रॉफेल सौदे को लेकर ताजा विवाद का सबसे जलता हुआ मुद्दा यह है कि आखिर अनिल अंबानी की कंपनी को ही ऑफसेट कंपनी के रूप में क्यों चुना गया। लोग यह भी जानना चाहते हैं कि अनिल अंबानी पिक्चर में कैसे आए? रॉफेल बनाने वाली फ्रांस की दसॉल्ट एविएशन हालांकि कह चुकी है कि अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट पार्टनर के रूप में चुनने का फैसला उनका था, लेकिन फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि दसॉल्ट और रिलायंस संपर्क में कैसे आए।
इसका उत्तर पाने के लिए हमें कहानी को 2007-08 के उसी कालखंड में ले जाना होगा जिसमें मुकेश अंबानी की ‘रिलायंस इंडस्ट्रीज’ ने एक बड़े रक्षा सौदे की संभावना देखते हुए रिलायंस एयरोस्पेस टेक्नॉलाजीस लि. (आरएटीएल) का गठन किया था और रॉफेल बनाने वाली दसॉल्ट एविएशन से बातचीत शुरू की थी।
लेकिन बड़े अंबानी बाद में इस झमेले से पीछे हट गए। क्यों? इसके पीछे एक बड़ा कारण यूपीए सरकार पर लगने वाला यह आरोप भी था कि वह ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ से ग्रस्त है, वहां काम होते कम, लटकते ज्यादा हैं। जब रॉफेल का सौदा आगे बढ़ने में बहुत देर लगती दिखी और इसी बीच विमान की कीमत और उसमें भारत की जरूरत के अनुसार सुविधाएं जोड़े जाने को लेकर सरकार और दसॉल्ट में झिकझिक होने लगी तो मुकेश अंबानी की कंपनी ने इस झंझट से खुद को अलग कर लिया।
इस घटनाक्रम में अनिल अंबानी कहां शामिल हुए इसकी खोजबीन करने के दौरान एनडीटीवी डॉट कॉम की 24 सितंबर 2018 को प्रकाशित एक खबर मेरे हाथ लगी। इसका शीर्षक है- Why We Chose Anil Ambani’s Firm Despite Massive Debt: Dassault Sources
इस खबर के दो पैराग्राफ बड़े अंबानी के बाहर होने और सीन में छोटे अंबानी की एंट्री पर प्रकाश डालते हैं। एक पैरा कहता है-
‘’Mukesh Ambani’s defence firm was to be a partner contributing to the process but its intended role was not clear. Dassault has maintained that it began talks with Mukesh Ambani’s firm in 2012, then changed later to discussions with the company headed by his brother.
और इसके ठीक बाद वाले पैराग्राफ में कहा गया है-
That’s because Mukesh Ambani, the country’s richest man, exited the Rafale landscape over the complicated and lengthy procurement rules that accompany defence deals; his defence unit was then taken over by Anil Ambani, whose own business empire was bleeding profusely.
