बहुत कन्फ्यूजन है भाई… मेरा तो सिर चकरा गया… कौनसी बात पर बहस करें और कौनसे मुद्दे पर मगजमारी… कुछ समझ में नहीं आता। एक तरफ देखें तो सूखा नजर आता है और दूसरी तरफ नजर घुमाएं तो हरी भरी वादियां। गालिब ने कहा था- बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे…
मुझे भी कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि सचमुच आंखों के सामने कोई तमाशा ही हो रहा है। और इस तमाशे में हम कहां खड़े हैं, हमारी हालत क्या है.. हम किस दुविधा में जी रहे हैं..? तो उसका जवाब भी गालिब ही देते हैं- ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र, काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे…
तेल की बढ़ती कीमतें देश को हलकान किए जा रही हैं और उधर रुपया है कि लोगों की मदद करने के बजाय बिल में घुसा चला जा रहा है। बुधवार को तो यह डॉलर के मुकाबले गिरते गिरते 72 रुपये 91 पैसे हो गया, यानी अब तक का सबसे न्यूनतम स्तर… और अभी पता ही नहीं कि जेब की साख का प्रतीक यह रुपया और कितना गिरेगा…
इधर अखबार रोज ऐसी खबरों पर चीख रहे हैं, उधर राजनीतिक पार्टियां कभी साइकल पर तो कभी बैलगाड़ी पर चलकर विरोध जताने से लेकर भारत बंद जैसे अनुष्ठान कर रही हैं। ऐसा लगता है कि जो कुछ हो रहा है उससे सारा तंत्र ही सुन्न पड़ गया है। एक कह रहा है कि हुजूर इस दशा के लिए आप जिम्मेदार हो और दूसरा जवाब दे रहा है हमारे हाथ में कुछ नहीं, जो कुछ है सब ‘तेलवाले’ के हाथ है…
और खबरें भी कैसी कैसी खबरें आ रही हैं, पूछिये मत… आज कुछ ऐसी ही खबरों की बानगी देते हुए उन पर बात करने का मन है। तो चलिये, बात मंगलवार को छपी उस खबर से शुरू करते हैं जो कहती है कि केंद्र सरकार पर तेल की कीमतें कम करने का दबाव तो बहुत है, लेकिन इससे होने वाले घाटे को लेकर उसके हाथ पैर फूले हुए हैं।
केंद्र सरकार ‘अर्थधर्म’ के संकट में फंसी हुई है। क्योंकि अफसरों ने सरकार को पट्टी पढ़ाई है कि यदि पेट्रोल और डीजल के दामों में दो रुपए प्रति लीटर की भी कमी की गई तो इससे 28 से 30 हजार करोड़ रुपये तक का नुकसान होगा। केंद्र अपनी टैक्स आमदनी में से इतना बड़ा हिस्सा खोना नहीं चाहता और इसीलिए वह राज्यों पर दबाव बना रहा है कि वे अपने यहां वैट में कमी कर उपभोक्ताओं को राहत दें।
पिछले दिनों राजस्थान सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले वैट में 4 फीसदी की कमी का ऐलान किया था। उसके बाद आंध्रप्रदेश ने भी ईंधन के दामों में दो रुपये की कमी कर दी थी। इसी तरह पश्चिम बंगाल में ममता सरकार ने एक रुपये प्रति लीटर की कमी का ऐलान किया था। हालांकि अपनी मध्यप्रदेश सरकार इस मामले में केंद्र की तरफ ताक रही है।
आने वाले दिनों में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं और अगले साल लोकसभा के चुनाव होंगे। यदि केंद्र सरकार लोगों को राहत देकर इतनी बड़ी राशि का नुकसान झेलती है, तो उसे विकास कार्यक्रमों में कटौती करना होगी और जाहिर है चुनाव सिर पर होने के कारण सरकार यह खतरा मोल नहीं लेगी।
चुनाव के ही कारण इस घाटे को कोई और नया कर या शुल्क लगाकर पूरा करने का विकल्प भी राजनीतिक समझदारी नहीं होगा। ऐसे समय जब रुपया लगातार गिर रहा है, सरकार को तेल आयात करने में और अधिक राशि खर्च करनी होगी, यानी उस पर दोहरी मार पड़ेगी। एक तरफ टैक्स आमदनी घटेगी तो दूसरी तरफ खर्चा बढ़ेगा जो देश की अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा।
लेकिन बुधवार को ही एक और रिपोर्ट छपी है जो कुछ और ही गणित बता रही है। एसबीआई रिसर्च की रिपोर्ट कह रही हैं कि तेल के बढ़ते दामों से देश के 19 प्रमुख राज्यों को वर्ष 2018-19 में 22702 करोड़ रुपये की अतिरिक्त कमाई होगी। कमाई का यह अनुमान कच्चे तेल की कीमत 75 रुपये प्रति बैरल और रुपये की कीमत 72 रुपये प्रति डॉलर मान कर किया गया है।
इस रिपोर्ट के अनुसार राज्यों को बढ़े हुए करों से इतनी कमाई हो रही है कि यदि वे पेट्रोल के दामों में औसतन 3.20 रुपये और डीजल के दामों में 2.30 रुपये की कमी भी कर दें तो भी उन्हें कोई घाटा नहीं होगा और उनकी राजस्व आय बजट अनुमान के बराबर ही रहेगी। यानी सरकारें यदि चाहें तो अपना पेट मोटा करने के बजाय जनता के मुंह में राहत की बूंदें डाल सकती हैं।
लेकिन यहां तो हरेक सरकार की दाढ़ में तेल लगा हुआ है। कोई भी सरकार अपनी कमाई का हिस्सा बांटना नहीं चाहती। वे बढ़ी हुई कीमतों के आधार पर, बैठे बिठाए लोगों से बढ़ा हुआ टैक्स तो जेब में ठूंस रहे हैं लेकिन जनता को राहत देने के नाम पर उन्हें मौत आ रही है। चुनाव के साल में कोई सरकार कंगाल होना नहीं चाहती।
जब वोट के जुगाड़ की मारामारी मची हो तो कोई भी सरकार खजाने की खैरात भी वहीं बांटेगी जहां उसे बदले में राजनीतिक लाभ मिल सके। पेट्रोल और डीजल को सरकार उस मध्यम वर्ग की जरूरत मानकर चलती है, जिसके लिए किसी भी कीमत पर ईंधन खरीदना मजबूरी है। राजनैतिक दलों को पता है कि यह वर्ग चाहे जितना चिल्ला ले, उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
पर कीमतें बढ़ने और उन्हें कम करने की मांग के इस होहल्ले में मुझे एक बात बहुत चौंकाती है। मैं देख रहा हूं कि एक तरफ अखबार तेल की बढ़ती कीमतों की सुर्खियों से भरे हैं, दूसरी तरफ उनमें वाहन कंपनियों के विज्ञापनों की भरमार है। बुधवार को ही एक प्रमुख राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक के पहले तीन पन्ने मोटरसाइकिल और कार के विज्ञापन से पूरे भरे थे, तो प्रादेशिक स्तर के एक प्रमुख अखबार में आधे पेज से लेकर चौथाई पेज तक के आठ विज्ञापन थे।
सरकारें भी शायद ऐसे विज्ञापनों से चलने लगी हैं… जब लोगों के पास महंगी गाडि़या खरीदने को पैसा है, तो महंगा पेट्रोल डीजल भी वे झक मारकर खरीदेंगे ही…