गांधी पर विमर्श का इससे अच्छा समापन शायद नहीं हो सकता था। पी. साईंनाथ जब बोल रहे हों तो ऐसा लगता है कि वे बस बोलते जाएं और आप तल्लीन होकर उन्हें सुनते जाएं। बाकी वक्ताओं से साईंनाथ इस मायने में अलग हैं कि वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए आपको सोचने के लिए मजबूर भी करते चलते हैं।
दिक्कत बस एक ही होती है कि उनके पिछले वाक्य पर जब आप सोचने लगते हैं तो इस बीच उनका भाषण आगे बढ़ जाता है। फिर जैसे रास्ते में घरवालों से पीछे छूटा कोई बच्चा तेजी से दौड़कर उस दूरी को पूरी करता हो, वैसे ही आपको अपना दिमाग दौड़ाकर उनके साथ कदमताल करनी होती है। वरना आप बहुत कुछ मिस कर सकते हैं।
डॉ. तारक काटे ने भारत की खेती किसानी के परिदृश्य को लेकर जो बात गांधी और ग्रामीण संदर्भों के साथ प्रस्तुत की थी, उसी को साईंनाथ ने शहरी और आधुनिक संदर्भों का भी जिक्र करते हुए आगे बढ़ाया। दिलचस्प बात यह रही कि तारक काटे जी ने अपने नाम के विपरीत बहुत सरल ढंग से, बिना किसी ‘तार-कांटे’ के अपनी बात कही थी। जबकि साईंनाथ ने अपने नाम के अनुरूप तर्कों और विश्लेषण से सारे परिदृश्य को ‘नाथ’ कर रख दिया।
उन्होंने कहा- हम जिसे सिर्फ खेती का संकट समझ रहे हैं, वह दरअसल पूरे समाज का, पूरी सभ्यता का संकट है। पिछले 20 सालों में देश में तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह इंसानियत का संकट है। और दूसरी तरफ सचाई यह है कि जिन्हें कथित रूप से राष्ट्रीय समाचार पत्र कहा जाता है, उनके पहले पन्ने पर खेती या ग्रामीण भारत से जुड़ी खबरें छपने का प्रतिशत मात्र 0.67 है।
सरकारें खेती किसानी के साथ कैसे छलावा करती हैं इसका एक उदाहरण लें। 2014 के चुनाव से पहले इस सरकार में बैठे लोगों ने वायदा किया था कि वे किसानों को लागत मूल्य और उसका 50 प्रतिशत मिलाकर उपज की कीमत देंगे। सत्ता में आने के 12 माह के भीतर सरकार ने एक मामले में कोर्ट में शपथ पत्र देकर कह दिया कि यह नहीं हो सकता क्योंकि इससे बाजार बुरी तरह प्रभावित होगा।
फिर 2016 में देश के कृषि मंत्री ने दो टूक बयान दे डाला कि हमने तो ऐसा कोई वादा किया ही नहीं था। फिर 2017 में सरकार कहने लगी कि स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों की बात छोड़ो आप तो खेती का मध्यप्रदेश मॉडल देखो। फिर आया वर्ष 2018-19 का बजट भाषण जिसमें सरकार ने दावा किया कि फसल के दाम बढ़ाने का जो वादा हमने किया था उसे हमने पूरा कर दिया है।
और इसके बाद अभी अभी जुलाई 2018 में सरकार ने वाहवाही लूटने के अंदाज में घोषणा की कि हम खरीफ फसलों के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी करते हुए किसानों से किया गया अपना वादा पूरा कर रहे हैं। दरअसल सरकार कुछ नहीं कर रही सिर्फ रोज नई बयानबाजी कर किसानों को बेवकूफ बना रही है। हर सरकार यही करती आई है।
