अगर किशोर वय की आपकी कोई बेटी हो और उसके साथ रास्ते चलते कोई लफंगा हरकत कर दे तो आपकी प्रतिक्रिया उस लफंगे के खिलाफ होनी चाहिए या फिर अपनी बच्ची के खिलाफ। सिद्धांतत: तो हमें उस बदमाश पर ही अपना गुस्सा निकालना चाहिए, लेकिन यदि आप बच्चियों से पूछें तो वे बताएंगी कि पहला गुस्सा तो उन्हीं पर निकलता है।
‘सेव द चिल्ड्रन’ की ‘विंग्स 2018’ रिपोर्ट के अध्ययन में इसीलिए सिर्फ 20 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि उनके साथ ऐसा कुछ होने पर उनके अभिभावक पुलिस में रिपोर्ट करेंगे। हालांकि पुलिस में रिपोर्ट करने से भी क्या होता है और क्या नहीं, यह सभी को मालूम है, लेकिन कम से कम घटनाएं प्रकाश में तो आती हैं। वरना तो रोज ऐसे लाखों मामले होते हैं जिन्हें बच्चियां या तो नियति मानकर स्वीकार कर लेती हैं या अपमान का घूंट पीकर चुप रह जाती हैं।
दरअसल हमने समाज ही ऐसा बनाया है जिसमें लोकलाज के भारी भरकम ठीकरे को सिर पर उठाने की ज्यादातर जिम्मेदारी लड़कियों या महिलाओं पर है। उन्हें अपनी इज्जत आबरू का खयाल तो रखना ही है, अपने साथ-साथ परिवार और नाते रिश्तदारों, पास-पड़ोस के लोगों, अपने शिक्षा संस्थानों, अपने सेवा संस्थानों आदि की इज्जत का भार भी पीठ पर लादकर चलना है।
कितनी अजीब बात है कि घटना लड़की या महिला के साथ होती है और इज्जत घर परिवार, नाते रिश्तेदार, शिक्षा संस्थान या सेवा संस्थान की जाती है। क्यों भई? हमें इन सब इज्जत के ठेकेदारों से पहले क्या बच्ची की इज्जत और उसके भविष्य की परवाह नहीं करनी चाहिए? पर ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता।
समाज में ‘ऑनर किलिंग’ जैसी घटनाएं भी ऐसी ही बर्बर मानसिकता में होती हैं। (वैसे यह ‘ऑनर किलिंग’ नाम भी किसी मूर्ख या कुंठित व्यक्ति के ही दिमाग की उपज लगता है। वरना किसी की जान लेने में कौनसा ऑनर? इसके लिए तो किसी के द्वारा सुझाया गया ‘हॉरर किलिंग’ नाम ही उपयुक्त लगता है।)
लड़की के साथ हुई किसी भी घटना को लेकर पुलिस के पास जाने से समाज आज भी डरता या सकुचाता है। सर्वे में 70 फीसदी लड़कियों ने कहा कि उनके साथ कोई भी घटना हो जाने पर उनके बड़े बूढ़े ही पुलिस जैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें ऐसे मामलों में कोई कदम उठाने की आजादी नहीं दी जाती।
53 प्रतिशत लड़कियों की राय थी कि उन्हें प्रताडि़त होने या किए जाने का उतना डर नहीं है, जितना डर इस बात का है कि यदि उनके साथ कुछ हो जाता है, तो समाज उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा। समाज ऐसी घटनाओं के बाद उन्हें एक तरह से अलग थलग कर देता है। और कभी-कभी तो वे जिंदगी भर इसी संत्रास या ट्रॉमा को लेकर जीती हैं।
शायद समाज और परिवार से प्रताडि़त या उपेक्षित होने के इसी डर और पुलिस व्यवस्था के प्रति अविश्वास का ही परिणाम है कि 42 प्रतिशत किशोरियों ने इस बात को सही माना कि यदि उनके साथ परेशान या प्रताडि़त करने वाली कोई घटना हो जाए तो पुलिस थाने में जाकर उसकी रिपोर्ट लिखाने में वे सहज महसूस नहीं करतीं।
