सवाल ही पूछे जाने हैं तो कांग्रेस से यह पूछा जाना चाहिए कि आपने दस सालों तक क्‍या किया? आखिर आप खरीद को लेकर अंतिम नतीजे तक क्‍यों नहीं पहुंच सके। और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि 126 विमानों की जरूरत को सिर्फ 36 विमान तक समेट कर आखिर आप सेना के साथ कौनसा खेल खेल रहे हैं।

तमाम सफाइयों के बावजूद यह सवाल क्‍यों तैर रहा है कि यदि मोदी सरकार इतनी पाक-साफ है तो वह पूरी बात सामने लेकर क्‍यों नहीं आती। क्‍यों कभी इस पर वित्‍त मंत्री अरुण जेटली बोलते हैं, तो कभी कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, कभी रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन कुछ कहती हैं तो कभी कृषि राज्‍य मंत्री गजेंद्रसिंह शेखावत। कभी कपड़ा मंत्री स्‍मृति ईरानी को लाया जाता है, तो कभी मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को।

राहुल गांधी पर तो आरोप लगाए जा रहे हैं कि वे रॉफेल सौदे और उसकी कीमतों को लेकर हमेशा अलग-अलग आंकड़े दे रहे हैं, लेकिन क्‍या सरकार के मंत्री ऐसा नहीं कर रहे? परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का बयान आता है कि सरकार ने यूपीए की तुलना में 40 फीसदी कम कीमत पर विमान खरीदे, तो रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन एबीपी न्‍यूज को दिए इंटरव्‍यू में यह आंकड़ा नौ से 20 प्रतिशत की रेंज में बताती हैं। अरे आप इस मामले पर सीधे कोई श्‍वेतपत्र क्‍यों नहीं जारी कर देते?

भाजपा राहुल गांधी पर अहंकार में लिप्‍त होने का आरोप लगाती है, पर क्‍या भाजपा और सरकार का अहंकार कोई कम है? सरकार के स्‍तर पर भी यह जिद और सिर्फ जिद के अलावा कुछ नहीं। जिद यह कि वे कौन होते हैं हमसे सवाल पूछने वाले और हम क्‍यों दें उनके सवाल का जवाब? राहुल प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहे हैं और प्रधानमंत्री कमल और कीचड़ का रिश्‍ता बता रहे हैं।

इस जिद में भाजपा और सरकार की साख पर जो खरोचें आ रही हैं, उसको लेकर कोई चिंता क्‍यों नहीं है, यह बात समझ से परे है। हो सकता है पार्टी और सरकार ने भविष्‍य में इस पर बहुत ‘भारी पलटवार’ की तैयारी कर रखी हो, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि तब तक भाजपा और प्रधानमंत्री की छवि को जो नुकसान हो रहा है, उसे पार्टी कितना सहन करने की स्थिति में है?

रॉफेल पर कहने को तो इतना कुछ है कि महीनों आप बात करते रहें। लेकिन मुझे लगता है, इस बार बस इतना ही… और हां, सेना, लड़ाकू विमान, युद्ध,भ्रष्‍टाचार की बात बहुत हुई, अब विषय बदलना चाहिए… तो ‘महात्‍मा गांधी’ कैसे रहेंगे?

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