हम समझ नहीं रहे कि हम अपनी खेती को ‘स्टेराइड’ पर चला रहे हैं। इससे वह आत्मनिर्भर होने के बजाय अधिक से अधिक पराश्रित होती जा रही है। आर्थिक विशेषज्ञ इनपुट और आउटपुट के बीच मौजूद एक जैविक इकाई को नजरअंदाज कर देते हैं और वह महत्वपूर्ण कड़ी है जमीन। अब यह संकट कृषि से बहुत आगे चला गया है और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे सेक्टर्स को प्रभावित कर रहा है।
आर्थिक असमानता भारत का सबसे तेजी से बढ़ता क्षेत्र है। 1991 में भूमंडलीकरण की शुरुआत के समय भारत में एक भी ‘डॉलर अरबपति’ नहीं था, लेकिन आज इनकी संख्या 121 हो गई है। और यह सब सरकार की उन नीतियों की बदौलत हो रहा है, जो कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई जा रही हैं। अकेले मुकेश अंबानी ने 12 महीनों में 16.9 अरब डॉलर की कमाई की।
दूसरी तरफ एनएसएस का डॉटा कहता है कि पांच लोगों के औसत किसान परिवार की मासिक आय सिर्फ 6426 रुपये है। फिर भी वे अनाज पैदा कर रहे हैं। हम उनके उपयोग में आने वाले बीज, खाद, कीटनाशक आदि सभी का बहुराष्ट्रीयकरण करते जा रहे हैं। और अब तो देश में अंतिम नैसर्गिक संसाधन पानी का भी निजीकरण होने जा रहा है, कोयंबतूर में इसकी शुरुआत हो चुकी है।
कृषि क्षेत्र में कर्ज बढ़ा, लेकिन कर्ज की राशि भी किसानों के हाथ में नहीं गई। किसानों के नाम आने वाली कर्ज की राशि शहरी क्षेत्र के लोगों को बांटी जा रही है। ‘क्रॉप लोन’ को चुपचाप ‘टर्म लोन’ में बदल दिया गया। बैंक चूंकि किसान से दूर हो रहे हैं इसलिए वह साहूकारों के जाल में फंस रहा है। मीडिया ये बातें इसलिए नहीं लिखता क्योंकि मीडिया घराने भी इस गोरखधंधे का फायदा उठा रहे हैं।
सरकार तथ्यों को छिपाने के लिए संस्थाओं की आंकड़े जुटाने की कार्यप्रणाली ही बदल रही है। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के डाटा में किसान आत्महत्या का डाटा अब नहीं दिया जाता। इसी तरह लोगों को पोषक भोजन मिलने संबंधी आंकड़े देने वाली हैदराबाद की संस्था नैशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो को भी बंद कर दिया गया।
अब सवाल उठता है कि इन सारे हालात से बचने का उपाय क्या? तो उपाय यह है कि बजाय आत्महत्या करने के किसान सड़क पर आकर प्रदर्शन करें। जैसा पिछले दिनों महाराष्ट्र में उन्होंने नासिक से मुंबई तक मार्च निकालकर दिखाया। किसानों की उस ताकत के सामने महाराष्ट्र सरकार को झुकना पड़ा।
अब इसी तर्ज पर देश के 201 संगठनों ने 21 दिन का संसद का सत्र सिर्फ कृषि संकट और पानी जैसे मुद्दों पर बुलाने की मांग करते हुए दिल्ली मार्च का नारा दिया है। अगले साल लोकसभा चुनाव से पहले संभावित इस मार्च में देश भर से लाखों किसान दिल्ली में आकर संसद के सामने प्रदर्शन करेंगे।
साईंनाथ करीब डेढ़ घंटा बोले। उनके उस प्रभावी भाषण को इस कॉलम की सीमा में समेटना संभव नहीं है, इसलिए मैं यहां अपने पाठकों से यू-ट्यूब की वह लिंक शेयर कर रहा हूं जिस पर आप वह भाषण सुन सकते हैं। https://www.youtube.com/watch?v=7rgCTrUSjQw&feature=youtu.be
इसके साथ ही मैं गांधी विमर्श की इस श्रृंखला को यहीं विराम देता हूं। इस विमर्श से इतर भी सेवाग्राम के कुछ और अनुभव हैं, जिन्हें और कभी मौका मिला तो आपसे जरूर शेयर करूंगा। (समाप्त)