और उधर अभिभावकों या माता-पिता की मानसिकता भी जान लीजिये। लड़कियों से सवाल किया गया कि उनके घूमने-फिरने पर प्रतिबंध लगाने और उनकी कम उम्र में शादी कर देने के पीछे उनके अभिभावक क्या तर्क देते हैं, तो 77 फीसदी का कहना था कि यदि लड़की के साथ घर से बाहर कोई घटना हो जाए और उसके बारे में लोगों को पता लग जाए तो समाज में लड़की की शादी नहीं हो पाएगी। उसके लिए कोई लड़का नहीं मिलेगा।
अध्ययन के मुताबिक 49 फीसदी अभिभावक आज भी मानते हैं कि नियमित रूप से उनकी बेटियों को अकेले स्कूल जाने की इजाजत देना जोखिम से भरा काम है। इसी तरह 36 फीसदी अभिभावक मानते हैं कि यदि उनके परिवार की कोई लड़की, दिन भर लड़कों के साथ बैठकर की जाने वाली कोई नौकरी करने जाए, तो उसकी इजाजत देना उनके लिए असुविधाजनक होगा।
29 फीसदी अभिभावक लड़कियों को एक बोझ की तरह देखते हैं। उनका मानना है कि लड़की के साथ घर से बाहर कोई ऊंच नीच हो जाए, इसका खतरा मोल लेने के बजाय बेहतर यही है कि जितनी जल्दी हो उसकी शादी कर दी जाए। यानी ऐसे अभिभावकों के लिए शादी भी एक तरह से लड़की की बला अपने सिर से टालने का जरिया ही है।
लड़कियों को खतरा केवल अभिभावकों से ही नहीं वरन समान उम्र के लड़कों की मानसिकता से भी है। जैसे 54 फीसदी लड़के और 52 फीसदी अभिभावक मानते हैं कि लड़कियां पुरुषों की नौकरियां छीन रही हैं। 41 फीसदी लड़कों व 31 फीसदी माता-पिता का कहना था कि लड़कियों को शादी के बाद उनकी देखभाल करने वाला कोई मिल ही जाता है, इसलिए उन्हें काम करने की क्या जरूरत है।
एक और खतरनाक ओपीनियन सरकार की नीतियों को लेकर सामने आया है। 44 प्रतिशत लड़के और 32 फीसदी अभिभावकों की राय है कि सरकारें केवल लड़कियों के अधिकारों को लेकर ही चिंतित और सक्रिय है, लड़कों के अधिकारों के प्रति वह बिलकुल चिंतित नहीं है और न ही उनके लिए कुछ कर रही है।
यह सर्वेक्षण मध्यप्रदेश के शहरी और ग्रामीण दोनों अंचलों में किया गया। शहरी क्षेत्रों में इसके लिए इंदौर और ग्वालियर के नगर निगम क्षेत्र और उज्जैन को चुना गया, वहीं छोटे शहरों के रूप में शहडोल और उज्जैन जिले के नागदा को लिया गया। ग्रामीण अंचल के लिए शहडोल और भिंड जिले के गांवों में लड़कियों से बात की गई। इस लिहाज से इसमें पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व है।
ऐसे सर्वे संख्यात्मक भागीदारी के लिहाज से बहुत ज्यादा व्यापक न हों लेकिन हांडी के चावल की तरह वे यह संकेत बखूबी दे देते हैं कि समाज किस स्तर पर सोच रहा है। निश्चित रूप से विंग्स-2018 के निष्कर्ष चिंता में डालने वाले हैं। ये बताते हैं कि लड़कियां भले ही अपने पंख फैलाकर उड़ने की तैयारी कर रही हों, लेकिन सामाजिक मानसिकता की कैंची अभी बरकरार है।
कल बात करेंगे, क्या हो और कैसे हो…