28 अक्टूबर 1944 को ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में गांधीजी लिखते हैं- ‘’मुझे कोई संदेह नहीं कि यदि हमें लोकतांत्रिक स्वराज हासिल हो और यदि हमने अपनी स्वतंत्रता अहिंसा से पाई, और जरूर ऐसा ही होगा, तो उसमें किसानों के पास राजनैतिक सत्ता के साथ हर किस्म की सत्ता होनी चाहिए।‘’
सेवाग्राम में गांधी विमर्श का अंतिम दिन बहुत ही प्रतीकात्मक रूप से गांधी के बहाने खेती और किसानी पर आकर केंद्रित हो गया। इस सत्र में दो ही वक्ता थे और था उनके अनुभवों का निचोड़। इनमें से एक थे कृषि विज्ञानी और विशेषज्ञ डॉ. तारक काटे और दूसरे जाने माने पत्रकार पी. साईंनाथ। सत्र का विषय था ‘भारत में कृषि और कृषक’ सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकांत नायडू ने की।
तारक काटे ने छोटे किसानों के लिए उनकी जमीन के बेहतर और अधिकतम उपयोग की जैव विविधता आधारित गैर रसायनिक तकनीक विकसित की है। उन्होंने 1991 में ‘धरामित्र’ नाम का एक संगठन खड़ा किया। इसके जरिये वे वर्धा और यवतमाल जिलों में छोटे, खासकर जनजाति बहुल इलाकों के किसानों के बीच देशी वैज्ञानिक पद्धति से खेती का काम कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि पिछले चार दशकों से किसानों और खेती की हालत बद से बदतर होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि नीति नियंताओं का फोकस खेती से हटकर औद्योगीकरण की तरफ मुड़ा। वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीति को तवज्जो दिए जाने का भी खेती पर बहुत बुरा असर हुआ।
हम ग्राहकों यानी उपयोगकर्ताओं का हित ज्यादा देख रहे हैं कि उन्हें सस्ता अनाज उपलब्ध हो, फिर भले ही उसके कारण किसान बरबाद हो जाए। खेती को वैज्ञानिक बनाने के नाम पर हमने देशी पद्धतियों की अवहेलना की। इससे उत्पादन तो बढ़ा लेकिन किसानों का खर्चा भी बहुत बढ़ गया और उसे वहन करने के लिए वे कर्ज के दलदल में डूबते चले गए।
गांधी प्रकृति से स्नेह रखने वाला विकास और जीवनशैली चाहते थे। प्रधानमंत्री पिछले दो साल से कह रहे हैं कि 2022 तक वे किसानों की आमदनी दोगुनी कर देंगे। लेकिन इसके लिए सरकार उपज के दाम बढ़ाने वाला आसान और खतरनाक रास्ता चुन रही है, जबकि इसके बजाय नीतिगत बदलाव किए जाने चाहिए।
आय बढ़ाने के लिए सबसे पहले हमें उत्पादन बढ़ाना होगा, दूसरे खेती का लागत खर्च कम करना होगा और तीसरे किसानों को उपज का उचित दाम दिलाना होगा। उत्पादन बढ़ाने के लिए सबसे जरूरी है कि हम जमीन की तरफ ध्यान दें। एक तो औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण जमीन कम हो रही है, दूसरे उसका लगातार क्षरण हो रहा है।
देश में 12 करोड़ हेक्टेयर जमीन की ऊपरी उपजाऊ परत का क्षरण हो चुका है। यह क्षेत्रफल देश की कुल जमीन का 38 प्रतिशत है। कुछ राज्यों में तो यह क्षरण 40 से 80 प्रतिशत तक पहुंच गया है। जमीन की सेहत लगातार खराब हो रही है। जमीन अपनी जैव विविधता के कारण ही ऊपजाऊ या सेहतमंद रहती है।
पिछले 40-50 सालों में हमने जमीन में रसायनिक खाद और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग किया। हम यह भूल गए कि जमीन को उपजाऊ बनाने वाले सूक्ष्म जीवों को भी अपने लिए भोजन चाहिए जो उन्हें जमीन के पोषक तत्वों से ही मिलता है। जमीन उपजाऊ ही नहीं रहेगी तो उत्पादन कैसे बढ़ेगा?