यानी मामला खिंचता देख जब मुकेश अंबानी इस प्रक्रिया से अलग हो गए तो दसॉल्ट ने उनके छोटे भाई से बातचीत शुरू की। खबर के मुताबिक उस समय तक मुकेश अंबानी के बिजनेस एम्पायर की उस रक्षा इकाई का उनके छोटे भाई अनिल अंबानी अधिग्रहण कर चुके थे। एनडीटीवी डॉट कॉम की इस खबर के तथ्यों पर अगर भरोसा किया जाए तो इसका सीधा-सीधा मतलब यह हुआ कि अनिल अंबानी का नाम दसॉल्ट के लिए नया नहीं था।
यह खबर एनडीटीवी के लिए विष्णु सोम ने की थी और वे लिखते हैं कि फ्रेंच फर्म (दसॉल्ट एविएशन) के उच्च अधिकारियों ने नाम न देने की शर्त पर बताया कि अनिल अंबानी की फर्म रिलायंस डिफेंस का चयन इसलिए किया गया क्योंकि एक तो यह कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय में रजिस्टर्ड थी और दूसरे इसके पास नागपुर में एयरपोर्ट के पास जमीन उपलब्ध थी, जो संबंधित संयत्र लगाने के लिए जरूरी थी।
इस विवाद में दूसरा बड़ा प्रश्न यह है कि पूरी प्रक्रिया से हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल को बाहर क्यों किया गया। इसका इतिहास खंगालने पर भी कई तरह की जानकारियां मिलती हैं। यह बिलकुल ठीक बात है कि यूपीए के समय सरकार ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत को तकनीक हस्तांतरण के साथ इसके निर्माण में भी भागीदार बनाया जाए और यह काम एचएएल के साथ मिलकर हो।
शुरुआती बात यह हुई थी कि 126 विमानों की कुल खरीद में से 18 विमान बने बनाए दिए जाएंगे और बाकी 108 विमान एचएएल का सहयोग लेकर भारत में ही निर्मित होंगे। यह वही समय था जब यूपीए सरकार पर घोटालों के साथ-साथ ये आरोप भी लग रहे थे कि वह फैसले करने में बहुत ढिलाई बरत रही है। उधर अपने कमजोर होते विमान बेड़े की चिंता में वायुसेना दबाव सरकार पर बढ़ता जा रहा था।
लेकिन घोटालों को लेकर अपने खिलाफ बन रहे माहौल के बाद सरकार अतिरिक्त सतर्कता बरत रही थी। इसी बीच रॉफेल की कीमत को लेकर ठन गई। दूसरी झंझट निर्माण प्रक्रिया में एचएएल की योग्यता को लेकर हुई। दसॉल्ट का कहना था कि एचएएल के पास वह विशेषज्ञता नहीं है कि वह इतने बड़े और संवेदनशील काम को ठीक से संभाल सके। उधर एचएएल भी इस बात को लेकर अड़ गया कि वह निर्माण में सहयोगी के रूप में ही काम करेगा, किसी ऑफसेट पार्टनर के रूप में नहीं।
चंदन नंदी ने ‘द क्विंट’ में अपनी रिपोर्ट में लिखा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एचएएल के बारे में आई विपरीत सूचनाओं के बाद दसॉल्ट ने एचएएल के नासिक प्लांट को देखने की मांग की। प्लांट देखने के बाद दसॉल्ट ने कहा कि वहां क्वालिटी कंट्रोल को लेकर काफी समस्याएं हैं और इन स्थितियों में वह एचएएल को सहयोगी बनाकर अपनी अंतर्राष्ट्रीय साख को खतरे में नहीं डालना चाहता।
इस सारी उठापटक का नतीजा बहुत बुरा हुआ। श्रीमय तालुकदार ने 23 नवंबर 2017 को ‘फर्स्ट पोस्ट‘ में इस मामले पर अपनी लंबी रिपोर्ट में रक्षा विश्लेषकनितिन गोखले की किताब ‘सिक्यूरिंग इंडिया’ के अंश कोट करते हुए लिखा कि- ‘’रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के अतिसतर्क रवैये के कारण, यूपीए सरकार ने बजाय फ्रेंच कंपनी के लिए सौदे की अंतिम मियाद तय करने के, अपने पैर पीछे खींच लिए और इस तरह उसने दसॉल्ट को अलग हो जाने दिया।‘’
एंटनी ने सौदे की प्रक्रिया का फिर से परीक्षण करने की दलील देते हुए रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों को निर्देश दिया कि लड़ाकू विमान खरीद की फाइल वापस उनके पास भेज दी जाए। मंत्री के इस निर्देश से और ज्यादा असमंजस की स्थिति बनी और उन अफसरों के मन में भी सौदे को लेकर संदेह पैदा हुआ जो विमान निर्माता कंपनी से बातचीत कर रहे थे।
भाई साहब बहुत अच्छा लेख है निश्चित रूप से राफेल सौदे के संदर्भ में लोगों की अज्ञानता इस लेख से दूर होगी
धन्यवाद अरुण जी