एक बड़ा मामला हमारी खेती से निकलने वाले करीब 50 करोड़ टन कचरे या रेसीड्यू का है, जिसका ज्यादातर हिस्सा जला दिया जाता है। इससे जमीन के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। केवल धान के कचरे या डंठल को जलाने से ही 59 हजार टन नाइट्रोजन, 20 हजार टन फॉस्फोरस, 34 हजार टन पोटाश नष्ट हो जाता है।
आज सरकार 70 हजार करोड़ रुपये की सबसिडी किसानों के नाम से रसायनिक खाद कारखानों को देती है। इसी राशि का इस्तेमाल यदि गांव गांव में जैविक खाद बनाने के लिए किया जाए तो एक तो गांवों में बेरोजगारों को काम मिलेगा और दूसरे इससे जैव विविधता बनी रहने के कारण जमीन के उपजाऊपन को भी नुकसान नहीं होगा।
एक समस्या एकल खेती की है। एक समय गांवों में 12 से 14 प्रकार की फसलें तक ली जाती थीं। पर आज हम गेहूं और चावल जैसी फसलें बहुतायत में लेकर कह रहे हैं कि उत्पादन बढ़ गया है। पर ये तो केवल कार्बोहाइड्रेड बढ़ाने वाले अनाज हैं, शरीर को तो सभी प्रकार के तत्व चाहिए। हमें खाद्य सुरक्षा और पोषक सुरक्षा में अंतर को समझना होगा।
हमारी खेती आज स्वास्थ्य और पोषण जरूरतों के बजाय बाजार की मांग के अनुसार हो रही है। इसीलिए हम कभी कपास की ओर भागते हैं, तो कभी सोयाबीन की ओर, कभी प्याज की ओर, तो कभी टमाटर की ओर। हमें विविध खेती को अपनाकर सूक्ष्म जीवाणुओं की बढ़ोतरी के जरिये जमीन की ताकत को बढ़ाना होगा।
बीज का मामला भी उलझा हुआ है। हरित क्रांति की शुरुआत में बीज उपलब्ध कराने की सारी जिम्मेदारी सरकार की थी, लेकिन अब यह काम प्राइवेट कंपनियों के पास चला गया है। बीटी कॉटन को ही ले लीजिये, कंपनियां अपने एकाधिकार के चलते किसानों को लूट रही हैं। उनकी जेब से 12 से 16 हजार करोड़ रुपया जा रहा है।
पहले किसान अपनी ही फसल से बीज निकाल लेता था और उसे अतिरिक्त खर्चा नहीं करना पड़ता था। हमें इस ओर लौटना होगा। ताकि किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बार बार बीज खरीदने की जरूरत न पड़े। बीज की बिक्री भी सरकार करे और किसानों को रियायती दर पर बीज दे।
आखिरी मसला किसानों की उपज के दाम का है। दुनिया में केवल किसान ही ऐसा है जिसका न तो अपने लागत खर्च पर नियंत्रण है न उपज के दामों पर। प्याज या टमाटर के दाम आसमान छूने लगते हैं तो हाहाकार मच जाता है। लेकिन दाम जब एक रुपये या 50 पैसे किलो तक गिर जाते हैं तब कोई यह नहीं कहता कि किसानों को बचाने के लिए हम इसे पांच रुपया या दस रुपया किलों में ही खरीदेंगे।
गरीबों को लुभाने के लिए एक रुपये दो रुपये किलो अनाज देने की प्रवृत्ति किसानों को हतोत्साहित कर रही है, इसे बंद करना चाहिए। देश का किसान यदि नहीं बचा तो आपको खाना कौन खिलाएगा। किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत करेंगे तो देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।
देश की अर्थव्यवस्था कारखाने नहीं गांव और गांव के लोग चलाते हैं। उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी तो उसका फायदा देश को ही होगा। किसानों की आय दुगनी करने की बात जुमले तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे वास्तविकता में भी बदलना चाहिए।(जारी)